डियर जिंदगी: डर से कौन जीता है!
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डियर जिंदगी: डर से कौन जीता है!

डर एक ऐसी अंधेरी 'सुरंग' है, जिससे बाहर निकलने के दरवाजे पर बड़ी चट्टान रखी हुई है. जिसे बाहर से नहीं हटाया जा सकता, उसे केवल ‘भीतर’से हटाना संभव है.

डियर जिंदगी: डर से कौन जीता है!

डर और मनुष्‍य का संबंध समय की परिभाषा से बाहर है. ठीक-ठीक यह बता पाना असंभव है कि किस दिन डर और मनुष्‍य मिले होंगे. यह माना जाता है कि डर पहली बार अंधेरे के 'कपड़े' पहनकर मनुष्‍य के पास आया होगा.

कैसा रहा होगा, सूरज के बिना हमारे पुरखे का पहला दिन. वह पहली रात कैसी कटी होगी! जब उसे अपने ही स्‍पर्श के लिए संघर्ष करना पड़ा होगा. उसने सूरज के उगने का कितनी शिद्दत से इंतजार किया होगा.

जो भी हुआ होगा उस रात, कहना मुश्किल है. लेकिन वह रात और उसका भय हम पर आज तक भारी है. हम अंधेरे पर तो काफी हद तक जीत गए हैं, लेकिन डर तो जैसे हमारी आत्‍मा से चिपटा हुआ है. कैसी विचित्र दशा है, एक ऐसे देश में जिसे दर्शन, आस्‍था, विश्‍वास और ज्ञान का नगर कहा जाता है, वहां ‘अभय’ का भाव शून्‍य हो गया है.

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हम डरे हुए लोग एक ऐसी 'दुनिया' रचने में लग जाते हैंं, जो एक-दूसरे को डराने का काम और अधिक कुशलता से करने लगती है. दुनिया को डराने वाला अमेरिका दुनिया का सबसे अधिक डरा हुआ मुल्‍क है. जरा उनकी फि‍ल्‍में, नेताओं के बयान देखिए, डर का मायाजाल साफ दिखाई देगा.

ठीक ऐसे ही हमारे आसपास के डरे हुए लोग और अधिक डरे हुए लोग पैदा कर रहे हैं. हम सब मिलकर मन, विचार और कर्म से डर की ओर बढ़ रहे हैं. इसलिए, टीवी पर एक नारा बेहद लोकप्रिय हुआ, ‘डर के आगे जीत है.’ इसे बनाने वाले उस्‍ताद जानते थे कि डर हमारी चेतना में बसा हुआ प्रिय शब्‍द है.

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डर के आगे क्‍या है? कम से कम वैसी कोई चीज तो नहीं, जिसे टीवी के एक लोकप्रिय विज्ञापन में ‘जीत’ कहा जाता है. यह विज्ञापन काफी पुराना है. इसलिए भारत में बहुत से बच्‍चे, युवा जब बात करते हैं तो डर का जिक्र आते ही कहते हैं कि डर के आगे जीत है.

जबकि डर के आगे तो सिर्फ डर है. डर के आगे कुछ नहीं है. डर एक ऐसी अंधेरी 'सुरंग' है, जिससे बाहर निकलने के दरवाजे पर बड़ी चट्टान रखी हुई है. जिसे बाहर से नहीं हटाया जा सकता, उसे केवल ‘भीतर’से हटाना संभव है.

ठीक ऐसे ही डर से जीतने के लिए ‘भीतर’ का मजबूत होना जरूरी है. रास्‍ते अक्‍सर भीतर से तय होते हैं. मंजिल का सफर बाहरी शक्ति से नहीं अंदर की शक्ति से तय होता है.

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आपने जोंटी रोड्स का नाम तो सुना ही होगा. नब्‍बे के दशक में वह दुनिया के इकलौते क्रिकेटर थे, जो केवल फी‍ल्डिंग के दम पर मैच का नक्‍शा पलट देते थे. भारत से उनका संबंध ऐसे समझिए कि उनके नाम पर हमारे यहां बच्‍चों के नाम जोंटी रखे गए और बाद में जोंटी ने अपनी बेटी का नाम इंडिया रखा.

फील्‍डिंग के 'पितामह' जोंटी को मिर्गी के दौरे पड़ते थे. लेकिन हमेशा मैदान के बाहर. वह मैदान में क्रिकेट से इतने ‘अटैच’ रहते थे कि दूसरी किसी चीज का ख्‍याल दिमाग में आता ही नहीं था. शरीर के मन से संचालित होने की यह खूबसूरत मिसाल है.

इसके साथ ही यह डर से बाहर निकलने की कथा है. लेकिन इसकी तैयारी भीतर से हुई. ऐसे अभ्‍यास से हुई, जिसमें खतरा तो था कि अगर ऐसा हुआ तो क्‍या होगा. लेकिन जोंटी उस संभावना के साथ थे, जिसके साथ मनुष्‍य ने वह पहली रात गुजारी थी.

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हम असल में उस संभावना से भटके हुए समाज हैं. उस रात की विजय के बाद हम अंधेरे को मिटाने के काम में इतने व्‍यस्‍त हुए कि हमने अपने भीतर करोड़ों अंधेरे बिठा लिए. करुणा, प्रेम, दया, मैत्री और वात्‍सल्‍य के उजाले को हम अंधेरे से लड़ने में घर के बाहर ही छोड़ आए.

इस उजाले को आप दार्शनिक कहकर खारिज कर सकते हैं. इन्‍हें थ्‍योरी कहकर खिड़की से बाहर फेंक सकते हैं, लेकिन अंत में देखना इनकी ओर ही है.  
इसलिए अभय की ओर चलिए. जब जीवन सीमित है. सांसें गिनती की हैं. सारे साथ और साथी अनियमित हैं तो डर कैसा. हमारी यात्रा शुरू और समाप्‍त अकेले होती है, स्‍वतंत्र होती है. इसके बीच में जो डर है, खोने का, बिछुड़ने का, अंत का, वह असल में गुलामी है.

इसी गुलामी और डर के कारण एक से एक बड़े लोग आत्‍महत्‍या को चुन रहे हैं. किससे डरकर, किसके भय से उस जीवन को नष्‍ट कर रहे हैं, जो स्‍वतंत्रता का सबसे बड़ा रास्‍ता है.

आपको डर के आगे जाने की जरूरत नहीं. क्‍योंकि इससे उसका साथ नहीं छूटता. हमें डर से मुक्ति चाहिए, उससे आगे निकलने की दौड़ नहीं!

ईमेल : dayashankar.mishra@zeemedia.esselgroup.com 

पता : डियर जिंदगी (दयाशंकर मिश्र)

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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)

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