अतीत में जीने के सबसे सरल उदाहरण में से एक है, माता-पिता को 'अतीत वाले चश्‍मे' से बच्‍चे की परवरिश करते देखना. अभिभावक बच्‍चों को स्‍कूल में पढ़ाने, परीक्षा और जीवन के लिए तैयार करते समय हमेशा अतीत में डूबते-उतराते रहते हैं. वह अपने अतीत के साथ लुकाछिपी के खेल में व्‍यस्‍त रहते हैं. बच्‍चा अगर गलती से भी किसी नई राह की ओर निकल पड़े तो उसके कान पकड़ फौरन अपनी राह पर ले आते हैं.


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हम अतीत से ऐसे चिपके रहते हैं, मानो जीवन का आधार वही है. जबकि अतीत असल में दूसरे मौसम का ओढ़ा हुआ लबादा है, जो नया मौसम आते ही बेइमानी हो जाता है. क्‍या हम गर्मियों में स्‍वेटर पहनते हैं, नहीं ना. फिर हम खुद को यादों से क्‍यों लादे फिरते हैं. ऐसी यादें, जो दशकों, बरसों पुरानी हैं, जिन्‍हें आसानी से हमारे दिल-दिमाग से मिट जाना चाहिए, उनको हम बलपूर्वक पकड़े बैठे रहते हैं.


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यादों से चिपके रहना सरल नहीं है. स्‍वाभाविक भी नहीं. क्‍योंकि यह मनुष्‍य के स्‍वभाव का हिस्‍सा नहीं है. बच्‍चा कितनी आसानी से स्मृतियों से बाहर आ जाता है. उसके लिए कितना आसान है, भूलते जाना. भूल जाना. लेकिन जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, हम भूलने की जगह याद करना शुरू कर देते हैं.


हम जीवन के सबक को जिंदगी के मकान में उल्‍टा लटका देते हैं. भूलना सरल नहीं है, बेहद मुश्किल है. पागलखाना कुछ और नहीं असल में ऐसे ही लोगों की जगह है, जो दिमाग से चीजों को हटा नहीं पाते. घर में साल में एक बार पूरे घर की सफाई का नियम यूं ही नहीं है, असल में वह है ही इसलिए ताकि घर से गैरजरूरी चीजों को हटा दिया जाए. जिससे जरूरी चीजों के लिए जगह बन सके. जो है, वह और अधिक बेहतर तरीके से घर में रखा रह सके. इसलिए, हम घर की सफाई पर इतना जोर देते हैं.


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दूसरी ओर जीवन जो घर से कहीं अधिक कीमती है. उसमें कितनी जगह है, कैसे जगह बनाई जाए. कैसे ताज़ा हवा को जिंदा रखा जाए, इसका हिसाब रखने का कहीं क्या कोई कल्‍चर विकसित है. इसीलिए वर्तमान पर हमेशा अतीत का ग्रहण लगा रहता है. हमारे आसपास जो थोड़े से सुखी लोग नजर आते हैं, असल में वह बस अतीत के ग्रहण से खुद को मुक्‍त रख पाए हैं.


बच्‍चे पर अतीत थोपने का कोई अर्थ नहीं. ओशो ने ऐसे लोगों के लिए मजेदार बात कही है. वह लिखते हैं कि अतीत में जीने का मतलब असल में पुराने नोट चलाने जैसा है. ऐसे नोट जो चलन में हैं ही नहीं.


हम बच्‍चों पर 'अपने' दिनों की कथित बातें, सबक और संघर्ष थोपने की कोशिश में भूल जाते हैं कि नदी में काफी पानी बह चुका है. यहां तक कि अब तो वह नदी भी नहीं रही. जिसके पानी का बार-बार हवाला दिया जाता है.


परीक्षा के दिनों में बच्‍चों पर अत्‍यधिक दबाव डालने, उनकी मदद करने की जगह उन्‍हें नंबरों के चक्रव्‍यूह में उलझाने वाले माता-पिता के लिए असल में वह आशा का चंद्रयान हैं. जिनमें उन्‍हें अपने सुनहरे भविष्‍य का अंतरिक्ष दिखाई देता है. यह किस्‍म की मृगतृष्‍णा है.


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हर मनुष्‍य एक-दूसरे से जितना स्‍वतंत्र है, उतने ही स्‍वतंत्र उसके सपने भी होने चाहिए. लेकिन बच्‍चों को पढ़ाते हुए, खासकर परीक्षा के दिनों में हम लालची हो जाते हैं. बच्‍चों में हमें अपने सुख का सागर दिखने लगता है. तो हम असल में उनके भविष्‍य के लिए उन पर दबाव नहीं बना रहे होते हैं, बल्कि अपने भविष्‍य की स्क्रिप्ट लिखने के लिए उन पर दबाव डाल रहे होते हैं.


इस दबाव का ही असर है महानगर तो दूर अब भोपाल, जयपुर, लखनऊ और रीवा जैसे शहरो में भी बच्‍चे परीक्षा देने और रिजल्‍ट आने के बीच आत्‍महत्‍या की ओर बढ़ रहे हैं. कौन है, जो उन्‍हें डरा रहा है. कौन है, जो उन पर अपने अतीत की छाया का ग्रहण लगा रहा है.


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मेरा सभी अभिभावकों से अनुरोध है कि अगर आपमें जरा भी आस्‍था है, विश्‍वास है. नियति और प्रकृति में. तो कृपया बच्‍चों के गले पर अपेक्षा का दबाव मत डालिए. उन्‍हें अपनी जिंदगी के रास्‍ते पर खुद चलने दीजिए... वह आपके बच्‍चे जरूर हैं, लेकिन आपके लिए नहीं हैं.


जिंदगी नकद है. इसमें जो भी है, अभी इसी पल है. यहां, उधारी का कोई सिद्धांत नहीं. इसलिए जिंदगी को अतीत और भविष्‍य से मुक्‍त रखिए, बस वर्तमान में रहिए. बच्‍चों के साथ अपना जीवन भी संवारिए.


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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)


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