डियर जिंदगी - परीक्षा-2 : प्रेम ही सबकुछ नहीं, जो कुछ है केवल प्रेम है...
हम कब इस बात को समझेंगे कि बच्चों का परीक्षा में टॉप करना, बहुत अच्छे नंबर लाना उनके शानदार भविष्य की इकलौती झलक नहीं है.
स्कूल के गेट पर मां काफी देर से इंतजार कर रहीं थी. जैसे ही बेटी बाहर निकली. उन्होंने सवालों की तोप उसकी ओर मोड़ दी. पेपर कैसा गया. तुमने सारे सवाल किए हैं, ना. बेटी के मुंह से एक ही शब्द निकला, बुखार. मां ने घबराहट से देखा, बिटिया का मुंह सूख रहा था. उन्होंने उसे तुरंत कार में बैठने को कहा. उसे डॉक्टर को दिखाया गया. डॉक्टर ने बताया, 'वह बेहद घबरा गई है. ठीक से सोई नहीं और अत्यधिक चिंता में है.' ऐसा इसलिए था क्योंकि वह अपने स्कूल की टॉपर है. एक साल टॉप करने की सज़ा यही होती है कि हर साल टॉप करना होता है. यह अघोषित नियम बन गया है. इससे बचना असंभव है.
आप में से जो भी इसे पढ़ रहे हैं, क्या वह भी स्कूल के बाहर अपने बच्चे का ऐसे ही स्वागत करते हैं. क्या सचमुच परीक्षा इतनी जरूरी चीज़ है. अगर हां तो आपको बच्चे को नहीं, खुद को डॉक्टर के पास ले जाने की जरूरत है. और नहीं तो फिर इतनी हाय, तौबा मचाने की क्या जरूरत है.
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हम कब इस बात को समझेंगे कि बच्चों का परीक्षा में टॉप करना, बहुत अच्छे नंबर लाना उनके शानदार भविष्य की इकलौती झलक नहीं है. अगर कोई बच्चा आज परीक्षा में बहुत अच्छा कर रहा है तो इसका यह अर्थ नहीं कि उसकी समझ दूसरों से बेहतर है.
जिस तरह की हमारी परीक्षा प्रणाली है, उसमें दूसरे से अधिक नंबर लाना सबसे बड़ी योग्यता है. जबकि यह चीजों को एक समय पर याद रखने और जस का तस बयां कर देने की योग्यता से अधिक कुछ नहीं है. इसलिए इसे बच्चे की योग्यता से जोड़ना मनुष्यता से अपराध है.
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अप्रैल में 'डियर जिंदगी' के सफर का एक बरस पूरा होने वाला है. इस दौरान मैं बड़ी संख्या में बच्चों, अभिभावकों, शिक्षाविदों और विशेषज्ञों के संपर्क में आया. सबसे मिलकर कुछ सीखने, संवाद की कोशिश की.
इस कोशिश में यही समझ में आया कि जिंदगी की तस्वीर कुछ बरसों के रटे-रटाए प्रदर्शन के आधार पर तय नहीं होती. कुछ बच्चे जिसमें चीज़ों को याद रखने, समझने और बहुत हद तक रटने की क्षमता दूसरों से बेहतर होती है, वह दूसरे बच्चों से अच्छे नंबर हासिल कर लेते हैं.
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नंबर के अर्थ में वह दूसरे बच्चों से आगे जरूर दिखते हैं, लेकिन वह असल में आगे होते नहीं. वह जिंदगी की दौड़ में शुरुआत जरूर तेजी से करते हैं लेकिन अच्छी तरह करते हैं, यह नहीं कहा जा सकता. क्योंकि आप दुनिया के किसी भी देश के महानतम नायकों की सूची तैयार कीजिए, उसमें मुश्किल से दस प्रतिशत ही वह होंगे, जिनका नाम कभी स्कूल में 'उजले' अंकों के लिए लिया जाता रहा होगा.
इस बात की पुष्टि आप चाहें तो नोबेल पुस्कार विजेताओं की जीवनी को पढ़कर कर सकते हैं. जहां आप देखेंगे कि अधिकांश विजेता अपने-अपने स्कूल में असफल थे. स्कूल में वह क्षमता, प्रतिभा नहीं थी कि वह उनके कौशल और समय से आगे देखने की योग्यता को समझ पाते. बच्चे इसलिए असफल होते हैं, क्योंकि स्कूल उन पर अपनी अधकचरी सफलता का लोगो चस्पा करने में अपनी सारी क्षमता झोंक देते हैं.
इसलिए बच्चे को स्कूल और समाज की सफलता के भरोसे मत छोडि़ए. बच्चा आपका है, आपके लिए नहीं है. इस बात को हमेशा ध्यान रखिए.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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