कांग्रेस-भाजपा के लिए आत्ममंथन का संदेश देता गुजरात विधानसभा चुनाव परिणाम
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कांग्रेस-भाजपा के लिए आत्ममंथन का संदेश देता गुजरात विधानसभा चुनाव परिणाम

कांग्रेस को यह समझना पड़ेगा कि केवल गांधी-नेहरू परिवार की विरासत के दम पर राहुल गांधी 21वीं सदी के भारत, विशेषकर युवाओं को कांग्रेस पार्टी की तरफ आकर्षित नहीं कर पाएंगे. 

कांग्रेस-भाजपा के लिए आत्ममंथन का संदेश देता गुजरात विधानसभा चुनाव परिणाम

गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजे न तो गुजरात की जनता के लिए चौंकाने वाले हैं और न ही उनके लिए जो गुजरात की ज़मीनी हक़ीक़त से वाकिफ हैं. अगर यह नतीजे किसी के लिए चौंकाने वाले हैं भी तो उनके लिए जो दिल्ली-छाप मीडिया की "सूत्रों" के हवाले से लाई गई तथाकथित "माहौल" वाली सभी खबरों को सच मान लेते है और उस पर अंधविश्वास करने लगते हैं. किसी भी पत्रकार की विचारधारा होना लोकतंत्र में कोई ग़लत बात नहीं है, लेकिन जब विचारधारा आपके लेखन को इतना कुंठित कर दे कि आप ज़मीनी स्तर की सच्चाई को भी देखने से इंकार दें तो यह अनैतिक पत्रकारिता से कम कुछ भी नहीं है. वैसे अंग्रेज़ी में इसको ऑस्ट्रिच सिंड्रोम भी कहते है. और यही ऑस्ट्रिच सिंड्रोम पहले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कुछ पत्रकारों के अंदर देखने को मिला और फिर गुजरात में. 

संघ-विरोधी विचारधारा रखने वाले पत्रकारों ने उत्तर प्रदेश में व्यापक मोदी-लहर महसूस करने के बावजूद भी अपने लेखन में इसको पूर्ण रूप से नकार दिया और कुछ तो अपने 'ड्राईवर' से बात करके बताने लगे कि भाजपा की कोई लहर है ही नहीं, लेकिन चुनावी नतीजों ने उन सभी पत्रकारों को पूरी तरह से बेनक़ाब करके रख दिया जो अपनी विचारधारा के कारण सच्चाई से दूर भाग रहे थे और जनता को गुमराह कर रहे थे और लगभग यही स्थिति गुजरात में भी देखने को मिली. जिस हिसाब से कुछ मीडिया घरानों ने राहुल गांधी और कांग्रेस के चुनाव अभियान को कवर किया उससे यह लगने लगा कि जैसे पूरे गुजरात में कांग्रेस के ही समर्थन का माहौल है और भाजपा का पूरी तरह पत्ता साफ़ होने वाला है, जबकि ऐसा था नहीं. पूरा चुनाव कांग्रेस सिर्फ मोदी-विरोध के नाम पर उधार के तीन युवा नेताओं (हार्दिक, अल्पेश, जिग्नेश) के दम पर लड़ रही थी, जिससे यह संदेश गया की कांग्रेस के पास न तो नेता है न नीति. पाटीदार नेता हार्दिक पटेल की पाटीदार आरक्षण की मांग वैसे भी सभी पटेलों को कांग्रेस के समर्थन में एकत्रित नहीं कर पाई, उल्टे अपने मौजूदा आरक्षण को बचाने के लिए पिछड़ी जातियों को भाजपा के पक्ष में लामबंद ज़रूर कर गई. राहुल गांधी का मंदिर पर्यटन और गुजरात के लिए 'शिवभक्त जनेऊधारी हिन्दू अवतार' शायद जनता को उतना रास नहीं आया, जितना कांग्रेस को उम्मीद थी और रही-सही कसर कांग्रेस के बड़े नेता और गांधी परिवार के करीबी माने जाने वाले पूर्व मंत्री मणिशंकर अय्यर ने अपने बयान से पूरी कर दी, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री को 'नीच आदमी' कहकर 2014 में मोदी को 'चायवाला' कहने वाली अपनी गलती फिर दोहरा दी. 

