डियर जिंदगी : 'क्‍या गम है, जो मुझसे छुपा रहे हो…'
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डियर जिंदगी : 'क्‍या गम है, जो मुझसे छुपा रहे हो…'

एक-दूसरे से खुलकर दिल की बातें कहने का हुनर अभी हम नहीं सीख पाएं हैं. इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि हम खुलकर आसानी से अपने दिल का ‘हाल’ एक-दूसरे से बयां नहीं करते.

डियर जिंदगी : 'क्‍या गम है, जो मुझसे छुपा रहे हो…'

अपनी कहानी, गीतों के लिए मशहूर ‘अर्थ’ फिल्‍म का यह गीत भले ही अब न गुनगुनाया जाता हो, लेकिन इतना पक्‍का है कि अभी भी हम अपने गम, दुख, दर्द एक-दूसरे से छुपा ही रहे हैं. एक-दूसरे से खुलकर दिल की बातें कहने का हुनर अभी हम नहीं सीख पाएं हैं. इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि हम खुलकर आसानी से अपने दिल का ‘हाल’ एक-दूसरे से बयां नहीं करते.

हम मन की बात एक-दूसरे से कहते हुए कुछ डरे, सहमे से रहते हैं. किससे डरते हैं, हम. उन अपनों और खुद अपने से! ऐसा क्‍या राजे दिल है, जिसके जान लेने से हमारे अपने ही हमें ‘अप्रिय’ की सूची में डाल देंगे. अगर कुछ है, जो सबसे छुपाया जाना है, तो संभव है, उसमें कुछ ऐसी अनुभूति है, जो समाज की नजर में गलत हो सकती है, लेकिन जरूरी नहीं कि गलत ही हो.

एक मिसाल से समझने की कोशिश करते हैं…

दिल्‍ली से सटे फरीदाबाद में नरेश सिंहल रहते हैं. एक मल्‍टीनेशनल कंपनी में काम करते हैं. परिवार में सबकुछ सैटल है. लेकिन कुछ ऐसा है, जो नरेश के दिल में अटका सा है. उन्‍हें कुछ अफसोस है कि जिंदगी में सही समय पर सही फैसला नहीं हो पाया!

अब सुनिए, ऐसा क्या था जो उनके दिल मे ‘ठहर’ गया था. किस्‍सा कुछ यूं है कि नरेश एक संपन्‍न परिवार से संबंध रखते हैं. स्‍कूल में साथ पढ़े एक दोस्‍त को उनके साथ आईआईटी में प्रवेश तो मिल गया, लेकिन उसके पास फीस की रकम नहीं थी. उनके दोस्‍त ने नरेश से मदद मांगी. लेकिन नरेश अपने पिता को उसकी मदद के लिए राजी न कर सके.

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इससे उनका दोस्‍त आईआईटी न जा सका. नरेश आईआईटी चले गए और दोस्‍ती वहीं थम गई. दोस्‍त ने शहर छोड़ दिया, दूसरे शहर जाकर आईआईटी की कोचिंग खोल ली. उस कोचिंग ने आगे चलकर इतना नाम कमाया कि एक दिन नरेश का बेटा वहां एडमिशन के लिए जा पहुंचा. तक जाकर नरेश को उस दोस्‍त के बारे में पता चला.

नरेश ने यह बात अपने ‘नए’ दोस्‍तों से साझा की तो उन्होंने इसे भूल जाने को ही कहा. लेकिन नरेश के लिए तो अब यह अपराधबोध जैसी बात हो गई. आखिर उनकी बेटी ने उसे गहराई से समझा जिसे नरेश महसूस कर रहे थे.

अंतत: बेटी ने नरेश और उनके दोस्‍त की मुलाकात करवाई. जिसमें नरेश ने अपने पवित्र आंसुओं से अपने मन का सारा मैल धो दिया. उनका दोस्‍त भी दिलदार निकला. उसने एक कदम आगे बढ़़कर स्‍वागत किया. जिससे दोस्‍ती की गाड़ी पटरी पर आ गई.

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लेकिन सबसे जरूरी चीज यह रही कि दो दिलों में एक दूजे के लिए जमा तनाव, कुंठा, उदासी की परत साफ हो गई.

नरेश तो अपने दिल में ठहरे गम के असर से उबर गए. लेकिन ज़रा ध्‍यान से देखिए तो पाएंगे कि हमारे आसपास लाखों नरेश हैं. जिनके दिमाग, दिल में न जाने ऐसी कितने अपराधबोध, कुंठा और तनाव घर किए हुए हैं.

इनमें यह भी जरूरी नहीं कि हर किसी चीज के लिए आप सीधे जिम्‍मेदार हों, लेकिन हम चीजों को ‘पाले’ रहते हैं, उनसे मुक्‍त नहीं होते. हम कहकर खुद को चीज़ों से अलग नहीं करते, उनके साथ चिपके रहते हैं.

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चीजों के साथ चिपके रहना, अपने मन को तनाव, डिप्रेशन के लिए किराए पर देने जैसा काम है. इसलिए साफ कहना, खुश रहना की पॉलिसी अपनाएं. इससे हो सकता है, कुछ लोग नाराज हों, लेकिन आप हमेशा खुश, प्रसन्‍न और स्‍वस्‍थ रहेंगे, इसकी गारंटी है. 

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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)

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