बाबा साहब मानते थे कि गैरबराबरी दूर करने के लिए राज्य को सख्त कदम उठाने चाहिए
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बाबा साहब मानते थे कि गैरबराबरी दूर करने के लिए राज्य को सख्त कदम उठाने चाहिए

भारतीय समाज में सदियों से मानवीय गरिमा का हनन होता आया है, जहां मनुष्य ही मनुष्य से घृणा रखे हुए है. ऐसे में उनका मानना था कि सामाजिक और आर्थिक असमानता एक राष्ट्र के तौर पर भारत को सशक्त नहीं बनाती हैं. 

बाबा साहब मानते थे कि गैरबराबरी दूर करने के लिए राज्य को सख्त कदम उठाने चाहिए

आज बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर के चिंतन और विचारों की बहुत अधिक आवश्यकता है. उन्होंने लोकतांत्रिक मूल्यों, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक परिवर्तन के लिए आजीवन संघर्ष किया. उनके विचारों को आज सर्वकालिक और वैश्विक परिप्रेक्ष्य में समझे जाने की आवश्यकता है. उनकी दृष्टि अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय रूप से असमानता के विरुद्ध है. उन्होंने सामाजिक और आर्थिक विषमता के खिलाफ पूरे जीवन संघर्ष किया, उनका मानना था कि सारे मनुष्य एक बराबर हैं. वे कहते थे कि किसी भी तरह की असमानता और गैर बराबरी समाज में विघटन पैदा करती है. इसको लेकर बाबा साहब का मानना था कि इस विषमता को दूर करने के लिए आवश्यक है कि राज्य को कड़ा हस्तक्षेप करना चाहिए.

भारतीय समाज में सदियों से मानवीय गरिमा का हनन होता आया है, जहां मनुष्य ही मनुष्य से घृणा रखे हुए है. ऐसे में उनका मानना था कि सामाजिक और आर्थिक असमानता एक राष्ट्र के तौर पर भारत को सशक्त नहीं बनाती हैं. इसके उपायों के बारे में उन्होंने अपना महत्वपूर्ण ग्रंथ “भारत में जातिभेद का उच्छेद” लिखा. जिसमें वह कहते हैं कि भारत में जातियां सामाजिक और आर्थिक रूप से आपस में मिलीं हुई हैं. अगर हमें इनको दूर करना है तो आपस में व्यक्तियों का मेल-मिलाप बहुत आवश्यक है वह मानते थे कि भारत में जातिगत व्यवस्था लोगों के बर्ताव और व्यवहार में स्वयं परिवर्तन नहीं लाने वाली है, बल्कि इसके लिए कड़े कानून और दंड के नियम का पालन होना चाहिए. यदि स्वयं परिवर्तन से ऐसा होता, लोग अपने व्यवहार में सदियों पहले परिवर्तन लाए होते. लेकिन जो भी संत और महापुरुष हुए उन्होंने भारत में असमानता और गैर बराबरी के लिए बात कही लेकिन वह बात लोगों ने बहुत कम सुनी.

बौद्ध धर्म के माध्यम से बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबेडकर पूरी दुनिया में वैश्विक एकता की बात करते हैं, आज जहां सारी दुनिया आतंकवाद, अशांति और हिंसा के रास्ते पर बढ़ रही है, ऐसे में डॉ. अंबेडकर की दूरदृष्टि और बौद्ध धम्म का संदेश दया, करूणा, मैत्री और अहिंसा ही मानव के जीवन को एक नई दिशा देंगे. बाबा साहब का मानना था कि बौद्ध धर्म ही वैश्विक स्तर पर मानव-मानव के बीच कोई भेद नहीं रखता है, बल्कि समस्त जगत के प्राणियों के कल्याण और मंगल की भावना रखता है. आज पूरी दुनिया में परमाणु अस्त्रों की होड़ लगी हुई है और उत्तरी कोरिया व अमेरिका के बीच आपस में परमाणु हथियारों को लेकर वाक्-युद्ध चल रहा है. ऐसे में डॉ. अंबेडकर कहते थे कि सारी दुनिया का हल आपस में मिल बैठकर बातचीत से ही हो सकता है, हल लड़ाई झगड़े से होने वाला नहीं है. उनका मानना था कि सारी दुनिया को बुद्ध के संदेश ही एक सूत्र में बाँध सकते हैं, क्योंकि बुद्ध की अपील पूरी दुनिया में वैश्विक अपील है और वह संपूर्ण एशिया को तो एक सांस्कृतिक संबंधों में आपस में जोड़ती है. उनका मानना था कि बौद्ध धर्म के जो सिद्धांत हैं वह आज के समय पूरी दुनिया को एक दृष्टि दिखाएंगे. भारत की विदेश नीति बौद्ध धर्म पर आधारित रही है, जिसमें पंचशील का सिद्धांत, जो पंडित जवाहरलाल नेहरु ने प्रतिपादित किया था वह दुनिया को एक नई राह दिखाने की क्षमता रखता है.

