डियर जिंदगी : 'अलग' हो जाइए, पर जिंदा रहिए...
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डियर जिंदगी : 'अलग' हो जाइए, पर जिंदा रहिए...

हम बाहरी दुनिया, गरीबी, कड़ी मेहनत से नहीं टूटते, लेकिन जैसे ही दस-बाई-दस के कमरे में तनाव पति-पत्‍नी, मित्र, प्रेमी-प्रेमिका से लिपटता है, तो उसकी पकड़ से निकलना मुश्किल हो जाता है. क्‍यों! 

डियर जिंदगी : 'अलग' हो जाइए, पर जिंदा रहिए...

वह 'डियर जिंदगी' की सजग पाठक नहीं हैं. हां, उन्‍हें पता है कि इसमें क्‍या बातें होती हैं. इसका स्‍वर, संवाद क्‍या है. उसके बाद भी उनकी कभी इसमें रुचि नहीं रही. लेकिन वह हमारे संयुक्‍त परिवार का हिस्‍सा हैं. बेहद अंतर्मुखी, इसलिए बात नहीं होती.  

ऐसे में जब सुबह-सुबह उन्होंने फोन पर चिंतित स्‍वर में कहा, 'उसे जान देने की क्‍या जरूरत थी. घर में अगर कलह थी. तो तलाक दे देते. 31 बरस की उम्र आत्‍महत्‍या करने की थोड़ी होती है!' 

दिलचस्‍प बात यह है कि वह जिन कानपुर के एसपी सुरेंद्र दास की आत्‍महत्‍या का जिक्र कर रही थीं, उनका उनसे कोई सीधा रिश्‍ता नहीं था. बस एक ही रिश्‍ता है, मनुष्‍यता का. दूसरे के दुख से हमारा मन कैसे जुड़ जाता है. वही रिश्‍ता. इस खबर और इस फोन करने वाले के बीच है. 

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उनकी बात समाप्‍त हो गई, तो मैंने कहा, 'यही बात तो सबसे ज्‍यादा ध्‍यान देने की है. जो आप कह रही हैं. हम 'डियर जिंदगी' में यही तो बात करने की कोशिश कर रहे हैं कि जान मत दीजिए. छोड़ दीजिए. भूल जाइए. नई शुरुआत करिए. लेकिन दुख, त्‍वरित क्रोध, नफरत की पट्टी कई बार आंखों पर इतनी गहरी हो जाती है कि हम असल में खुद को 'खत्‍म' करने से अधिक दूसरे को 'सबक' सिखाने पर आमादा हो जाते हैं. 
  
सुरेंद्र दास के बारे में अब तक जो बातें सामने आई हैं, उनके अनुसार वह दूसरों को प्रोत्‍साहित करने वाले थे. आईपीएस में चुने जाने के बाद भी वह गांव के बच्‍चों, युवाओं के संपर्क में रहते थे. लेकिन उनकी शादी, जो संभवत: प्रेम विवाह था, उसके बाद परिवार में कलह इतना बढ़ गया कि सुरेंद्र जो कि कभी गरीबी, कड़े संघर्ष से नहीं हारे. उस आईपीएस में चुने गए, जिसमें लाखों में से कोई एक चुना जाता है. वह आखिर कहां आकर हार गए. 

मैं निरंतर इस बात का विनम्रता से जिक्र करता रहा हूं, कि हम बाहर के तनाव से कम और घर के तनाव से अधिक हार रहे हैं. हम भीतर ही भीतर घुट रहे हैं. हम बाहरी दुनिया, गरीबी, कड़ी मेहनत से नहीं टूटते, लेकिन जैसे ही दस-बाई-दस के कमरे में तनाव पति-पत्‍नी, मित्र, प्रेमी-प्रेमिका से लिपटता है, तो उसकी पकड़ से निकलना मुश्किल हो जाता है. क्‍यों! आखिर क्‍यों! 

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इसलिए, क्‍योंकि हम कई बार दूसरों के जीवन के साथ खुद को इतना 'अटैच' कर लेते हैं कि उसके बिना जिंदगी का कोई अर्थ ही नहीं समझते. उससे मिली चोट से उबरना तो दूर उसके 'परे' कुछ सोचना ही नहीं चाहते. 

यहीं आकर सुरेंद्र दास ऐसा निर्णय लेते हैं, जो सबको आश्‍चर्य में डाल देता है. लेकिन जरा ठहरकर देखिए तो बात समझ में आएगी कि हमारी असल मजबूती तब है जब हम उनसे ठीक से रिश्‍ते निभा पाएं, जिनसे जीवन की डोर थमी है. 

मैं यह बात इसलिए भी लिख रहा हूं, क्योंकि अभी एक महीने भी नहीं हुए जब मैं दिल्‍ली में एक ऐसे युवा आईएएस से मिला था, जिनकी नौकरी को दो बरस भी नहीं हुए, लेकिन ऐसा जानलेवा तनाव उनके आसपास भी मंडरा रहा था. मैंने उनके दोस्‍त से कहा भी कि इनका ध्‍यान रखें. अच्‍छी बात है कि अब वह थोड़े बेहतर हैं. 

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बड़े पद पर बैठे युवा तनाव से इसलिए भी घिर रहे हैं, क्‍योंकि वह अपने पद, ऑफि‍स और घर की पोजिशन में अंतर नहीं कर पाते. वह घर पर भी आईएएस अफसर बने रहने की गलती करते हैं, यही तनाव प्रबंधन में सबसे बड़ी गलती साबित होती है. हम नौकरी और रिश्‍तों की दुनिया को उलझा रहे हैं. 
  
हमें जीवन में नौकरी, रिश्‍ते के साथ प्रेम, स्‍नेह का लेप गहरा करना होगा. जिस किसी पर तनाव, डिप्रेशन की छाया दिखे, उस पर स्‍नेह का लेप दिल खोलकर लगाइए. 

यह स्‍नेह, संवाद और जीवन के प्रति स्‍वतंत्र, स्‍पष्‍ट नजरिया ही हमें आत्‍महत्‍या जैसे खतरे से बचा पाएगा.

शुभकामना सहित... 

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