आपको याद है, आखिर बार आप कब दुखी हुए थे! आप सोच रहे होंगे कि यह भला क्‍या सवाल हुआ. लेकिेन क्‍या सचमुच यह सवाल नहीं है. यह हमारी चेतना, मनुष्‍यता को बंद गली में रोकने से जाने के लिए सबसे बड़ा सवाल है. हम दुख को बहुत दूर की चीज़ मान बैठे हैं. जबकि वह अपरिचित हो सकता है, लेकिन दूर का नहीं. रहता तो कहीं पड़ोस में ही है. बस, उसका घर आना-जाना कम था!   


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दुख एकदम नैसर्गिक बात है! हम दुनिया में रोते हुए ही तो आते हैं. डॉक्‍टर बताते हैं कि परेशानी तब है, जब बच्‍चा जन्‍म के समय न रोए. क्‍योंकि इससे उसके फेफड़ों तक ऑक्‍सीजन अच्‍छे से पहुंच जाती है. जो रुदन, आंसू उसके मन, मस्तिष्‍क के लिए इतने जरूरी होते हैं, वह अचानक कैसे उसके लिए अनुपयोगी हो जाते हैं.


डियर जिंदगी : मेरा होना सबका होना है!


असल में आंसू तो एक प्रकार की सफाई हैं. वह मन में जमे दुख के मैल को आसानी से डिटर्जेंट की तरह निकाल देते हैं. इसलिए आंसुओं से नहीं डरना है, बल्कि इसकी चिंता करनी हैं कि कहीं आंसू निकलने बंद ही न हो जाएं. क्‍योंकि वह हमें मनुष्‍य बने रहने के लिए जरूरी ऊर्जा, स्‍नेह और आत्‍मीयता देते रहते हैं.


समझने में आसानी हो इसलिए यहां हम दुख और आंसू को पर्यायवाची के रूप में ले रहे हैं. तो हम बात कर रहे थे कि दुख असल में रास्‍ता है, रुकने की जगह नहीं. लेकिन हम इस बात को जीवन में ठीक से उतारने, समझने में निरंतर कमजोर होते जा रहे हैं. हम जीवन को इतना छोटा मान बैठे हैं कि दुखों की स्मृति से इसे पार करने की जुगत में बैठे हुए हैं.


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हममें से अधिकांश ने रामायण की कथा पढ़ी-सुनी है. आज थोड़ी सी बात उसकी कर लेते हैं. यहां इसका उल्‍लेख केवल दुख के संदर्भ में है. इसलिए, उसे यहीं तक सीमित रखिएगा. जिनके पिता स्‍वयं दशरथ हों, उन्‍हें जीवन में कैसा दुख होना चाहिए. और जिनके पुत्र स्‍वयं राम हों, उनको कैसा दुख. जिसके पास भरत, लक्ष्‍मण जैसे भाई हों, उन्‍हें कैसी चिंता और जिनके पास राम जैसे बड़े भैया हों, उन्‍हें दुख! लेकिन हम सबने देखा है कि सभी के जीवन में दुख आया.


हां, यह जरूर हुआ कि इन्‍होंने दुख को रास्‍ते के रूप में स्‍वीकार किया, उसे रुकने की जगह नहीं बनाया. जरा सोचिए जिनके पुत्र ही स्‍वयं राम हैं, ऐसे राजा दशरथ को कष्‍ट क्‍यों होना चाहिए था. और जिनके पास राम, लक्ष्‍मण जैसे भाई हैं, ऐसे भरत क्‍यों भला चौदह बरस तक चिंतित रहे! इस अमर कथा पर करोड़ों पन्‍ने रंगे जा चुके हैं. एक से बढ़कर एक गहरी मीमांसा हैं. और मेरा यह विषय नहीं, मैं इसके योग्‍य भी नहीं.


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मैं तो केवल यह कहने की कोशिश कर रहा हूं कि जैसे सुख हैं. जैसे वह अनुभव हैं, जो मन को कोमलता,स्‍नेह से भर देते हैं, दुख भी ऐसा ही है. वह किसी दूर देश का निवासी, विदेशी मुल्‍क से आया परिंदा नहीं है, वह अपने पड़ोस का ही है. यूं ही मिलने-जुलने निकल आया है.
वह गुजर रहा था, तो हमसे भी मिलता गया! वह रास्‍ते में था. रुकने नहीं आया था.


दुख के प्रति समान,सहज दृष्टि हमें जीवन के उस तट पर ले जाने में उपयोगी है, जहां हम जाना चाहते हैं. जहां हमें जाना है. जीवन, एक ऐसी फिल्‍म की तरह है, जो बड़ी तो है, लेकिन अंतत: उसे भी खत्‍म होना है. इसलिए, हमारे हर भाव, अनुभव की जगह सीमित है.
किसी को भी अपना घर हमेशा के लिए किराए पर नहीं दिया जा सकता. दुख को तो कभी नहीं!


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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)


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