हिन्दी दिवस विशेष: राष्ट्र भाषा पर सरकारी शिकंजे से मुक्ति का सवाल
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हिन्दी दिवस विशेष: राष्ट्र भाषा पर सरकारी शिकंजे से मुक्ति का सवाल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मन की बात के अलावा भी भारत के सार्वजनिक कार्यक्रमों में हिन्दी में भाषण देते हैं, बातचीत करते हैं, हिन्दीतर भाषी राज्यों में भारतीय भाषा के कुछ वाक्यों के बाद किसी सहयोगी से स्थानीय भाषा में अनुवाद की व्यवस्था भी करवा देते हैं.

हिन्दी दिवस विशेष: राष्ट्र भाषा पर सरकारी शिकंजे से मुक्ति का सवाल

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी क्या अप्रसन्न होंगे? बात उनकी सरकार और व्यवस्था की है. हां उनके वरिष्ठ सहयोगियों के पास यह जानकारी नहीं होने से कुछ नाराजगी होगी. फिर भी पूरा विश्वास है कि किसी भी माध्यम से उन्हें इस तथ्य की जानकारी मिलने पर वे चिंता के साथ बदलाव के लिए कोई उपयुक्त निर्देश दे सकते हैं. उन्होंने अपने सत्ता काल में कई क्रांतिकारी कदम उठाए हैं. फिर यह तो छोटा सा सुधार है. यह भारत माता की राष्ट्र भाषा की प्रतिष्ठा और उसकी मान्यता से जुड़ा कार्य है. यही नहीं, इससे उनकी और सरकार की योजनाओं , कार्यक्रमों और बातों को करोड़ों हिंदी भाषियों तक सही रूप में पहुंचाने में सहायता मिलेगी. यदि सरकार में बैठे कोई मंत्री, पार्टी के नेता और खासकर अफसर नाराज हों तो मुझे कोपभाजन बनने की चिंता नहीं है.

भारत में हिन्दी की भूमिका
आज तो अवसर भी है- सरकार के वर्षों से चलाए जा रहे हिन्दी दिवस (14 सितंबर )-हिन्दी सप्ताह-हिन्दी पखवाड़े का. कोविड काल में अधिक सार्वजनिक कार्यक्रम भी नहीं होंगे, विज्ञापन, बोर्ड, बैनर, यात्रा और खान-पान आदि के सरकारी खर्च भी शायद कम होंगे. लेकिन डिजिटल युग में एक बार फिर हिन्दी के गौरव, संस्कृति, विश्व व्यापी प्रसार पर बोला-लिखा-पढ़ा जाएगा. इसलिए पहले थोड़ी कड़वी बात कर लेते हैं और ऐसा नहीं है कि इस 'महामारी काल के एकांतवास' दौर के कारण मैं सरकारी तंत्र पर अपनी भड़ास निकाल रहा हूं. सरकार और पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि संवाददाता और संपादक रहते पिछले करीब तीस-पैंतीस वर्षों से समय-समय पर खुद या अपने सहयोगी के माध्यम से यह मुद्दा उठाता रहा हूं. आप इस लंबी भूमिका के लिए क्षमा करें क्योंकि यह केवल मेरा निजी नहीं बल्कि हिन्दी भाषा से जुड़े अनेकानेक लोगों का दर्द है.

आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारत के सबसे बड़े सूचना तंत्र- आकाशवाणी से करोड़ों लोगों तक पहुंचने वाले अधिकतम (बचाव के के लिए 99 प्रतिशत समझ लें) समाचार पहले अंग्रेजी में तैयार होते हैं और फिर हिन्दी में अनुवाद के बाद प्रसारित होते हैं. प्रधानमंत्री के भाषण ही नहीं, मन की बात की खबर भी पहले अंग्रेजी में बनती है और फिर उसका अनुवाद हिन्दी समाचार उद्घोषक को थमाया जाता है. यह तो दुनिया जानती है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी केवल अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आवश्यक होने पर ही अंग्रेजी में बोलते हैं. मन की बात के अलावा भी भारत के सार्वजनिक कार्यक्रमों में हिन्दी में भाषण देते हैं, बातचीत करते हैं, हिन्दीतर भाषी राज्यों में भारतीय भाषा के कुछ वाक्यों के बाद किसी सहयोगी से स्थानीय भाषा में अनुवाद की व्यवस्था करवा देते हैं.
|फिर भी ऐसा सरकारी शिकंजा क्यों है कि उनकी बात खबर के रूप में अंग्रेजी से अनुवाद के बाद जनता जनार्दन तक पहुंचाई जाए?

