हम सब हर दिन अपने-अपने घर को पहुंचते हैं. बरसों से पहुंचते आए हैं, इसमें नया क्या है. जो इसकी बात हम यहां करने बैठ गए. असल में हर दिन घर लौटने और घर के भीतर जाने में बहुत अंतर है. उतना अंतर जितना जंगल के बाहर से लौट आने में और जंगल अंदर तक घूम आने में है! इससे कम तो कुछ भी नहीं. तो सवाल यह है कि अपने ही घर में हर दिन कैसे प्रवेश किया जाए. घर में दाखिल होने का कोई सर्वोत्तम तरीका भी है!
बिल्कुल है. हमें घर के भीतर जाने का तरीका बदला होगा. एकदम से शायद न हो पाए, तो धीरे-धीरे. जैसे कबीर कहते हैं...
'धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय'
प्रेम को पढ़ा तो हमने बहुत लेकिन उसे ठहरकर जीना आसान नहीं है. इसे मन को समझाना होगा.
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घर में घुसने से पहले मन के तनाव, उलझन और उसकी गांठों को बाहर ही उतारकर जाना होगा. खुद को स्नेह से भरकर. भीतर से खाली करके. ताकि घर में बच्चों, पत्नी और परिवार के साथ स्नेह की गिली मिट्टी से घरौंदा महक सके.
युवा कवयित्री निधि सक्सेना की एक लोकप्रिय कविता है, 'आओ! मगर ठहरो'. 'डियर जिंदगी' के एक अंक में बहुत पहले संक्षेप में इस पर बात भी हुई थी. इसलिए आज विस्तार से. इस कविता का दायरा इतना बड़ा है कि उसमें पूरा जीवन गूंथ गया है. कविता के रोम-रोम में प्रेम, स्नेह और जीवन दर्शन भरा हुआ है.
यहां यह बताना बहुत जरूरी है कि गूगल और 'व्हाट्सअप यूनिवर्सिटी' में यह कविता महाश्वेता देवी के नाम से वायरल है. जो कि सरासर झूठ है. इस बारे में महाश्वेता देवी के साथ काम कर चुके, उनके साहित्य को नजदीक से देखने वाले लेखकों ने इसे स्पष्ट करने का भरपूर प्रयास किया है.
सुपरिचित लेखक प्रियदर्शन का सत्याग्रह में 'सोशल मीडिया पर दौड़ते ये रेडीमेड विचार हमें सिर्फ जड़ ही नहीं बना रहे हैं' शीर्षक से प्रकाशित लेख भी आपके लिए सहायक हो सकता है.
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कहां कोई सोचता है कि घर में घुसने से पहले खुद को तैयार करना भी एक काम है. काम नहीं, इसे कला कहना चाहिए. 'घर के भीतर प्रवेश करने की कला'.
निधि जी से मेरा परिचय नहीं. लेकिन अगर कभी मिलना हुआ तो जरूर जानना चाहूंगा कि यह कविता उपजी कहां से. इसका हर शब्द मानो एक ख्याल है, अपने घर को तनाव से बचाने, स्नेहन करने का.
मेरी गुजारिश है कि इस कविता को हमें अपने बच्चों, परिवार से साझा करना चाहिए. इसे अपने दिमाग में इस तरह जगह देनी चाहिए कि वह हमारी जिंदगी का हिस्सा बन जाए...
'आओ! मगर ठहरो'.
आ गए तुम!!
द्वार खुला है
अंदर आ जाओ..
पर तनिक ठहरो
ड्योढ़ी पर पड़े पायदान पर
अपना अहं झाड़ आना...
मधुमालती लिपटी है मुंडेर से
अपनी नाराज़गी वहीं उड़ेल आना...
तुलसी के क्यारे में
मन की चटकन चढ़ा आना...
अपनी व्यस्तताएं बाहर खूंटी पर ही टांग आना
जूतों संग हर नकारात्मकता उतार आना...
बाहर किलोलते बच्चों से
थोड़ी शरारत मांग लाना...
वो गुलाब के गमले में मुस्कान लगी है
तोड़ कर पहन आना..
लाओ अपनी उलझने मुझे थमा दो
तुम्हारी थकान पर मनुहारों का पंखा झल दूं...
देखो शाम बिछाई है मैंने
सूरज क्षितिज पर बांधा है
लाली छिड़की है नभ पर...
प्रेम और विश्वास की मद्धम आंच पर चाय चढ़ाई है
घूंट घूंट पीना...
सुनो इतना मुश्किल भी नहीं हैं जीना.
-निधि सक्सेना
मुझे आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा. घर में प्रवेश से पहले, भीतर जाने से पहले अगर आपको यह पोस्ट, कविता याद रही तो यकीन मानिए, आप जीवन को कहीं अधिक हल्का, उदार और स्नेह से लिपटा पाएंगे.
तो घर जाइए, मगर ऐसे नहीं, जैसे अब तक जाते थे. वैसे जैसे यह कविता अनुरोध कर रही है...
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