काफी दिनों से उनकी तबियत कुछ अनमनी है. देखने और संवाद में वह एकदम सामान्‍य हैं. लेकिन अंतर्मन में कुछ घुट रहा है. एक किस्‍म की छटपटाहट. बेचैनी से अधिक व्‍याकुल मनोस्थिति. आखिर उन्‍होंने तय किया कि इस पर बात करनी चाहिए. उन्‍होंने अपने एक लेखक मित्र को इसके लिए चुना. वह मित्र उन्‍हें एक डॉक्‍टर के पास ले गए. जहां पहुंचकर उन्‍होंने पाया कि समस्‍या केवल एक जगह है. वह जगह है, खुद उनके दिमाग में बच्‍चों की परवरिश के प्रति दुविधा और अवैज्ञानिक सोच!


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'डियर जिंदगी' को लिखे ई-मेल में कानपुर की ईला दुबे ने यह बातें कही हैं. इला लिखती हैं, 'मैं डियर जिंदगी की नियमित पाठक हूं. मैं एक ऐसे परिवार से हूं जिसके पास विरासत से बहुत कुछ हासिल नहीं था. मैंने और मेरे पति ने बड़ी मुश्किल से अपने लिए इस समाज में जगह बनाई है. मैं केवल इतना चाहती हूं कि मेरे दोनों बच्‍चों को वह संघर्ष न करना पड़े. जिससे हमें गुजरना पड़ा. इसलिए मैं उनके पीछे दौड़ती रहती हूं. लेकिन बच्‍चों का रवैया बेहद निराशाजनक है.'


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ईला की चिट्ठी का सारांश है कि वह बच्‍चों को अपने अनुसार तैयार नहीं कर पा रही हैं. वह एक अच्‍छी मां साबित नहीं हो पा रही हैं, इसकी पीड़ा उनके मनोविज्ञान पर भारी पड़ रही है. तनाव इतना बढ़ गया कि बात माइग्रेन से शुरू होकर आंखों के डार्क सर्किल से होते हुए उनके स्‍वभाव की चिड़चिड़ाहट और गहरी उदासी में बदल गई.


पैरेंटिंग/परवरिश की दुविधा में उलझी ईला के साथ सबसे अच्‍छी बात यह हुई कि वह सही समय पर डॉक्‍टर के पास पहुंच गईं. उन्‍होंने इसी दौरान हमें भी अपनी परेशानियों के बारे में बताया था. संयोग से मैंने उनसे चीजों को व्‍यवहारिक रूप से समझने, अपनी अपेक्षा का भार मन पर न डालने और बच्‍चे से अत्‍यधिक अपेक्षा न रखने का अनुरोध किया था.


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सौभाग्‍य से उन्‍हें ऐसे डॉक्‍टर मिले, जिन्‍होंने उन्‍हें शांति से सुना, समझा. दवाइयों की जगह अपनी जीवनशैली में बदलाव लाने की बाद कही. जो 'डियर जिंदगी' का केंद्रीय भाव है.


असल में ईला की समस्‍या बच्‍चों के प्रदर्शन की समस्‍या न होकर उनके खुद के प्रदर्शन का दबाव है. ईला चाहती हैं, उनके बच्‍चे एकदम अनुशासित, कठोर परिश्रमी और स्‍मार्ट बनें. लेकिन बच्‍चे वैसा नहीं कर पा रहे हैं. उनके बच्‍चे ऐसा न कर पाने वाले दुनिया में अकेले नहीं हैं. दुनिया असल में ऐसे लोगों से भरी है, जो बचपन में गति हासिल नहीं कर पाते. लेकिन एक उम्र, एक टर्निंग पॉइंट से उनकी जिंदगी बदल जाती है. अभिभावकों को इस क्षण की प्रतीक्षा थोड़े धैर्य से करने की जरूरत है.


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हमें यह गहराई से समझना होगा कि बच्‍चे के लिए हमें प्रयास तो पूरा करना है, लेकिन अगर हमारे प्रयासों के बाद भी वह वैसा नहीं कर पा रहा, जो हम चाहते हैं, तो हमें धैर्य रखना होगा. बच्‍चे के प्रति संयम दिखाना होगा. उसे हर बात में टोकने, अपमानित करने की जगह इस बात पर जोर देना होगा कि उसे आप पर पूरा भरोसा है. जो बच्‍चे अच्‍छा कर रहे हैं, उनके साथ अभिभावकों की भूमिका चुनौतीपूर्ण नहीं होती. चुनौती वहीं से शुरू होती है, जहां परिणाम आपके मन के अनुसार नहीं आ रहे. ऐसे कठिन समय में आपको परिणाम से अधिक प्रक्रिया पर भरोसा रखना होता है.


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बच्‍चे में भरोसा व्‍यक्‍त करना. उसे अपने साथ होने का अहसास दिलाना, उस गमले का ध्‍यान रखने जैसा है, जो हरा तो है, लेकिन उसमें फूल नहीं आ रहे. शायद, कुछ कमी हो. कमी उसके दिमाग से ज्‍यादा उसके मिजाज में हो सकती है. बच्‍चों की परवरिश में कांच के बर्तन का सिद्धांत रखें. सावधानी से संभालकर रखना है, भले ही उपयोग न हो रहा हो. क्‍योंकि वह मूल्‍यवान है. यहां उपयोग को परिणाम समझा जाए.


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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)


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