डियर जिंदगी : अच्‍छे नंबर नहीं लाए तो देख लेना!
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डियर जिंदगी : अच्‍छे नंबर नहीं लाए तो देख लेना!

हम बच्‍चों के विकास की चिंता में इस कदर 'डूबे' हैं कि उसके ही तनाव के समंदर में डूबने से बचाने की पुकार नहीं सुन पा रहे हैं.

डियर जिंदगी : अच्‍छे नंबर नहीं लाए तो देख लेना!

आप इसके शीर्षक से थोड़ा परेशान हो सकते हैं. कुछ अजीब बात लग सकती है, इसलिए थोड़ी सजगता की जरूरत है. दिल्‍ली में एक तेरह बरस के बच्‍चे के खुद को गोली मार लेने की खबर है. उसकी स्थिति बेहद गंभीर है. उसने पुलिस को दिए बयान में कहा, 'पापा ने कहा, अगर अच्‍छे नंबर नहीं आए तो देख लेना.'

बच्‍चे के बयान का एक ही अर्थ है, उसने पिता की बात को अत्‍यधिक गंभीरता से ले लिया. शायद पिता ने भी यह बात इतनी गंभीरता से नहीं कही होगी. इस समय जो भी पिता हैं, उनमें से अधिकांश ऐसी प्‍यार के गहरे संदेश वाली, लेकिन भौतिक रूप से डराने वाली धमकियों के बीच पले-बढ़े हैं. लेकिन इतना गंभीर कदम किसी को उठाते पहले देखा नहीं जाता था.

अब समस्‍या यह है कि वह सभी तो अभी नए-नए पिता हैं. उन बच्‍चों के पिता हैं, जो किशोर हो रहे हैं. उस ओर बढ़ रहे हैं, उनसे ऐसे ही व्‍यवहार कर रहे हैं जैसे उनके पिता ने उनसे व्‍यवहार किया था. हम भूल रहे हैं कि इस बीच बहुत कुछ बदल गया. समाज की संरचना बदल गई. सामाजिक व्‍यवहार बदल गया. संयुक्‍त परिवार से एकल परिवार हो गए. हरे-भरे परिवार की जगह माचिस की तीलियों जैसे मकानों में बच्‍चे अपने माता-पिता के साथ रहने लगे. ऐसे बच्‍चे की तुलना इस समय माता-पिता अपने उस बचपन से कर रहे हैं, जो डांट-फटकार के साथ प्‍यार-दुलार की छांव में बड़ा हुआ था. यह तुलना इतनी बेतुकी है कि अभिभावक 'हमने तो ऐसा किया था, वैसा किया था' में ही फूले रहते हैं. वह इस सपने से निकल ही नहीं पा रहे हैं, दुनिया बदल चुकी है.

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बड़ों से 'जनरेशन गैप' की शिकायत करते-करते युवा जब माता-पिता बने तो सबसे पहले अपने बच्‍चों के साथ 'वही' करने लगे, जिसकी वह शिकायत करते रहे हैं. बच्‍चों पर यह आदत सबसे अधिक भारी पड़ रही है.

यह बच्‍चा जिसने पिता के देख लेने की बात को इतने दिल से लगा लिया, वह अकेला नहीं है, बड़ी संख्‍या में बच्‍चे इसी तरह के खतरों से घि‍र रहे हैं. असल में वह अपेक्षा और तुलना के चक्रव्‍यूह में फंसे हुए हैं. जहां से उनका निकल पाना बेहद मुश्किल होता जा रहा है.

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हम बच्‍चों के विकास की चिंता में इस कदर 'डूबे' हैं कि उसके ही तनाव के समंदर में डूबने से बचाने की पुकार नहीं सुन पा रहे हैं. ऐसे में बच्‍चे उस ओर जा रहे हैं, जिधर से आगे कोई रास्‍ता नहीं जाता. छोटे-छोटे बच्‍चों को हम न जाने क्‍या -क्‍या कह रहे हैं. उनसे कैसी-कैसी बातें कर रहे हैं. ऐसी अपेक्षा की परीक्षा तो हमसे भी हमारे बड़ों ने नहीं की थी.

इसलिए मेरा निवेदन है कि बच्‍चों को धमकाना छोड़िए. उनसे कुछ करना है तो बस प्‍यार कीजिए. अगर वह भी न हो सके, तो कम से कम वैसा व्‍यवहार मत कीजिए, जो आपको अपने लिए कभी पसंद नहीं था.

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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