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'असहिष्णुता' को लेकर बढ़ते विरोध और पुरस्कारों को लौटाए जाने को लेकर इन दिनों पूरे देश में घमासान मचा हुआ है। देश में बढ़ती कथित असहिष्णुता के खिलाफ साहित्यकारों, कलाकारों, फिल्मी हस्तियों और वैज्ञानिकों के बाद अब नामचीन इतिहासकारों ने मोर्चा खोल दिया। लेखक, कलाकार, फिल्म निर्माता, वैज्ञानिक और इतिहासकार अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ आवाज उठाने लगे हैं। दरअसल, देश में बढ़ती असहिष्णुता और नागरिक अधिकारों के दमन का आरोप लगाते हुए राष्ट्रीय व साहित्य अकादमी के पुरस्कारों को लौटाने का सिलसिला चल पड़ा। एक ओर जहां, कुछ लोग पुरस्कार लौटाने को सही ठहरा रहे हैं तो कुछ इसके पीछे राजनीति देख रहे हैं। इस बात को लेकर आज तकरीबन हर मंच पर बहस का दौर जारी है, चाहे वो राजनीतिक हो या गैर राजनीतिक। देश हित में इस तरह की प्रवृत्ति पर निश्चित ही लगाम लगना चाहिए, अन्यथा इसका असर देश की एकता और सामाजिक ताने-बाने पर पड़ेगा।
सवाल ये भी उठ रहा है कि कथित तौर पर 'बढ़ती असहिष्णुता' के आरोप के साथ वैज्ञानिकों और लेखकों के अपने पुरस्कारों को लौटाने का कदम क्या सिर्फ 'दिखावा' है। क्या उनका यह विरोध मोदी सरकार के खिलाफ है। क्या इसके पीछे कोई राजनीतिक साजिश है? क्या यह मोदी सरकार पर दबाव बनाने की नई चाल है? ऐसे कई सवाल हैं, जिसको लेकर देश के राजनीतिक दलों के बीच आरोपों प्रत्यारोपों का सिलसिला तेज हो गया है। केंद्र सरकार के मंत्री इसे अपने बयानों में विरोध की साजिश बता रहे हैं तो वहीं कुछ विपक्षी दल के नेता हाल की घटनाओं को बीजेपी से जोड़ रहे हैं और इसके लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।
दरअसल, कुछ दिनों पहले साहित्यकारों की ओर से अकादमी पुरस्कार लौटाने की घोषणा के बाद विरोध के सुर तेज हो गए। बाद में फिल्मकार नेशनल अवॉर्ड लौटाने लगे। फिर वैज्ञानिक और इतिहासकार भी विरोध पर उतर आए। इन सबके बीच, अब कहा ये जा रहा है कि बुद्धिजीवियों को उन तमाम घटनाओं पर ऐतराज है जो समाज में बढ़ती असहिष्णुता को दर्शाती है। वे इस बात को लेकर फिक्रमंद हैं कि ऐसे तत्वों को रोकने की कोई कोशिश नजर नहीं आती। उनका इशारा साफ तौर पर मोदी सरकार की तरफ है। दूसरी ओर, एनडीए सरकार और बीजेपी का मानना है कि ये बुद्धिजीवी दूसरे राजनीतिक दलों के मोहरे हैं और ये विपक्ष की चाल है।
बीते दिनों देश में 'असहिष्णुता' के खिलाफ वैज्ञानिकों के एक समूह की ओर से राष्ट्रपति को प्रतिवेदन देने के पश्चात और कई वैज्ञानिक उनके विरोध में शामिल हो गए। जिस तरह से विज्ञान एवं तर्क का क्षरण किया जा रहा, उस बात पर उस वैज्ञानिकों ने चिंता जताई। ‘असहिष्णुता के माहौल’ के खिलाफ बढ़ते विरोध से यह साफ है कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है और यह सिलसिला नहीं थमा तो भविष्य में इसके भयावह परिणाम सामने आ सकते हैं।
