डियर जिंदगी: कितने कृतज्ञ हैं हम...
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डियर जिंदगी: कितने कृतज्ञ हैं हम...

जिंदगी एक मेला है. जिसमें बहुरंग, विविधता के इतने आयाम हैं कि इंद्रधनुष की छटा उसके आगे फीकी पड़ जाए. हमें इन रंगों के साथ न केवल तालमेल सीखना है, बल्कि यह भी सीखना है कि हर रंग के साथ कैसे जीना है. जैसे इंद्रधनुष हमारी जिंदगी में हैं, वैसे सबकी जिंदगी में हैं.

डियर जिंदगी: कितने कृतज्ञ हैं हम...

हम आज जो भी हैं, वह किसके कारण हैं! इस सवाल का जवाब देते समय अब अधिकांश लोग अधिक वक्‍त नहीं लेते. फटाक से वह कहेंगे, 'मैं अपने ही कारण हूं.' क्‍या दूसरों की सफलता में योगदान रखने वालों की संख्‍या कम होती जा रही है! मेरे विचार में नहीं. एकदम नहीं. एक ही स्थिति में इसका उत्‍तर हां में हो सकता है जब आप दूसरों की मदद करना बंद कर दें. जैसे ही आप दूसरों के लिए खिड़की, दरवाजे बंद करने का काम शुरू करते हैं, प्रकृति भी आपकी राह में रोड़े अटकाने का काम आरंभ कर देती है.

कुछ नियम शाश्‍वत हैं. वह हमेशा से हैं. हमेशा के लिए हैं. उनसे बाहर कोई नहीं. प्रकृति अपने नियमों से उतनी ही बंधी है, जितने हम जीवन और मत्‍यु से बंधे हैं. कृतज्ञता का नियम भी कुछ ऐसा ही है. उदारता और विनम्रता का संसार ऐसे ही नियमों से बंधा हुआ है. हमारी दुविधा यह है कि हम दूसरों के प्रति न तो कृतज्ञ हैं और न ही हमारे भीतर उनके लिए उदारता है. हम बस यही चाहते हैं कि सब हमारे प्रति संवेदनशील, स्‍नेहिल रहें. लेकिन हम अपनी कठोरता नहीं छोड़ेंगे. 

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जबकि होना उल्‍टा चाहिए. मनुष्‍य को अपने प्रति कठोर और दूसरों के प्रति विनम्र, उदार होना चाहिए. किसी ने जीवन के किसी एक क्षण में आपकी सहायता की हो, तो आपको ऐसे अनेक क्षण का सृजन करना चाहिए. लेकिन हम इसके ठीक विपरीत चल रहे हैं. हम दूसरों की मदद को सहज मानते हैं. अपने किए को महान. हम भूल जाते हैं कि जिंदगी अगर/मगर का नाम नहीं है, जीवन एक ययार्थ का नाम है. जो है, वही है. जैसा है, तो है. जिंदगी किसी द्वीप में गुजारा गया वक्‍त नहीं है. जहां आप एकांत में, आशा के दीए के सहारे उम्र गुजारते हैं.

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जिंदगी एक मेला है. जिसमें बहुरंग, विविधता के इतने आयाम हैं कि इंद्रधनुष की छटा उसके आगे फीकी पड़ जाए. हमें इन रंगों के साथ न केवल तालमेल सीखना है, बल्कि यह भी सीखना है कि हर रंग के साथ कैसे जीना है. जैसे इंद्रधनुष हमारी जिंदगी में हैं, वैसे सबकी जिंदगी में हैं. सुख, दुख, खुशी, उदासी. प्रेम का होना, उसका छूटना. किसी का मिलना, उसका साथ छोड़ देना. इन रंगों की यही तो किस्‍में हैं. तरह-तरह की किस्‍में.

एक मजेदार उदाहरण अपने और दूसरे में अंतर का. आप देखेंगे कि घटना एक ही है. बस करने वाला कौन है. इससे सारा अंतर पड़ता है.

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कुछ दिन पहले दो मित्रों के साथ एक जैसी घटनाएं हुईं. एक के हाथ से घर की छत से मोबाइल फिसल गया. टुकड़े-टुकडे हो गया. नया फोन था. नुकसान हुआ. जाहिर है, पति-पत्‍नी में बहस हुई. पास ही रहने वाले दूसरे मित्र के बेटे से उनका फोन भी सीढ़ी उतरते समय गलती से गिर गया. इस फोन का हाल भी पहले वाले जैसा हुआ. लेकिन यहां बात बहस पर नहीं थमी. उस बच्‍चे को माता-पिता ने जमकर पीटा. उनका गुस्‍सा बच्‍चे पर जमकर बरसा.

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ऐसा क्‍यों बड़ा करे तो कोई बात नहीं. चलो गलती हो गई! किसी दूसरे, छोटे से हो जाए तो अपराध! ऐसे व्‍यवहार का कारण यही है कि हम चीजों को समग्रता से नहीं समझते. हम मूल विषय से कहीं अधिक उसके प्रति अब तक होते आए व्‍यवहार से प्र‍भावित होते हैं. बचपन से इस नजरिए के साथ रहने के कारण समूचे व्‍यक्‍तित्‍व में विनम्रता, कृतज्ञता की जगह 'तेरा-मेरा' का भाव समाहित हो जाता है. ऐसी सोच, नजरिया हमें दूसरों के प्रति सहनशील, संवेदनशील और कृतज्ञ  नहीं बनने देता. और इसकी कीमत हमें ताउम्र चुकानी पड़ती है.

जितना हम जिंदगी को जानते हैं, जिंदगी उससे कहीं अधिक अपने भीतर आश्‍चर्य लिए हुए है. वह हमें अक्‍सर उतना ही चकित करती है, जितना हम उससे स्‍नेह करते हैं. उसकी  भाषा समझते हैं. कृतज्ञता ऐसी ही एक भाषा का नाम है.

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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)

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