लंबे समय तक लिव-इन में रहने के बाद भी साथ छोड़ने का फैसला! शादी की पंद्रहवीं सालगिरह के बाद किसी रोज अचानक तलाक की गुजारिश! यह बताने को पर्याप्त हैं कि रिश्तों का कलेवर तेजी से बदल रहा है.
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हमारे देश में फिल्में जीवनशैली का बड़ा हिस्सा हैं. विशेषकर शहर, कस्बों में. गांव में यही काम कभी नाटक, नौटंकी करते थे. जो अब लगभग समाप्त होते जा रहे हैं. ऐसे में फिल्मों का असर बढ़ना ही था. बढ़ता ही रहा. आज हमारी फिल्मों में जैसी विविधता, नए रंग, विषय और वास्तविकता है, वह पिछले दो दशक गायब ही रही थी. एक के बाद एक फिल्में एक ही जैसे विषयों पर आती थीं. जिनमें प्रेम की जगह एक किस्म का 'उचक्कापन', नायक को उन तरीकों को अपनाते दिखाया जाता था, जिन पर आज केवल शर्म महसूस की जा सकती है.
आप सोच रहे होंगे कि इससे प्रेम का क्या संबंध है. हम यहां प्रेम पर बात करने निकले हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि भारतीय युवाओं में से पुरुषों, लड़कों पर ऐसी फिल्मों का भारी असर रहा है. खासकर छोटे शहरों, कस्बों से आने वालों पर. उन्होंने जीवन में स्त्री की भूमिका को बहुत हद तक वैसे ही समझा है, जैसे सिनेमा में दिखाया गया. जहां नायिका के पास भी बहुत सीमित मात्रा में अपनी बात कहने का अधिकार था. उसे तो बस नायक के साथ कदम से कदम मिलाते हुए चलना होता था. नायक-नायिका के बीच प्यार हो जाने के बाद से फिल्म दूसरी ओर चली जाती थी, प्रेम अक्सर ही समाप्त हो जाता था.
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मेरे अपने विचार में 'अकेले हम, अकेले तुम' इकलौती फिल्म थी, जिसमें शुरुआत में ही हीरो-हीरोइन ब्याह कर लेते हैं और उसके बाद फिल्म असली जिंदगी के विषयों (करियर, संघर्ष और तनाव) सेगुजरती है. संभवत: इसीलिए फिल्म को बहुत अधिक सफलता नहीं मिली, क्योंकि तब तक भारतीय दर्शकों को लीक से हटकर बने सिनेमा के स्वाद की आदत नहीं थी.
अब आते हैं, असल जिंदगी के 'अकेले हम और अकेले तुम' पर. किसी के अकेले होने में उतनी पीड़ा, अचरज नहीं, जितना तनाव दो साथ रहते हुए लोगों के 'अकेलेपन' में है. हम इन दिनों सबसे अधिक इसी संकट से गुजर रहे हैं. किसी के साथ चलते हुए का अकेलापन दूसरे किसी भी दुख की तुलना में सबसे अधिक दिल तोड़ने वाला होता है.
लंबे समय तक लिव-इन में रहने के बाद भी साथ छोड़ने का फैसला! शादी की पंद्रहवीं सालगिरह के बाद किसी रोज अचानक तलाक की गुजारिश! यह बताने को पर्याप्त हैं कि रिश्तों का कलेवर तेजी से बदल रहा है. असल में हम सब कहीं न कहीं खुद अपने से, अपने आसपास के रिश्तों और दुनिया से ऊबने (बोर) लगे हैं. यह ऊब रिश्तों, संवाद के स्वाद को कसैला कर रही है.
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रिश्तों को सबसे अधिक नुकसान भरोसे की कमी से पहुंचता है. कम होता भरोसा रिश्तों को वैसे ही तोड़ता है, जैसे कम होती ऑक्सीजन जिंदगी की धड़कनों पर भारी पड़ती है. भरोसे की कमी रिश्तों में मिठास को धीरे-धीरे कड़वाहट में बदल देती है. कई बार यह काम इतने आहिस्ता-आहिस्ता होता है कि इस दौर से गुजर रहे युगल/ दंपति को भी इसकी भनक नहीं लगती.
इसलिए, जितना संभव हो, जिंदगी में साफगोई बरतें. जीवन का हर लम्हा बेहद खूबसूरत और जिंदगी से भरा हुआ है. उसे आनंद, ऊर्जा से जीकर ही हम जिंदगी को मायने दे पाएंगे. टुकड़ों पर बंटा प्रेम, भरोसे की जड़ से उखड़े रिश्ते जिंदगी पर अमावस्या के ग्रहण जैसे हैं. विश्वास, स्नेह और थोड़ी सी समझदारी के उजाले से आसानी से हम इस स्याह रात से गुजर सकते हैं.
बशर्ते हम सच्चे दिल से ऐसा चाहें...
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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