BLOG: टीवी मीडिया में प्रतिस्पर्धा के लिए एक-दूसरे से मार काट क्यों?
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BLOG: टीवी मीडिया में प्रतिस्पर्धा के लिए एक-दूसरे से मार काट क्यों?

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो संविधान में हर भारतीय नागरिक को है. समाचार माध्यमों, पत्र पत्रिकाओं टीवी चैनल भी उसी अधिकार का लाभ पाते हैं. फिर कुछ नियम, प्रावधान  मीडिया के लिए बनते-बदलते रहे हैं. 

BLOG: टीवी मीडिया में प्रतिस्पर्धा के लिए एक-दूसरे से मार काट क्यों?

आपने मुर्गों को लड़ते लड़ाते देखा है. कबूतर, कौव्वे से लेकर शेर हाथी को लड़ते देखा होगा. सामान्यतः घोड़ों को लड़ते कम देखा जाता है. हां चीन, दक्षिण कोरिया जैसे देशों में घोड़ों को भीषण खून खराबे वाली लड़ाई का प्रदर्शन करके कमाई की जाती रही है. कई देशों में पशुओं को लड़ाने के कथित खेलों पर अब प्रतिबंध लग चुके हैं. लड़ाई से किसी को क्या मिला है और मिलेगा. लेकिन इन दिनों समाज, देश दुनिया को शांति सद्भावना का संदेश देने वाले कुछ टीवी मीडिया चैनल, संपादक या स्वतंत्र रूप से सोशल मीडिया पर सक्रिय पूर्व संपादक, पत्रकार और साहित्य संस्कृतिकर्मी  सार्वजनिक रूप से एक दूसरे से झगड़ने जैसी स्थितियों में दिखाई दे रहे हैं. राजनीतिक विचारधारा, सत्ता या प्रतिपक्ष से जुड़ाव तक मतभेद समझ में आ सकते हैं. लेकिन प्रतियोगिता अथवा निजी नाराजगी में एक दूसरे को अपराधी, देशद्रोही तक करार देने की पराकाष्ठा से क्या किसी को लाभ हो सकेगा?

कौन कितना किस विषय को दिखाए यह तय कौन करेगा?
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो संविधान में हर भारतीय नागरिक को है. समाचार माध्यमों, पत्र पत्रिकाओं टीवी चैनल भी उसी अधिकार का लाभ पाते हैं. फिर कुछ नियम, प्रावधान  मीडिया के लिए बनते-बदलते रहे हैं. इसलिए इन दिनों मीडिया के कई दिग्गज, राजनेता, सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में सक्रिय लोग और सामान्य जनता का एक वर्ग किसी लगाम, नियंत्रण, लक्ष्मण रेखा की बात कर रहे हैं. उन्हें ध्यान नहीं है, यह बात पिछले पांच दशकों में उठती और दबाई जाती रही है. मैं स्वयं 1970 से पत्रकारिता में होने के कारण राज्यों और केंद्र की सरकारों, अतिवादी सांप्रदायिक, आतंकवादी समूहों के दबावों और प्रयासों को देखता-समझता और झेलता रहा हूं.

वर्तमान संदर्भ में टीवी मीडिया को लेकर गंभीर बहस छिड़ गई है. वे क्यों सुशांत सिंह-रिया प्रकरण या चीन भारत सीमा विवाद या कोरोना महामारी के संकट को दिन रात अतिरंजित ढंग से दिखा रहे हैं. फिर प्रतियोगिता में एक दूसरे से मार काट क्यों कर रहे हैं? कौन कितना किस विषय को दिखाए यह तय कौन करेगा?

सरकार की निगरानी का प्रावधान
वास्तव में एक गंभीर कोशिश का ध्यान आता है. बात 2006 की है. उस समय मैं एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया का अध्यक्ष था और साथी वरिष्ठ संपादक सच्चिदानन्द मूर्ति महासचिव पद पर थे. मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस गठबंधन की सरकार सत्ता में थी. सरकार ने मीडिया के ब्रॉडकास्ट नियामक विधेयक तैयार कर लिया. इससे पहले केवल केबल प्रसारण के नियमन के लिए कुछ नियम कायदे बने हुए थे. लेकिन कांग्रेस के कुछ बड़े नेता, मंत्री टीवी चैनलों की बढ़ती संख्या और उपभोक्ता अधिकार के बहाने संपूर्ण इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को कड़े कानून में बांधना चाहते थे. इस विधेयक में भारत के सभी सरकारी, स्वायत्त और निजी रेडियो टीवी चैनल के प्रसारण के विषय, लिखी-बोली या दिखाई जाने वाली सामग्री तक पर सरकार की निगरानी का प्रावधान था.