भारतीय राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में आज जितनी राजनैतिक उठापटक मची हुई है, उतना कभी नहीं हुआ था. भारत में आजादी के 70 वर्षों के बाद आज भी राजनीतिक दल आपस में लोकतांत्रिक व्यवहार और अभ्यास नहीं कर पाए हैं. बल्कि उन्होंने समाज में सांप्रदायिक और धार्मिक ध्रुवीकरण को बढ़ाया है, सांप्रदायिक उन्माद को बढ़ावा दिया है. हमारे देश की सामाजिक व आर्थिक असमानता और गैरबराबरी राजनीतिक दलों के लिए खाद-पानी का काम करती है. इसके गैरबराबरी कारण भारतीय समाज में आपस में टकराव बढ़ रहा है और भारतीय नागरिकों में आपस में सौहार्दपूर्ण संबंध बन नहीं पा रहे हैं. बल्कि कटुतापूर्ण संबंध बन रहे हैं, जिसके जिम्मेदार भारतीय राजनीतिक दल हैं, भारतीय राजनीतिक दलों का जिस तरह का रवैया एवं व्यवहार है, वह उनकी नीति, सिद्धांतों और राजनेताओं के व्यवहार को दर्शाता है. जो स्वप्न हमारे आजादी के राजनेताओं ने देखा था, वह तिरोहित हुआ है, ध्वस्त हुआ है और कभी-कभी तो लगता है कि आज के समय के हमारे राजनीतिक नेता कितने बौने कद के हैं ?

हमारे राजनीतिक दलों की जिम्मेदारी थी कि वह भारतीय समाज में आर्थिक गैर बराबरी दूर करते, जातिगत उत्पीड़न और सामाजिक असमानता को दूर करते और वह धार्मिक कट्टरता को कम करते, समाज में वैज्ञानिक चेतना का प्रचार-प्रसार करते, धर्म और भाषा की लड़ाई को दूर करते. लेकिन राजनीतिक दलों ने ऐसा नहीं किया है, बल्कि उन्होंने इन सभी को अपने लिए खाद-पानी माना है. आज उसी का परिणाम है कि भारतीय समाज लोकतांत्रिक मूल्यों में ढल नहीं पाया है और एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में लोकतांत्रिक व्यवहार नहीं हो पाया है, जिसके कारण हमारे समाज में विमर्श और एक-दूसरे व्यक्तियों के विचारों का सम्मान कम हुआ है. जिसके कारण भारतीय समाज में संवाद का माहौल खत्म हुआ है और विमर्श की भाषा बदल गई है.

भारतीय समाज में जहां गरीबी, जातिगत उत्पीड़न व छुआछूत यह मुख्य मुद्दे होने चाहिए थे, वहां पर आज राजनीतिक दल धार्मिक और जज्बाती मुद्दे उभार रहे हैं, जिसके कारण भारतीय समाज में आपस में टकराव हो रहा है और जिसके कारण के देश के कई क्षेत्रों में शोषित समाज पर हमले हुए हैं और मारपीट की घटनाएं बढ़ी हैं. लेखकों, बुद्धिजीवियों, रंगकर्मियों, संस्कृतिकर्मियों पर हमले बढ़े हैं और पत्रकारों को धमकियां दी जा रही हैं जिसके कारण भारतीय समाज में तर्क-वितर्क, विमर्श और संवाद का माहौल खत्म हुआ है, बल्कि जो संवाद हो रहा है, वह संवाद बिना तथ्यों के हो रहा है और एक स्वस्थ लोकतंत्र में इसकी कोई जगह नहीं है.

भारत में संविधान की दृष्टि में इतने सारे पंथ, जाति, धर्म और भाषाएं रहीं हैं, जिनको भारत के संविधान ने एक सूत्र में बांधा है और वह सूत्र है भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था. अगर भारत में सभी लोग अपने-अपने तरीके से सोचेंगे और अपने-अपने तरीके से देश को चलाएंगे या अपने-अपने तरीके से अपने-अपने समाजों में विमर्श करेंगे, तो वह एक भारतीय राष्ट्र के तौर पर हितकारी नहीं होगा. बल्कि वह भारतीय संविधान के मूल्यों के विपरीत होगा. आज हमें जरूरत इस बात की है कि जिस दर्शन को हमारे संविधान सभा के महान नेताओं ने हमारे सामने रखा था, वही हमारा मूल आदर्श होना चाहिए. वह आदर्श ही आज हमारे भारतीय समाज को बचाएगा, हमारे समाज में लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करेगा और हम एक भारतीय गणराज्य बना पाएंगे. जिसमें सभी भारतीयों को सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से न्याय मिल सकेगा और जहां पर किसी भी व्यक्ति के साथ, किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं होगा. भारतीय संविधान में दिए गए ‘नीति निर्देशक तत्व’ भारतीय राज्य सरकारों को गतिशीलता प्रदान करेंगे. जिसमें कोई भी व्यक्ति व बच्ची भूख से दम नहीं तोड़ देगी और किसी भी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए नहीं धमकाया जाएगा कि वह एक अलग और नवीन विचार की स्थापना करता है. आज हमको जरूरत है कि हम भारतीय समाज में धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की स्थापना करें. वैज्ञानिक चेतना से प्रतिस्थापित समाज को बनाए और हम धर्मनिरपेक्ष समाज के लिए निर्माण की दिशा में प्रयास करें.

(लेखक महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय (वर्धा) में डॉ. भदंत आनंद कौसल्यायन बौद्ध अध्ययन केंद्र के प्रभारी निदेशक हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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