डियर जिंदगी: `न` कहने की आदत
प्रतिस्पर्धा और एक-दूसरे से आगे निकनले की होड़ में हम भीतर से इस तरह टूटते जा रहे हैं कि न कहने के लिए जिस प्रतिरोध के साहस की जरूरत होती है, हमारे अंदर उसका होना तो दूर विचार तक नहीं होता.
हमें बचपन से हां कहना सिखाया गया है. हम इतने अधिक ट्रेंड हैं कि कई बार बिना सुने ही हां कह देते हैं. स्कूल में हां, घर में हां. नौकरी में हां. रिश्तों में हां. हर जगह हम हां में डूबे हुए लोग हैं. हां से सहमे हुए लोग. हम जैसे हैं, वैसे ही रहने के लिए हां कहने वाले लोग. कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि हम 'न' कहना जानते ही नहीं. हमें आता ही नहीं. जबकि यह जिंदगी के सबसे जरूरी गुणों में से एक है.
हमारी जिंदगी को आसान, सहज और सुदंर बनाने में 'हां' से अधिक अधिक 'न' की भूमिका है. हां में चुनने का भाव नहीं है, उसमें तो स्वीकार की भावना है. जबकि असल में चुनने की आजादी तो 'न' में है. इसीलिए 'हां' से कहीं अधिक 'न' का महत्व है.
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इस बात को सरलता से समझने के लिए अपने नायकों के निर्णय को देखिए. जिन्होंने न कहने का साहस दिखाया, वही जिंदगी को मंजिल की तलाश की ओर धकेल सके. राजा राममोहन राय ने स्त्रियों को जिंदा जलाए जाने को न कहा. इस न के साथ उन्होंने संघर्ष का रास्ता चुना. इस चुनाव ने भारत में महिला सशक्तिकरण की दिशा में सबसे बड़ी भूमिका निभाई. इतनी ही बड़ी भूमिका ईश्वरचंद विद्यासागर और भीमराव आंबेडकर जैसे नायकों की थी, जिन्होंने उस समय प्रचलित सभी कथित रिवाजों, प्रथाओं को न कहने का हौसला दिखाया.
असल में अगर आपको किसी को समझना है, तो सबसे जरूरी काम बस इतना है कि हम यह जान लें कि उसने कितनी बार न कहा है. किसी का भी महत्व स्वीकार करने के मुकाबले अस्वीकार में अधिक टिका होता है. क्योंकि ऐसा करने के लिए उसके भीतर गहरा साहस होना चाहिए. उसके भीतर विरोध सहने की क्षमता के साथ यह भाव भी होना जरूरी है कि जो कुछ चला आ रहा है, वही सही नहीं है.
जिंदगी नदी की धारा में बहने वालों का इतिहास नहीं लिखती, वह तो केवल उनका हिसाब रखती है, जो हस्तक्षेप करते हैं. जो हस्तक्षेप करते हैं, वही नायक हैं. उनके भीतर ही समय के साथ संघर्ष का लोहा होता है. इसलिए न कहने की आदत का विकास बेहद जरूरी मानवीय गुण है.
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प्रतिस्पर्धा और एक-दूसरे से आगे निकनले की होड़ में हम भीतर से इस तरह टूटते जा रहे हैं कि न कहने के लिए जिस प्रतिरोध के साहस की जरूरत होती है, हमारे अंदर उसका होना तो दूर विचार तक नहीं होता. यह विचारशून्यता हमें यथास्थिति में रहने की ओर धकेलती जाती है. हम वैसे होने से प्रेम करने लगते हैं, जैसे हैं. भले ही उसमें हम खुद से दूर होते चले जाएं, लेकिन उसे छोड़ना आसान नहीं होता. क्योंकि हम बचपन से हां कहने के दिमागी मकड़जाल में डूबे होते हैं.
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क्या कारण है कि बच्चे अपनी पसंद का विषय नहीं चुन पाते. अपनी रुचि का काम नहीं चुन पाते. और तो और अपनी पसंद से जीवनसाथी तक नहीं चुन पाते! क्यों, क्योंकि वह समाज, परिवार, पिता/ मां को न कहना चाहते. उसके बदले वह दुविधा को चुन लेते हैं. ऐसे दुख को ओढ़ लेते हैं, जो जिंदगीभर उनका पीछा करता है, लेकिन वह साहस का हाथ पकड़कर जिंदगी की धूप में निकलने की हिम्मत नहीं करते.
इसलिए, न कहने की आदत डालिए. इससे जिंदगी में जितनी प्रसन्नता, सुख और शक्ति मिलेगी, वह हजारों हां के ख्वाब से भी बाहर की बात होगी.
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