डियर जिंदगी: कामयाबी के जंगल में प्रसन्नता का रास्ता...
हर कोई अपने करियर में आगे बढ़ने की चाहत रखता है, तो इसमें कुछ भी गलत नहीं. लेकिन इसकी सबसे बड़ी बाधा इस चाहत का एकतरफा होना है.
ख्वाहिशों की आरजू के लिए भटकता मन कहां जाकर थमेगा. इस बारे में कहना बड़ा मुश्किल है. यह कुछ-कुछ वैसा ही है, जैसे समंदर में मछलियां गिनना. कुछ वैसा जैसे आसमां में तारे गिनना. लेकिन चीजों को कहीं तो थामना जरूरी है. बिना थामे तो कुछ होने वाला नहीं. सिवाए भटकने के. रास्ता भूलने में कोई बुराई नहीं है. जो सफर पर निकला है, उसे तो मुश्किलों का सामना करना ही होगा. परेशानी केवल रास्ता से भटकने में है. इस समय समाज पर सबसे अधिक संकट तनाव, डिप्रेशन और आत्महत्या का है.
यह संकट कहीं दूर देश से नहीं, बल्कि अपने ही मन, इच्छा और संघर्ष क्षमता की कमी से उपजा है. जिंदगी के प्रति एक किस्म के नकली अनमनेमन से पनपा है. वहां से उपजा है, जहां अलग-अलग कारणों से संघर्ष की चाह नहीं है. छोटी-छोटी बातों पर मन को हारने की छूट है. यहां जीवन में कुछ हासिल करने का ख्वाब तो है, लेकिन उस सपने के लिए स्वयं को तराशने के कष्ट से गुजरने की तैयारी नहीं है. हर व्यक्ति को अपने हिस्से की यात्रा से गुजरना ही होता है. बिना उस यात्रा के गुजरे हमारा संघर्ष अधूरा है. हर कोई अपने करियर में आगे बढ़ने की चाहत रखता है, तो इसमें कुछ भी गलत नहीं. लेकिन इसकी सबसे बड़ी बाधा इस चाहत का एकतरफा होना है.
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'डियर जिंदगी' को अमूल्या पाठक ने लिखा कि वह, उनके पति दोनों एमबीए थे. परंपरागत शैली से उनका विवाह हुआ. बहू की खोज में निकले ससुर, सास को एक कामकाजी लड़की की ही तलाश थी. जिससे उनका इकलौता बेटा पुणे जैसे शहर में आसानी से महंगाई का मुकाबला कर सके. उससे लड़ सके. अमूल्या का परिवार भी सुशिक्षित बेटी के लिए ऐसे परिवार की ही तलाश में था. विवाह हो गया.
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तीन साल सब ठीक चला. लेकिन उनके बेटे के जन्म के बाद धीरे-धीरे सबकुछ बदलने लगा. पति का प्रमोशन हो गया, उनकी आय वहां पहुंच गई, जहां से सारे खर्चे पूरे हो सकते थे. अमूल्या भी उसी गति से आगे बढ़ रहीं थीं लेकिन इसी बीच बच्चे के कारण उन्हें एक बरस का ब्रेक लेना पड़ा. जिससे करियर की गति धीमी हो गई. बेटे के जन्म के बाद उन्हें नए सिरे से शुरुआत करने की जरूरत थी.
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लेकिन अमूल्या के पति, सास और लड़कियों के लिए शिक्षा का काम करने वाले ससुर को भी लगा कि अब उसे नौकरी की जगह परिवार को समय देना चाहिए. क्योंकि अमूल्या को अब जितने पैकेज की नौकरी मिलेगी, उसकी परिवार को जरूरत नहीं. यह केवल अमूल्या का संकट नहीं है, यह हमारे समाज की दुविधा है. हम सुविधा के हिसाब से सोचते हैं, मनुष्य की चाहत के हिसाब से नहीं. उसके अपने सपनों के अनुसार नहीं.
अमूल्या के फिर नौकरी करने के सवाल पर पति महोदय एकदम सख्त हो गए हैं. उनने साफ कहा कि परिवार और नौकरी में से एक को चुनना होगा. अमूल्या ने उन्हें समझाने की कोशिश यह कहते हुए की, 'तुम आगे इसलिए बढ़े, क्योंकि मैंने ब्रेक लिया था. तब तो यही तय हुआ था कि मैं वापस काम शुरू करूंगी. क्योंकि यह नौकरी तो तुम्हारे अकेले की है. मेरी नौकरी और सपना तो रुका रह गया. उसका क्या. जब मैं परिवार और करियर दोनों एक साथ संभाल सकती हूं तो समस्या क्या है.'
अमूल्या के पति के अपने तर्क हैं. वह कह रहे हैं, 'वजह जो भी रही हो, लेकिन अब एक नौकरी से हमारा खर्च पूरा हो रहा है, तो दूसरे की जरूरत क्यों. उसकी कीमत परिवार क्यों चुकाए. माता-पिता की सेवा करना और बच्चे को पालना भी उतना ही जरूरी काम है. तुम्हें मेरे सपने को 'हमारा' सपना बनाना होगा.'
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कुछ ऐसे ही सवालों से देश में लाखों युवा दंपति जूझ रहे हैं. उनकी उलझनें बढ़ती जा रही हैं. कहीं मनचाहा त्याग है तो कहीं जबरन थोपे गए निर्णय. थोपे गए निर्णय थोड़े समय की शांति अपने साथ जरूर लेकर आते हैं, लेकिन वह जीवन में कहीं गहरे तनाव, डिप्रेशन का कारण बनते हैं. इसलिए, यह बहुत जरूरी है, निर्णय एक-दूसरे की इच्छा, चाहत का आदर करते हुए लिए जाएं. यह जिंदगी में एक दूजे के साथ को स्नेहिल, आत्मीय बनाए रखने का इकलौता रास्ता है. जिंदगी 'मैं' की थ्योरी से नहीं हम के नियम से चलती है. यह बात जितनी दंपतियों पर लागू होती है, उतनी ही परिवार, मित्रता और प्रेम पर भी.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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