वहां जहां प्रेम के ही घर हैं. सहअस्तित्‍व से बड़ा जहां दूसरा कोई धर्म नहीं. जहां कहे हुए पर कायम रहने को सबसे बड़ा गुण माना जाए, जिसके आंगन स्‍नेह और मनुष्‍यता के पौधों की खुशबू से महक रहे हों. जहां लालच, हवस और जरूरतों में अंतर आसानी से समझ आ जाता है. वहां लौट चलिए. जैसे संगीत भाषा से परे होता है. उसका समझ में आना जरूरी नहीं, बस मन को भा जाए. वैसे ही प्रकृति की अपनी भाषा और व्‍याकरण है. बस हमें उसे पकड़ना आना चाहिए. जीवन भी कुछ ऐसा ही है. उसके नियम बड़े सीधे-सरल होते हैं, जब तक हम खुद उनको उलट-पलट न दें. उन नियमों के साथ कभी न रहें, जिन पर आपको भरोसा नहीं. कुछ पाने के लिए बहुत कुछ खोना पड़ता है, यही सही है लेकिन कभी-कभी जल्‍दी से सब पा लेने की चाहत में वह सब भी छूट जाता है, जो बरसों की मेहनत से हासिल किया जाता है.


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बीते चार दिनों में क्रिकेट की दुनिया के दो सबसे चमकदार सितारे लगभग अस्‍त होने की कगार पर पहुंच गए हैं. स्‍टीव स्मिथ और डेविड वार्नर को अब मैदान में लौटने के लिए एक बरस का इंतजार करना होगा. सवाल यह नहीं कि उन्होंने क्‍या किया, बल्कि उससे कहीं अधिक बड़ा प्रश्‍न यह है कि उन्होंने जीतने के लालच को उस शिक्षा पर हावी होने दिया जो खेल की मूल भावना है. खेल की मूल भावना जीतना नहीं खेलना है.


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जो इसे भूल जाते हैं वह स्मिथ और वार्नर बन जाते हैं. वह खेलने के लिए नहीं, बल्कि किसी भी कीमत पर जीतने के लिए खेलने लगते हैं. डियर जिंदगी के बुधवार के अंक में हमने जीतने पर विस्‍तार से बात की थी. ऐसे 'जीतने' का कोई अर्थ नहीं पर हमें पाठकों से अनेक टिप्‍पणियां मिली हैं, जिनमें यह भी कहा गया है कि अब समय बदल गया है, जीतना समय की जरूरत है. कुछ पाठकों ने तो विनम्रता से ही सही, लेकिन लिखा कि अब इन बातों का महत्‍व नहीं रह गया. अब खेल को जीतने वाले ही सिकंदर कहलाते हैं, चाहे जैसे भी हो.


मैं विनम्रता के साथ कहना चाहता हूं कि स्‍टीव स्मिथ और डेवि‍ड वार्नर भी एकदम ऐसा ही सोचते थे. आज से नहीं दोनों की यह चिंतन प्रक्रिया करीब 32 महीने पहले तब से शुरू हो गई थी, जब अचानक से माइकल क्‍लार्क जैसे बेहद शांत, सौम्‍य स्‍वभाव के धनी कप्‍तान की जगह स्‍टीव को कमान सौंप दी गई थी. उस समय डेविड वार्नर खुद भी दावेदार थे, लेकिन उनको डिप्‍टी के पद से ही संतोष करना पड़ा. उसके बाद अनेक मौकों पर दोनों के रवैए पर सवाल उठते रहे, लेकिन सफलता इस पर पर्दा डालती रही. दुनियाभर के क्रिकेट और दूसरे खेलों के प्रबंधक वही गलती कर रहे हैं जो क्रिकेट ऑस्‍ट्रेलिया इन दोनों की कामयाबी की धुन पर नाचते हुए कर रहा था. हमें शुक्रगुजार होना चाहिए उनके प्रधानमंत्री का, जिन्होंने खेल की गरिमा और देश की समझ का सही आदर्श पेश करने का फैसला करते हुए कड़ा निर्णय लेने का दबाव बनाया.


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अब जबकि क्रिकेट की दुनिया के दो बड़े दिग्‍गज मैदान से बाहर हैं. उनके चाहने वाले, समर्थक और उन सभी के लिए जो खेल से अपने आदर्श चुनते हैं, यह सोचने का सही समय है कि जिंदगी के प्रति हमारा रवैया कैसा होना चाहिए. हम क्‍या बनना चाहते हैं, उससे भी अधिक जरूरी यह है कि कैसे बनना चाहते हैं. जिस नैतिक शिक्षा को कुछ बरसों में हमने भुला दिया है, उसकी सबसे ज्‍यादा जरूरत हमें पड़ने वाली है, क्‍योंकि इस शिक्षा को बिसराने के ऐसे घातक परिणाम सामने आ रहे हैं, जिनकी हमने कल्‍पना भी नहीं की थी.


रिश्‍तों में भरोसे की कमी. आधुनिकता और सफलता के नाम पर एक-दूसरे को धोखा, झूठ, फरेब और किसी भी कीमत पर जीतने की चाहत हमारी सबसे बड़ी दुश्‍मन साबित होने जा रही है. इसलिए दूसरों से जो भी कहें, उनके लिए जो भी करें. बस, थोड़ा ठहरकर यह सोच लें कि कहीं यह आप पर ही तो लागू नहीं होने जा रहा है.


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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)


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