हम शांतिप्रिय जीवनशैली से एक दशक पहले एक ऐसे समय में पहुंच गए हैं, जहां जीतने का शोर इतना अधिक है कि 'कैसे' जीते का अर्थ खत्‍म होता जा रहा है. अब सारा ध्‍यान इस पर चला गया है कि जीते कि नहीं. यह एक आत्‍मघाती कदम है. जो समाज, परिवार के रूप में सबसे ज्‍यादा हमें ही नुकसान पहुंच रहा है. 


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आपने देखा ही होगा कि कैसे दक्षिण अफ्रीका-ऑस्‍ट्रेलिया के बीच चल रही टेस्‍ट सीरीज में दुनिया के दिग्‍गज सर्वश्रेष्‍ठ बल्‍लेबाजों में से एक स्‍टीव स्मिथ और डेविड वॉर्नर किस हद तक चले गए. उन्‍होंने ड्रेसिंग रूम में बैठकर मैदान में गेंद से छेड़छाड़ की साजिश की. उसे अंजाम दिया. ऑस्‍ट्रेलिया दुनिया में क्रिकेट को सबसे अधिक सम्‍मानित नजरिए से देखने वाला देश है. इसे ऐसे भी समझिए कि ऑस्‍ट्रेलियन ऑफ द ईयर, जो कि उनका सबसे बड़ा सम्‍मान है, सबसे अधिक बार खिलाडि़यों को ही दिया गया है. 


जैसे ही यह मामला सामने आया, वहां के प्रधानमंत्री ने इन दोनों खिलाड़ियों को बाहर करने की मांग कर दी. यह बस क्रिकेट में नैतिकता की मर्यादा को बहाल करने की कोशिश के तहत किया गया, जिससे यह भी साबित हो कि जीतना ही सबकुछ नहीं है. 


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ऑस्‍ट्रेलिया के अखबार अपने खिलाड़ियों की आलोचना से भरे हैं. सबसे अधिक निंदा उस रवैए की जहां हर हाल में जीतना जरूरी है. स्‍मिथ ने ऐसा इसलिए भी किया क्‍योंकि ऑस्‍ट्रेलिया अब तक अफ्रीका में (रंगभेद नीति के प्रतिबंध से लौटने के बाद) कभी टेस्‍ट सीरीज नहीं हारा है. इसलिए वह किसी भी कीमत पर जीतना चाहते थे. 


'किसी' भी कीमत पर. यह किसी भी कीमत ही सबसे खतरनाक विचार है. वहां के अखबारों ने लिखा है कि स्मिथ और उनके साथियों ने इस धोखाधड़ी से क्रिकेट कल्‍चर को नुकसान पहुंचाया है. वहां समाज, विश्‍लेषक सब कह रहे हैं कि सबको बाहर करो.


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दूसरी तरफ हम अपनी ओर देखें. विराट कोहली के कप्‍तान बनने के बाद यह देखा जा रहा है कि टीम की आक्रामकता अनेक अवसरों पर मर्यादा की सीमा पार कर रही है. कप्‍तान खुद टीवी कैमरे पर सरेआम दूसरी टीम को कोसते, गाली देते और अक्‍सर मर्यादा से बाहर जाते हुए दिख रहे हैं. ऐसे में वह दूसरों को कैसे काबू में रखेंगे! 


विराट कोहली कामयाबी के रथ पर सवार हैं, तो हम उनके गुणगान में व्‍यस्‍त हैं. सुनील गावस्‍कर जैसे प्रतिष्‍ठि‍त क्रिकेट चिंतक क्रिकेटरों की आराधना में नागिन डांस तक कर लेते हैं. गावस्‍कर से युवाओं को सचेत करने की अपेक्षा थी, लेकिन वह स्‍वयं कोहली के रंग में रंगे नजर आ रहे हैं. सफलता के साथ ऐसा ही होता है. वह अपने गुण के साथ दोष भी लेकर चलती है. कोहली जैसे खिलाडि़यों का असर लाखों युवाओं पर हो रहा है, उनके भीतर आक्रामकता बढ़ रही है, लेकिन इस पर कोई संवाद नहीं है.


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हमारे खिलाड़ियों की गैरजरूरी आक्रामकता समाज को घातक हिंसक प्रवृत्ति की ओर ले जा रही है. ऐसी हिंसा जो घर बैठे लोगों के दिल-दिमाग में बसने लगती है. यह धीरे-धीरे हमारे व्‍यक्‍तित्‍व पर हावी होने लगती है. बच्‍चों को यह लगने लगा है कि उनमें योग्‍यता के साथ विनम्रता की जगह 'एटीट्यूड' होना चाहिए, क्‍योंकि कामयाबी के लिए यह बहुत जरूरी है. ऐसे समय में जरूरी है कि सचिन तेंदुलकर जैसे व्‍यवहार का बार-बार जिक्र हो. जितना संभव हो, उतना हो. ताकि बच्‍चों, युवाओं के दिमाग में यह बात गूंजती रहे कि हमें अपने काम में आक्रामक होना है, व्‍यवहार में नहीं. 


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काश! कोहली एंड कंपनी भी इस बात को समझ पाती, लेकिन हम अपने बच्‍चों को इनके भरोसे नहीं छोड़ सकते. इसलिए यह जिम्‍मेदारी हमें उठानी होगी. उन्‍हें समझाना होगा कि जीतना जरूरी है, लेकिन किसी भी कीमत पर नहीं.


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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)


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