बच्चों की परवरिश, संस्कार जरूरी हैं, लेकिन यह काम उनके मन की कोमलता, सुंदरता, उदारता की कीमत पर नहीं होना चाहिए. ये सबसे अनमोल गुण हैं. बच्चों की परिवरिश में उनके साथ होने वाली हिंसा, उन पर थोपी जाने वाली जिद, जिंदगी के कुछ ऐसे अंधेरे हैं, जो हर दिवाली के साथ गहराते जा रहे हैं.
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‘बच्चे की परवरिश करना पूरे गांव का दायित्व है.’- अफ्रीकी कहावत.
दीये जलाए जलाते हैं, जिससे अंधेरा दूर रहे! लेकिन कितने दूर, कहां तक. दीये के बुझते ही अंधेरा हमें फिर घेर ले, तो उसका प्रबंध कहां! बच्चों की परवरिश में उनके साथ होने वाली हिंसा, उन पर थोपी जाने वाली जिद, जिंदगी के कुछ ऐसे अंधेरे हैं, जो हर दिवाली के साथ गहराते जा रहे हैं.
यह सब हमारे साथ तब हो रहा है, जब हम आधुनिक होने के नए अर्थ गढ़ने का दावा किए जा रहे हैं. हम खुद को सभ्य, मानवीय, आधुनिक साबित करने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते. हम चाहते हैं जो कुछ हम कर रहे हैं, दुनिया की न केवल उस पर नजर रहे, बल्कि हमें इस रूप में स्वीकार भी किया जाए कि हम कुछ खास हैं.
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ऐसा दीया, जिससे केवल कमरे का अंधेरा दूर होता है, बहुत उपयोगी नहीं है. हमें तो उस दीये की तलाश है, जिसका प्रकाश आत्मा तक पहुंच रखता हो. जिसमें मन के तार को छूकर उसे स्नेह, प्रेम से संवारने की अदा हो.
हमारे सुपरिचित मित्र के यहां बच्चों पर हाथ उठाना एक सामान्य बात है. एक दिन मुझसे नहीं रहा गया. तो टोका. उन्होंने कुछ रूखेपन के साथ कहा, बच्चों की पिटाई आशीर्वाद सरीखी होती है. हम भी खूब पिटे! इसमें ऐसा कोई दोष नजर नहीं आता, बल्कि इससे अनुशासन बनाए रखने, अपनी बात का पालन कराने में आसानी ही रहती है. इसलिए बच्चों की पिटाई में कोई ऐसी बात नहीं, जिस पर विचार किया जाए!
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वह मित्र अकेले नहीं हैं. ऐसे मित्र संख्या में कहीं ज्यादा हैं. जो बच्चों पर अपना अतीत, अपनी परवरिश दोहराने को बड़े ही गर्व से देखते हैं. जबकि यह तो एकदम अनुचित है. अरे! आपके जमाने में समोसा था तो आप वही खाएंगे, लेकिन अबके बच्चे चिप्स, मैगी खाएं, तो आप कहें कि समोसा ही सर्वोत्तम है, तो यह बात कैसे आसानी से हजम होगी!
एक मित्र की प्रोफेसर मां उनके घर पर मिलीं. उनका मानना है कि बच्चों के साथ जितना संभव हो, कठोरता से पेश आएं. इससे अनुशासन बना रहता है. उन्होंने गर्व से बताया कि तीन बेटे, एक बेटी हैं, सबका करियर शानदार है. मैंने धीरे से कहा, ‘मजे हैं, आपके तब तो छुट्टियों में कहां जाना है, इस बात को लेकर मुश्किल आती होगी!’ इतना सुनते ही वह उदास हो गईं. उनकी बेटी जो हमारी मित्र हैं, उन्होंने बात बदली.
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बाद में, हमें बताया गया कि उनकी मां की अपने बेटे, बहू से एकदम नहीं बनती. मां चाहती हैं कि बेटे अपने बच्चों को वैसे ही पालें जैसे उन्होंने पाला था. इसलिए, बेटों के घर जाते ही तनाव बढ़ जाता है! दूसरा, उनकी परवरिश के नजरिए को परिवार में कम मान्यता मिलती है, इसलिए उनका वहां दिल नहीं लगता.
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भारत में परेशानी यह रही है कि यहां परिवार में बच्चों पर हिंसा को एकदम सामान्य रूप में लिया जाता है. हम इस बात की कल्पना भी नहीं करते कि कैसे हिंसा हमारे स्वभाव, आत्मा को दूषित, आक्रोशित, छलनी करने का काम करती है. हिंसा, कठोरता से बच्चे के मन में उदारता, स्नेह, आत्मीयता की कोपल कई बार खिलने से पहले ही दम तोड़ देती है.
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इसलिए, दीपावली की शुभकामना के साथ बस इतना अनुरोध कि इस दिवाली बाहरी शोर की जगह अंतर्मन की सुनें. बच्चों की परवरिश, उन्हें संस्कार देना जरूरी है, लेकिन यह काम उनके मन की कोमलता, सुंदरता, उदारता की कीमत पर नहीं होना चाहिए, ये सबसे अनमोल गुण हैं. इनका ही सबसे अधिक संरक्षण किया जाना चाहिए.
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