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कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या है कि गांधी परिवार उसके लिए आज के समय में अस्तित्व का प्रतीक भी है और माथे की शिकन भी. वंशवाद से ग्रसित कांग्रेस पार्टी चाहकर भी गांधी परिवार के बाहर किसी और को पार्टी अध्यक्ष नहीं बना सकती फिर चाहे उसके अंदर नेतृत्व की क्षमता हो या न हो. राहुल गांधी के नेतृत्व में अभी तक कांग्रेस को 18 से अधिक राज्यों में हार का सामना करना पड़ चुका है, लेकिन किसी भी कांग्रेसी नेता ने उनके नेतृत्व क्षमता के ऊपर प्रश्न उठाने का साहस नहीं दिखाया है. कांग्रेस को यह समझना पड़ेगा कि केवल गांधी-नेहरू परिवार की विरासत के दम पर राहुल गांधी 21वीं सदी के भारत, विशेषकर युवाओं को कांग्रेस पार्टी की तरफ आकर्षित नहीं कर पाएंगे. जो कांग्रेस नतीजों के शुरुआती रुझानों में आगे चलने के कारण संतुष्ट थी, जैसे-जैसे नतीजे भाजपा के पक्ष में आने लगे तो वो ईवीएम को दोष देने लगी और यहां तक कि चुनाव आयोग के ऊपर भी उंगलियां उठाने लगी. इससे एक बार फिर साबित होता है कि कांग्रेस अपने अंदर सुधार लाने की बजाय बहानेबाजी के सरल मार्ग को अपनाना चाहती है. गुजरात में राहुल गांधी जिस ‘विकास पागल हो गया है’ के नारे के साथ भाजपा को घेरना चाहते थे, मोदी ने उसी नारे को ‘मैं गुजरात हूं, मै विकास हूं’ में तब्दील करके एक बार फिर जनता से सीधे संवाद स्थापित किया, जिससे यह पता चलता है कि गुजरात की जनता मोदी द्वारा किए गए विकास कार्यों से प्रभावित है और काफी हद तक संतुष्ट भी.

वैसे पांचवीं बार सत्ता में काबिज होने पर भी भाजपा के लिए कई सवाल खड़े हैं, जिनको लेकर पार्टी को जल्द ही मंथन करना पड़ेगा. भाजपा के लिए सबसे बड़ा मुद्दा है कि गुजरात जैसे राज्य में भी प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता के दम पर चुनाव जीतना क्या यह नहीं दर्शाता कि जनता स्थानीय नेतृत्व से संतुष्ट नहीं है और मौका मिलने पर उसको बदल भी सकती है? दूसरा यह कि भले ही चुनाव भाजपा ने जीत लिया हो, लेकिन आने वाले समय में उसको कई राज्यों में सामाजिक रूप से प्रबल जातियों (जाठ, मराठा, पाटीदार आदि) के गुस्से का सामना करना पड़ सकता है, जिसका फायदा उसके विरोधी उठा सकते हैं. गुजरात में सौराष्ट्र और कच्छ जैसे ग्रामीण बाहुल्य क्षेत्रों में कांग्रेस की सीटों का बढ़ना और भाजपा की सीटों का कम होना यह दर्शाता है कि या तो ग्रामीण क्षेत्रों में भाजपा सरकार की नीतियों का लाभ किसानों तक नहीं पहुंच पा रहा है या फिर नीतियों में ही कोई मूलभूत समस्या है, जिसका समाधान उसको तुरंत निकलना पड़ेगा, क्योंकि आने वाले समय में मध्यप्रदेश, राजस्थान, और छत्तीसगढ़ में चुनाव होना है, जहां पर ग्रामीण क्षेत्रों से ही हार और जीत का निर्णय होता है.

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वैसे यह चुनाव कांग्रेस के लिए भी कोई विशेष हर्ष नहीं लेकर आया, जैसा कि कांग्रेस समर्थक और नेता मानकर चल रहे हैं. नोटबंदी, GST जैसी तथाकथित व्यवधानिक नीतियों के बावजूद व्यापारी वर्ग ने भाजपा को वोट दिया और राहुल गांधी के GST को 'गब्बर सिंह टैक्स' बताने के बावजूद कांग्रेस का समर्थन नहीं किया, जिससे यह तो साफ़ हो गया कि पार्टी हित में देशहित के निर्णयों का विरोध कांग्रेस को भारी पड़ सकता है. 22 साल राज करने के बाद भी एंटी-इन्कमबेंसी (सत्ता-विरोधी लहर) को पछाड़कर भाजपा का फिर से सत्ता में वापस आना यह भी दर्शाता है कि लोग आज भी कांग्रेस के ऊपर विश्वास करने को तैयार नहीं है और पार्टी को लोगों का विश्वास जीतने के लिए अभी और व्यापक प्रयास करने होंगे. हार्दिक, अल्पेश और जिग्नेश के रूप में जातिगत राजनीति के कार्ड को खेलने से कांग्रेस को कोई विशेष फायदा नहीं हुआ, क्‍योंकि 2012 के मुकाबले इस चुनाव में भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़ा है यानि जनता अब पुराने ढर्रे की जातिगत राजनीति को स्वीकार नहीं करने वाली है. 

भले ही इस चुनाव में कांग्रेस की सीटें बढ़ी हो, लेकिन शक्ति सिंह गोहिल, अर्जुन मोढवाडिया सरीखे दिग्गज नेताओं को हार का सामना पड़ा है, यानि गुजरात कांग्रेस में अभी भी मज़बूत संगठन और कद्दावर नेताओं की भारी कमी है. कुल मिलाकर यह चुनाव दोनों पार्टियों के लिए आत्ममंथन का संदेश देकर गया है और यह भी जता गया है कि 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव को लेकर न तो भाजपा अपनी जीत को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त हो सकती है और न ही कांग्रेस.

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में शोधार्थी हैं.)

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