डियर जिंदगी : बुद्धि से ‘बाहर’ आने की जरूरत
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डियर जिंदगी : बुद्धि से ‘बाहर’ आने की जरूरत

बच्‍चों के साथ हर चार महीने में लंबे ‘वीकएंड’ पर जाने वालों की यात्रा सूची से बुजुर्गों का नाम बाहर हो गया है. उनको अपने साथ ले जाना तो दूर की बात, उनके पास दो दिन जाने का वक्‍त कथित कामकाजी युवा नहीं निकाल पा रहे हैं.

डियर जिंदगी : बुद्धि से ‘बाहर’ आने की जरूरत

हर बात से पहले सोच-विचार अच्‍छी बात है. दिमाग से फैसले करने में भी कोई बुराई नहीं. बात केवल वहां आकर बिगड़ जाती है, जहां हम केवल और केवल दिमाग, बुद्धि का उपयोग करने में जुट जाते हैं. हर चीज़, हर बात से पहले दिमाग लगाते-लगाते हम इतने यंत्रवत हो रहे हैं, कि हर बात में ‘गणित’ का उपयोग करने लगे हैं और जीवन बस कैलकुलेशन बनकर रह गया है. जो कैलकुलेशन में नहीं आता जिंदगी से बाहर हो जाता है, भले ही वह कोई भी हो! इस कोई भी में सब शामिल हैं. माता-पिता के इसकी चपेट में आने की सबसे अधिक आशंका रहती है.

दोस्‍तों से मिलना, किसी के पास जाना, बात करना बहुत अधिक कैलकुलेटिव हो गया है. बच्‍चे बड़े हुए नहीं कि कैलकुलेशन में बिजी हो गए. माता-पिता के साथ उनके रिश्‍ते उनकी जरूरतों के आधार पर तय होने लगे. उधर माता-पिता के माता-पिता साठ पार होते ही उनके ऐसे बच्‍चों के लिए प्राथमिकता सूची से बाहर हो जाते हैं, जो दूर देश में कहीं ‘सैटल’ हैं. दूर देश तो छोडि़ए अपने ही देश में युवा विदेश बनाए बैठे हैं.

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बच्‍चों के साथ हर चार महीने में लंबे ‘वीकएंड’ पर जाने वालों की यात्रा सूची से बुजुर्गों का नाम बाहर हो गया है. उनको अपने साथ ले जाना तो दूर की बात, उनके पास दो दिन जाने का वक्‍त कथित कामकाजी युवा नहीं निकाल पा रहे हैं.

डियर जिंदगी की संवाद सीरीज के तहत होने वाले ‘जीवन-संवाद’ में इस बार मध्‍यपद्रेश के रीवा में हमारी मुलाकात बुजुर्गों की चौपाल से हुई. इसमें एक रिटायर्ड, बुजुर्ग प्रिंसिपल साहब भी थे. सहज संवाद में मैंने उनसे कहा कि परिवार में कौन-कौन हैं. जवाब देने के लिए उन्होंने थोड़ा वक्‍त लेते हुए भर्राई आवाज में कहा, ‘चार बच्‍चे हैं. तीन बेटे और एक बेटी. सब सैटल हैं. लेकिन किसी के पास हमारे पास आने के लिए वक्‍त नहीं. समझ में नहीं आता, हर दिन हम पति-पत्‍नी क्‍या बातें करें. जिंदगी किसी तरह कट रही है. अकेलापन, अंतहीन इंतजार जीवन का हिस्‍सा है.’  

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विकास की खोखली अवधारणा, जीवन के लिए बुनियादी सुविधाओं की कमी, बेरोजगारी के चलते गांव इतने सूने, एकाकी, खाली होते जा रहे हैं कि वहां युवा, बच्‍चों के लिए कोई जगह नहीं है. गांव बुजुर्गों के अकेलेपन की शाम बनकर रह गए हैं. बच्‍चे, अपने बच्‍चों के भविष्‍य की चाह में इतने मग्‍न हैं, कि उनके माता-पिता उनकी प्राथमिकता सूची से बाहर हो गए हैं. सब मिलकर ऐसा अकेलापन गढ़ रहे हैं, जिसकी चपटे में देर सबेर सब आने वाले हैं.

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यह सपनों की कैसी दौड़ है. महत्‍वाकांक्षा का कैसा जहाज है, जिसमें उनके लिए कोई जगह नहीं, जिनके कंधों पर पांव रखकर हम उस सीढ़ी तक पहुंचे हैं, जिसका नाम करियर है. हम अपने बच्‍चों को क्‍या शिक्षा और सीख दे रहे हैं, जिसमें नैतिकता के लिए जगह नहीं.

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मनुष्‍य और मनुष्‍यता से हम खुद अपने बच्‍चों को दूर करते जा रहे हैं. इस तरह असल में हम बड़ों के साथ अन्‍याय करने के साथ ही अपने लिए भी उस दुनिया की नींव डाल रहे हैं, जहां अकेलेपन, तन्‍हाई के अलावा हमारा और कोई साथी नहीं होगा.

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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)

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