मेरी और मुझसे वरिष्ठ संपादक बीजी वर्गीज, कुलदीप नायर, मामन मैथ्यू  सहित पत्रकारों की नजर में यह प्रस्तावित कानून एक मायने में आपातकाल की सेंसरशिप से भी अधिक खतरनाक था. इससे पहले प्रिंट माध्यम के लिए बिहार में लाया गया कानून या राजीव गांधी के सत्ता काल में आये प्रेस कानून का एडिटर्स गिल्ड तथा पत्रकार संगठनों और प्रतिपक्ष ने भी विरोध किया था. इसलिए मनमोहन सिंह की सरकार के प्रस्तावित विधेयक को कानूनी रूप मिलने से पहले हम सबने कड़ा विरोध अभियान शुरू कर दिया.  गिल्ड के पदाधिकारी के नाते मंत्रियों, सूचना प्रसारण मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारियों, प्रधानमंत्री के सूचना सलाहकार (पूर्व पत्रकार भी) आदि के साथ बैठकें हुईं. इस कारण सरकार कुछ संशोधन इत्यादि पर विचार करने लगी. संयोग से तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी अस्वस्थ हो गए. इस कारण भी विधेयक रास्ते में अटक गया. फिर भी आशंका से चिंतित सम्पादकों ने वार्ताओं का सिलसिला जारी रखा. यहां इस का बात भी उल्लेख करना उचित होगा कि पहले गिल्ड केवल उन सम्पादकों कि संस्था बनी थी , जो अखबार या पत्रिका में प्रकाशन के संपूर्ण संपादक हों.

विधेयक सरकार के ठंडे बस्ते में
मीडिया का विस्तार होने पर हमने टीवी समाचार चैनल के प्रमुख सम्पादकों को भी सदस्य बनाया. सदस्यता के लिए भी वरिष्ठ सम्पादकों की चयन समिति रही, ताकि निर्धारित मानदंडों वाले ही सदस्य बने. इस नए संकट में हमने एडिटर्स गिल्ड की तरफ से यह सुझाव दिया कि समाचार चैनल के सम्पादकों का एक सहयोगी संगठन स्वयं अपनी आचार संहिता तय कर लेगा और इसके लिए किसी सेवा निवृत्त वरिष्ठ न्यायाधीश को भी मार्गदर्शन के लिए रखा जाएगा. फिर सुप्रीम कोर्ट के पूर्व प्रमुख न्यायाधीश जे एस वर्मा जी को यह दायित्व सौंपा गया. इस तरह महीनों के कड़े विरोध, बातचीत और प्रस्तावों से वह विधेयक सरकार ने ठंडे बस्ते में रख दिया. एडिटर्स गिल्ड में हरि जयसिंह के अध्यक्ष और मेरे महासचिव के कार्यकाल में सम्पादकों के लिए एक आचार संहिता बनाई गई और राष्ट्रपति डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम ने स्वयं इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के एक छोटे सभाकक्ष में आकर उसे जारी किया था. इसी तर्ज पर 2007 से टीवी सम्पादकों और खासकर प्रसारण के लिए अपने नियम आचार संहिता बनाई गई. मेरे जैसे कितने ही संपादक और पत्रकार, विधिवेत्ता, सांसद समय-समय पर संवैधानिक मान्यता प्राप्त भारतीय प्रेस परिषद् के सदस्य भी रहे हैं. पूर्व वरिष्ठ न्यायाधीश उसके अध्यक्ष रहते हैं. 

आत्म अनुशासन या सरकारी लगाम?
प्रेस परिषद् ने भी बहुत नियम आचार संहिता बनाई. लेकिन कानूनी रूप से उसका दायरा अब तक प्रिंट मीडिया तक सीमित रहा है. परिषद् या संपादकों की आचार संहिताओं में किसी सजा का प्रावधान नहीं है. मतलब इसे अपने जीवन मूल्यों की तरह स्वयं अपनाए जाने की अपेक्षा की जाती है. इस पृष्ठभूमि में आज भी सवाल यह है कि प्रकाशन या प्रसारण की सामग्री और प्राथमिकता कौन तय करे? अपराध कथा को प्रथमिकता मिले या राजनीति या आर्थिक या मनोरंजक या व्यापारिक, फिल्मी, क्रिकेट या कबड्डी, ऐसे हजारों विषय समाज में और दुनिया में हैं. कौन कितनी देर क्या दिखाए या बोले, कौन तय करेगा. इन दिनों महा प्रगतिशील वर्ग तो पहले ही मीडिया को बिका हुआ, डरा हुआ कहकर बदनाम किए हुए है. अभी तो संसद में भी यह मुद्दा उठ सकता है. हम सब शुचिता के साथ स्वतंत्रता को आवश्यक मानते हैं. लेकिन एक दूसरे को नीचे दिखाकर भर्त्सना के साथ क्या क्रोध या रुदन के बाद सरकार को प्रसारण नियामक कानून बनवाने के लिए निमंत्रित करना चाहेंगे?

सरकार किसी भी पार्टी की हो, प्रतिपक्ष का एक खेमा तो प्रसन्न ही होगा. सत्ता तो आती-जाती रहती है. कानून तो हमेशा रहेगा. वैसे भी भारत के पुराने प्रेस कानून में संशोधन के एक प्रस्ताव पर विचार विमर्श जारी है. प्रसारण और सोशल मीडिया पर आवाज उठने से सरकार को कहां कोई नुकसान होगा. हां, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आवाज उठाने वाले ही घायल होंगे और सामान्य नागरिक भी अप्रत्यक्ष रूप से सरकार द्वारा बनाई जा सकने वाली नियामक व्यवस्था से चुनी गई सामग्री ग्रहण कर सकेंगे. आपसी लड़ाई के दौरान सबको भविष्य को ध्यान में रखकर स्वयं तय करना होगा - आत्म अनुशासन या सरकारी लगाम?

लेखक: आलोक मेहता वरिष्ठ पत्रकार हैं.

(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं.) 

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