डियर जिंदगी : युवा की `बूढ़ी` सोच - 2
भारत में शादियों के दौरान बारातियों का व्यवहार किसी तांडव से कम नहीं होता. हालांकि जिन लोगों के पास गैर मेट्रो शहर, कस्बे, गांव की शादियों का अनुभव नहीं है, उन्हें यह बात समझने में परेशानी हो सकती है.
जब हम किसी से कहते हैं, तुम तो युवा हो. जरा हौसला दिखाओ, इस तरह निराश होने से कुछ नहीं होगा. तो इसके मायने यह हैं कि इस उम्र से हताशा, निराशा को दूर रखने की जरूरत है. जो युवा हैं, उनके पास उम्र की ऊर्जा से कहीं अधिक मन की ऊर्जा है. इस बात को अधिक आसानी से समझना हो, तो ऐसे समझिए कि जिस किसी को आप अपना 'हीरो', आदर्श मानते हैं, उसके जैसा होने के ख्वाब बुनते हैं, उसने जिंदगी में जो कुछ हासिल किया, वह कब किया. उसके संघर्ष का समय कौन-सा था. उसकी जिंदगी के 'टर्निंग पॉइंट ' क्या थे. यह समझना बहुत जरूरी है.
हम अक्सर कहानियां लिखने की उम्र में दूसरों की कहानियों पर बात करते रहते हैं. इस बतकही में वह समय गुजर जाता है, जब आप अपने जीवन की कहानी लिख सकते थे.'युवा सोच' की सीरीज के पहले अंक 'पांव धुलवाने की युवा सोच – 1' को लेकर पाठकों विशेषकर मध्यप्रदेश से विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएं मिलीं. इनमें से कुछ ने परंपरा और सोच को नवीनता से जोड़ने से ही इंकार कर दिया, तो कुछ ने संस्कृति के नाम पर इसमें दखल से इंकार कर दिया.
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कुछ सुलझे विचार भी मिले. इनकी संख्या कम है, लेकिन यह हैं. और बहुत हैं. बात केवल इतनी है कि हम सही बात को कई बार महसूस तो कर रहे होते हैं, लेकिन उसे कहने का साहस नहीं जुटा पाते. हम चाहते हैं, कोई दूसरा हमारे हिस्से का साहस जुटा ले. हम नहीं कह पा रहे हैं, लेकिन काश! कोई दूसरा आकर कह दे. इस सोच के पीछे एक पूरा मनोविज्ञान है. यह मनोविज्ञान हमारी मान्यताओं जैसे कोई राजकुमार/देवदूत प्रकट होगा, से जन्मा है.
भारत में शादियों के दौरान बारातियों का व्यवहार किसी तांडव से कम नहीं होता. जिन लोगों के पास गैर मेट्रो शहर, कस्बे, गांव की शादियों का अनुभव नहीं है, उन्हें यह बात समझने में परेशानी हो सकती है. लेकिन हमारी आबादी का लगभग आधा हिस्सा अगर किसी एक तरह के सिंड्रोम से पीड़ित है, तो उस पर गंभीरता से संवाद, लेखन उतना ही जरूरी है, जितना ऐसे प्रश्नों के लिए जो एकदम मध्यवर्गीय, शहरी हैं.
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मैंने अब तक दिल्ली और महानगरों से बाहर मध्यप्रदेश में जितनी शादियों में हिस्सा लिया है, उनमें से बमुश्किल पांच शादियां हैं, जिनमें बारातियों के व्यवहार को शालीन कहा जा सकता है. अन्यथा बाकी शादियों, जिनमें अभी-अभी की शादियां भी शामिल हैं, उनमें बारातियों का व्यवहार अराजक, सामंती और लड़कियों के प्रति अपमानजनक रहा है.
लेकिन यह लिखते हुए दुख होता है कि यह व्यवहार करने वाले अगर युवा हैं तो इसे सहने वाले भी युवा हैं. इसलिए नहीं कि वह शिक्षित नहीं हैं. साक्षर नहीं हैं! सबकुछ हैं. थैला भरकर पढ़े-लिखे हैं. लेकिन उनके दिमाग में कुप्रथाओं की जंग लगी है. वह अपने दायरे से बाहर नहीं निकलना चाहते. लोग क्या कहेंगे, यह सबसे बड़ा रोग उनके दिमाग को खोखला किए जा रहा है.
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भोपाल में रहने वाले दंपति प्रीति तिवारी और नरेंद्र शुक्ला की शादी को मैं अपने जीवन की एक ऐसी शादी के रूप में याद करता हूं, जहां किसी एक बाराती तक का व्यवहार मर्यादा के बाहर नहीं था. हर कोई अपनी मौज में, लेकिन नियम, मर्यादा से बंधा था. किसी ने अभद्रता नहीं की. कोई दूसरे पर चीखा नहीं. सब स्नेह और प्रेम के उस बंधन में बंधे थे, जिसके लिए दो परिवार यह आयोजन रचते हैं.
'पांव धुलवाने की युवा सोच - 1' में जिस बारात का जिक्र किया गया, उसमें भी तो युवा ही थे. लेकिन कथित पढ़े-लिखे! ऐसे जिनके दिमाग में सामंती सोच का केमिकल भरा हुआ है. ऐसी शिक्षा जो मनुष्य को विनम्र न बनाए. उसे दूसरे के साथ बैठना न सिखा सके, वह व्यर्थ है. यह सारे युवा ऐसी व्यर्थ की शिक्षा के ही प्रतिनिधि हैं.
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लेकिन उतने ही जिम्मेदार वह भी हैं, जो सबकुछ सह लेते हैं. बिटिया की इज्जत के नाम पर! अगर इन सबको और ऐसी सोच को हम युवा कहते हैं, तो यह युवा नहीं 'बूढ़ी' और शर्मनाक सोच है. ऐसे युवाओं के नाम पर हम कौन-सा युवा देश बनाएंगे. कौन से विश्वगुरु बनेंगे! यह लिखने की जरूरत नहीं. ऐसी सोच समाज और जीवन को आगे चलकर कुंठित, मनोरोगी बनाने के अलावा कुछ नहीं कर सकती.
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(लेखक ज़ी न्यूज़ में डिजिटल एडिटर हैं)
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