डियर जिंदगी: प्रेम के चक्रव्यूह में `शहीद` बराबरी...
जब तक हम कन्यादान जैसे सिंड्रोम से नहीं निकलेंगे, स्त्री पूजा के स्वांग की जगह उसे अधिकार देने की बात नहीं करेंगे, महिला दिवस बेईमानी, सार्वजनिक झूठ से अधिक कुछ नहीं साबित होगा.
देश में महिला और पुरुष के बीच असमानता की खाई का सारा ठीकरा अक्सर समाज पर फोड़ दिया जाता है. अतीत की ओर उछाल दिया जाता है, क्योंकि ऐसा करना सबसे सरल है. सबसे आसान है, अपनी जिम्मेदारी से बच जाना. उन सवालों से पीछा छुड़ा लेना, जो परेशान करते हैं. लड़कियों के साथ भेदभाव की सबसे पहली शुरुआत इस संवाद से होती है कि लड़की आखिर लड़की है, लड़का तो नहीं है. वह कमजोर है, वह जिम्मेदारी है.
इस मायाजाल, भ्रम की दीवारें कुछ इस तरह से बुनी गई हैं कि हमें नजर तो आती हैं, लेकिन हम इन्हें तोड़ना नहीं चाहते. हमें सबके सामने इसे बुरा कहने की आदत भी है, लेकिन नितांत अकेले में अपने भीतर हमें यह सब वैसा ही करते रहना पसंद है जैसा सब करते हैं.
इस तरह हम उन्हें बराबरी के अधिकार से वंचित करते जा रहे हैं, जिन्हें हम खूब, भरपूर प्यार करते हैं. बेटियों से हम प्यार करते हैं, उनके लिए ख्वाब देखते हैं, उन ख्वाबों का हिस्सा भी बनते हैं. लेकिन अपनी बेटियों के लिए हम वैसे पति कहां से लाएंगे जो उनकी बराबरी के लिए आगे आने का हौसला दिखा सकें. जब तक हम कन्यादान जैसे सिंड्रोम से नहीं निकलेंगे, स्त्री पूजा के स्वांग की जगह उसे अधिकार देने की बात नहीं करेंगे, महिला दिवस बेईमानी, सार्वजनिक झूठ से अधिक कुछ नहीं साबित होगा.
डियर जिंदगी की पाठक दीपा अग्रवाल ने महिला दिवस पर भेजे ईमेल में लिखा है, 'मेरे पति बहुत ही भले आदमी हैं. वह मेरा हर कदम पर साथ देते हैं. मैं चाहे पारंपरिक चीजें जैसे बिछिया आदि पहनूं, न पहनूं, उन्हें कोई अंतर नहीं पड़ता. लेकिन जब बात उनके घर वालों की आती है तो वह चुप हो जाते हैं. कहते हैं, तुम्हारा मामला है, तुम देखो. मैं क्या देखूं इसमें.'
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यह अकेले दीपा की बात नहीं है. भारत में स्त्रियों के पहनावे, उनके बारे में निर्णय करने के सारे अधिकार पर 'प्रेम' के नाम पर पुरुषों ने कब्जा कर लिया है. वह तय करते हैं कि साड़ी, बिंदी, बिछिया से ही स्त्री की पहचान पूरी होती है. वह स्त्री के चयन पर प्रेम के नाम पर अधिकार करते जाते हैं. यह अधिकार करने का काम अगर एक बार शुरू हो गया तो ताउम्र चलता रहता है. बेटी मां की गोद तक ही स्वतंत्र होती है. वहां से कदम-कदम पर उस पर प्रेम, अधिकार के नाम पर हम स्वतंत्रता छीनने के नए-नए जतन करते रहते हैं.
दीपा ने यह भी लिखा कि वह एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती हैं. उनका बेटा जो सोलह साल का हो चुका है, कई बार यह जानना चाहता है कि वह किससे बात करती हैं. अगर किसी पुरुष साथी का फोन दिन में चार-पांच बार आ जाए तो वह थोड़ी परेशानी में दिखता है. वह इस बात की शिकायत अपने पापा से करता है. जब वह ध्यान नहीं देते, समझाते हैं कि वह काम ही पुरुषों के साथ करती है तो फोन उनका ही आएगा. उसके बाद बेटा इस शिकायत को दादी, नानी तक ले जाता है. जहां जाहिर है, उसे थोड़ा बहुत तो सुना ही जाता है.
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दीपा अकेली नहीं हैं. असल में हमारे बड़े होते लड़कों को उनके आसपास जैसा माहौल मिलना चाहिए. उसकी बहुत कमी है. लड़कों को अधिकार की जिस कथित भावना के साथ पाला पोसा जा रहा है, उससे वैसे ही लड़के तैयार होंगे, जो असल में कोई लड़की नहीं चाहेगी.
हम बेटियों को आधुनिक बनाने की रट तो लगाए हुए हैं, लेकिन उनके लिए वैसा वातावरण तैयार करने पर हमारा कतई ध्यान नहीं है. हम लड़कों को अभी भी वह संस्कार नहीं दे पा रहे, जिसके सहारे उनके अंतर्मन तक यह बात पहुंच सके कि वह लड़कियों से किसी मायने में आगे नहीं हैं. हां, पीछे जरूर हैं. प्रेम में, स्नेह में, दूसरों को समझने और खुद को परिस्थिति के हिसाब से समायोजित करने में.
इसलिए, सबसे जरूरी है कि हम अपने घर से उन विचारों की शुरुआत करें, जिन्हें हम समाज में देखना चाहते हैं. भाषण देने, नारे गढ़ने से आगे घर में कुछ करने का वक्त है. क्या इसके लिए हमारा समाज तैयार है!
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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