हाल के दिनों में देश के अंदर घटित कुछ घटनाओं को लेकर मोदी सरकार को जमकर निशाने पर लिया गया। दादरी में मोहम्मद अखलाक सैफी को पीट पीटकर हत्या, फरीदाबाद दलित कांड, प्रो. कलबुर्गी, डा. नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पनसारे की हत्या आदि घटनाओं को लेकर विरोध तेज हो गया। महाराष्ट्र में गुलाम अली का कार्यक्रम रद्द होना, सुधींद्र कुलकर्णी के चेहरे पर कालिख पोतने की घटना के बाद इसकी काफी खिलाफत की गई और मोदी सरकार को निशाने पर लिया गया। समाज के कई तबकों ने भी हालिया घटनाक्रमों पर गंभीर चिंता जताई। ‘असहिष्णुता के इसी माहौल और तर्क की अस्वीकृति के कारण’ इतिहासकार, फिल्मकार, लेखक आदि अपना विरोध जता रहे हैं।
वहीं, केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इसके जवाब में कहा कि अवॉर्ड लौटाने वालों का विरोध बनावटी है और ये बीजेपी विरोधी हैं। एनडीए सरकार के कई मंत्रियों ने अपने बयान में कहा था कि पुरस्कार वापस करना महज एक ढोंग है। गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने लेखकों और कुछ प्रमुख व्यक्तियों को मिले पद्म एवं साहित्य अकादमी पुरस्कारों को लौटाने की घटना को राजनीतिक षड्यंत्र बताया। उन्होंने सवाल उठाया कि पुरस्कार वापस लौटाने वाले कलाकार, साहित्यकार और वैज्ञानिक तब क्या कर रहे थे जब कांग्रेस के राज में सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे। देश में अब 'असहिष्णुता' कैसे बढ़ रही है जबकि मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद देश में कही भी कोई बड़ी सांप्रदायिक तनाव नहीं हुआ। विरोध में तर्क दिया जा रहा है कि जो घटनाएं पिछले दिनों हुई हैं, वह गंभीर हैं लेकिन मसला कानून व्यवस्था से जुड़ा है। उसे केंद्र सरकार का शह प्राप्त नहीं है, लेकिन मामले को बड़ा बनाकर पेश किया जा रहा। वहीं, सरकार के कुछ अहम ओहदेदारों के बयानों ने इस विरोध के स्वर को और तेज होने का मौका दे दिया। जबकि होना यह चाहिए कि अतर्कसंगत और कट्टरपंथी सोच को बढ़ावा देने से रोका जाना चाहिए। भारतीय सभ्यता वाकई एक बहुलवाद है, जिसमें कई पद्धतियां और समुदाय हैं। जो एक-दूसरे को स्थान प्रदान करता है एवं सभी धर्मावलंबियों के त्यौहार एवं अन्य चीजों का सम्मान होता हैं। देश में तर्क एवं वैज्ञानिक प्रवृति पर हो रहे हमले के खिलाफ आवाज उठना स्वाभाविक है, लेकिन इसे देशहित में ज्यादा बढ़ावा नहीं देना चाहिए।
कई लेखकों ने विरोध में अपने पुरस्कार लौटाए, ऐसे में उन स्थितियों के बारे में सही मायनों में कोई टिप्पणी नहीं की जा रही जिनके चलते विरोध की नौबत आई। सरकार के एक अहम मंत्री ने इसे कागजी क्रांति तक करार दे दिया। बुद्धिजीवी अब इस बात का हवाला दे रहे हैं कि विरोध करने पर उन्हें भी चुप करा दिया जाएगा। इन सबके बीच, देश के अंदर ‘मौजूदा माहौल’ से उत्पन्न चिंताओं पर सरकार की तरफ से जरूर ठोस पहल की जानी चाहिए और आश्वासनकारी बयान आना चाहिए ताकि जारी विरोध पर रोक लग सके।