डियर जिंदगी : कितनी तारीफें चाहिए!
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डियर जिंदगी : कितनी तारीफें चाहिए!

‘सोशल’ मीडिया के आने के बाद हमने अपरि‍चितों के लिए कड़वी बातें खास तौर पर निर्मित करनी भी शुरू कर दी है. पूर्वाग्रह से रचित और उतने ही प्रशंसा की चाशनी में लिपटे तथ्‍य उनके लिए जिनके आसपास हमारी आशा की बेल पनप रही है.

डियर जिंदगी : कितनी तारीफें चाहिए!

प्रशंसा की चाशनी में जो घुलनशील न हों, उस प्रजाति के लोग विलुप्‍त होने की कगार पर हैं. तारीफ करने वालों ने अपने ‘हुनर’ में इतनी महारत हासिल कर ली है कि उनका हाथ पकड़ने के लिए कड़ा अनुशासन, दिल-दिमाग पर नियंत्रण चाहिए.

प्रशंसा और चापलूसी में बेहद बारीक रेखा होती है. मुक्‍त भाव से की गई प्रशंसा एक किस्‍म की प्रेरणा है, जबकि चापलूसी प्रशंसा का विकृत भाव है. कथित लक्ष्‍य साधने के लिए अपने भीतर तैयार किया गया एक प्रकार का मनोभाव. जो आगे चलकर मनोविकार में बदल जाता है. बहुत से लोग व्‍यक्ति विशेष का सानिध्‍य, लाभ पाने के लिए अपनी संपूर्ण शक्ति, समस्‍त योग्‍यता, सोचने-समझने की क्षमता को धीरे-धीरे कुंद कर देते हैं, क्‍योंकि उन्‍हें कुछ खास लोगों को प्रसन्‍न करना है.  

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मनुष्‍यता, संवेदनशीलता की कमी का असर है कि हम दूसरे से केवल तारीफ चाहते हैं. आलोचना, कड़वी बातों से दूर हम तारीफों की पालकी पर सवार हैं. इससे भला होना तो दूर, जिंदगी सबसे अधिक नुकसान ही उठा रही है.

हम इस चक्‍कर में पसंद न आने वाली चीज़ों में उलझे, अपेक्षा के दलदल में धंसते जा रहे हैं. भीतर ही भीतर डरे मन से हम सोचते रहते हैं कि कहीं हमारी बात उसे न कड़वी लग जाए, जो अतिप्रिय, शक्तिशाली है.

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‘सोशल’ मीडिया के आने के बाद हमने अपरि‍चितों के लिए कड़वी बातें खास तौर पर निर्मित करनी भी शुरू कर दी है. पूर्वाग्रह से रचित और उतने ही प्रशंसा की चाशनी में लिपटे तथ्‍य उनके लिए जिनके आसपास हमारी आशा की बेल पनप रही है.

प्रशंसा पर लिखने के विचार के दौरान एक से बढ़कर एक मिसालों के बीच यह कहानी मिली. आप भी केवल एक मिनट खर्च करके इससे गुजर सकते हैं...

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कहानी का नाम है, ‘कीर्ति -रक्षा’. कहानी इस प्रकार है...

बात पिछले जन्‍म की है. जब मैं संसार के एक साहसी देश का लोकप्रिय योद्धा था. मेरे देशवासियों को मुझ पर बड़ा गर्व था. देश के लिए मैं नायक था, उन्‍हें मुझ पर नाज था. देशवासी अपने वीरों की प्रशंसा को सदैव उत्‍सुक रहते. शहादत के बाद उन्‍होंने मेरी भव्‍य प्रतिमा बनाने का निश्‍चय किया. मौत के बाद स्‍वर्ग पहुंचते ही मैंने एक देवदूत से यह इच्‍छा प्रकट की. मैं देखना चाहता था कि लोग किस तरह याद कर रहे हैं, मेरे प्रति श्रद्धा की कैसी लहर चल रही है.

देवदूत ने मुझसे कहा, ‘तुमने संसार में अनेक जन्‍मों में बड़ी प्रतिष्‍ठा पाई है. चलो तुम्‍हारे पहली प्रतिमा की ओर चलते हैं.’  

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एक उजड़े जंगल में, कचरे के ढेर के पास, सूखे कुएं में देवदूत ने अपना वाहन रोककर मुझे उसके भीतर झांकने को कहा.

‘वह देखो, कुएं के बीच में सूखी हुई मिट्टी में वह जो बांस की दो हाथ ऊंची खपच्‍ची गड़ी‍ दिख रही है, वही तुम्‍हारा कीर्ति स्‍तंभ है. उस जन्‍म में तुम उस कुएं में रहने वाले मेढकों के राजा थे और तुम्‍हारे सम्‍मान में उन्होंने यह विशाल स्‍तंभ खड़ा किया था.’

देवमित्र की सहायता से मैंने जो पढ़ा वह इस प्रकार था, हमारे कुल का सबसे शक्तिशाली सदस्‍य, जिसे इस कुएं के भीतर सबसे ऊंची, तीन फीट की छलांग भरने के अवसर पर हमने अपना राजा चुना था. उनके सम्‍मान में हम इस कुएं के भीतर आई हुई इस सबसे अधिक मूल्‍यवान धातु का स्‍तंभ खड़ा करते हैं.

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मैंने तुरंत मित्र से लौटने का अनुरोध किया. स्‍वर्ग से पृथ्‍वी पर इस जन्‍म में लौटने के बाद भी मुझे वह घटना याद है. इसलिए, जब कभी मेरे, या मेरे किसी प्रिय के सम्‍मान, प्रतिमा की लोग बात करते हैं, तो मैं सावधान हो जाता हूं.

कहानी खत्‍म...

इस कहानी का नायक तो तारीफ, सम्‍मान, कीर्ति स्‍तंभ का जिक्र आते ही सतर्क हो जाता है. और आप! जब भी ऐसा हो इस कहानी को एक बार जरूर याद कर लीजिएगा.

शायद, कुछ मदद हो जाए.

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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)

 

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