आकाशवाणी में हिन्दी का महत्व
यह भी माना जा सकता है कि आकाशवाणी अच्छे योग्य अनुवादक से भी यह काम करवाते हों. मुझे पूर्णकालिक अथवा दैनिक भुगतान पर काम करने वालों को कोई नुकसान पहुंचाने की भी इच्छा नहीं है. फिर सूचना प्रसारण मंत्री यह भी कह सकते हैं कि आकाशवाणी-दूरदर्शन स्वायत्त प्रसार भारती के अंतर्गत है. मेरा निवेदन है कि संसद में उत्तर तो आपको या प्रधानमंत्री को ही देना होता है. प्रसार भारती का खर्च सरकार और संसद से स्वीकृत होता है. फिर हिन्दी में कही गई बात को मूल रूप में पहुंचाने पर कोई हस्तक्षेप कैसे कहेगा? समस्या यह है कि आकाशवाणी में भी शीर्ष पद पर कई आई.ए.एस. अधिकारी आते रहे हैं और उन्हें अपनी सुविधा के लिए अंग्रेजी जरूरी लगती है. आकाशवाणी में अथवा ऐसे किसी भी संस्थान में सूचना समाचारों के आदान-प्रदान के लिए व्यवस्था रहती है. आकाशवाणी के समाचार विभाग में इसे "समाचार पूल" कहा जाता है. दशकों से इसमें अंग्रेजी का वर्चस्व रहा क्योंकि हिन्दी के साथ अन्य भाषाओं में भी अनुवाद होते हैं. हम जैसे पत्रकारों के लिखने या आकाशवाणी में भी रहे कई श्रेष्ठ हिन्दी भाषी लोगों के आग्रह पर 1993 के आस-पास अलग से "हिन्दी समाचार पूल" भी बना ताकि अंग्रेजी से अधिक मूल भाषा में काम हो. रिकॉर्ड में कहने को यह आज भी है लेकिन व्यवहार में दूसरे दर्जे वाली स्थिति है. 2014 से पहले मनमोहन राज में तो बेचारी हिन्दी की कोई परवाह नहीं हो पाई. उन्हें कभी-कभार मजबूरी में हिन्दी का भाषण उर्दू या गुरुमुखी लिपि में लिखवाकर पढ़ना पड़ता था. उनके सत्ता काल में मैंने एक वरिष्ठ संवाददाता से आकाशवाणी की इसी व्यवस्था पर पूरी छानबीन के बाद रिपोर्ट बनवाकर छापी.

किसी हिन्दी प्रेमी की लिखा-पढ़ी पर मंत्रालय से आकाशवाणी तक फाइल चली और महीनों बाद इस उत्तर के साथ बंद कर दी गई कि खबर अपुष्ट होगी. ऐसा कुछ नहीं है. अब इस पर कोई सीबीआई जांच की मांग तो करने से रहा. अब भाजपा की सरकार का दूसरा कार्यकाल आ गया और नई शिक्षा नीति में हिन्दी और भारतीय भाषाओं के महत्व को प्राथमिकता मिलने से हमें खुशी हुई है. इसलिए मुझे प्रसारण क्षेत्र की ताजा स्थिति पता करने की इच्छा हुई. तो पता चला 73 साल में यह डिब्बा वहीं अटका हुआ है. यह भी याद दिलाना ठीक होगा कि भारत के इसी प्रसारण तंत्र से अज्ञेय, मनोहर श्याम जोशी सहित दिग्गज साहित्यकार, कवि जुड़े रहे हैं. उनका हिन्दी-अंग्रेजी, दोनों पर अधिकार था और उनके मूल रूप में लिखे पर कोई अधिकारी उंगली नहीं उठा सकता था.

भाषण के लिए अंग्रेजी पर निर्भरता
बहरहाल अब पराकाष्ठा यह है कि महत्वपूर्ण अवसरों पर देश-विदेश में दिए गए भाषण के समाचार के लिए अंग्रेजी पर निर्भरता है. अकेले आकाशवाणी की ही नहीं, कई मंत्रालयों और सार्वजनिक संस्थानों में भी यही व्यवस्था है. आप कह सकते हैं कि निजी समाचार संस्थानों में भी ऐसा रहा है या आज भी होगा. लेकिन राष्ट्र भाषा के लिए सरकारी तंत्र में सुधार की बात क्यों नहीं सोची जाती है. अनुवाद का आलम यह है कि सरकार द्वारा संसद में प्रस्तुत बजट की हिन्दी प्रति उपलब्ध करना अनिवार्य है. गोपनीयता के कारण हिन्दी की प्रति बजट भाषण के बाद दी जाती है. यदि किसी महानतम हिन्दी संपादक, पत्रकार, लेखक को केवल हिन्दी की प्रति देकर खबर और टिप्पणी लिखने को दे दी जाए तो वह पसीने-पसीने हो जाएगा क्योंकि अनुवाद की जटिलता में वह समझ ही नहीं सकेगा. अब भी सरकारी तंत्र में आर्थिक विषयों के हिन्दी समाचार में हर पंक्ति के लिए हिन्दी के ही शब्द कोष से अर्थ समझाना होगा. इसीलिए आकाशवाणी हो या अखबार, पत्रिका या टीवी चैनल, साथ में अंग्रेजी की प्रति रखकर सरल भाषा में जनता तक पहुंचाने का प्रयास होता है. भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय में भी लगभग यही स्थिति वर्षों से है.

एक समय था, जब संवाददाता किसी सूचना अधिकारी या प्रमुख अधिकारी से संपर्क कर भाषण की प्रति मांग लेते थे. डिजिटल युग में तो सूचना केंद्र के सबसे निचले स्तर के बाबु साहब या साहिबा किसी संवाददाता या संपादक के फोन पर भी सीधा जवाब देते हैं - आपको वेबसाइट देखना नहीं आता हो तो कहीं से सीखिए. वहां जो सामग्री हो, उसको ले लीजिए. इतना बड़ा तमाचा उस दफ्तर में हमें आपात काल में भी नहीं लगा. इसलिए वहां शिकायत कौन सुनेगा? कोरोना काल नहीं, यह पिछले वर्षों के अनुभव हैं. मोदी राज में संयुक्त राष्ट्र संगठन में कम से कम संक्षिप्त सूचनाएं हिन्दी अनुदित मिलने का इंतजाम हो गया. भारत में यूरोप, अमेरिका, जापान जैसे देश या उनकी कम्पनियां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आने के बाद हिन्दी में सामग्री देने के प्रयास करने लगी हैं. लेकिन भारत सरकार के अफसर और बाबु आज भी अंग्रेजी के चरणों में नत मस्तक है. आशा तो बनी रहनी चाहिए कि देर-सबेर देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या उनकी सरकार द्वारा मूलतः हिन्दी में कही गई बातें अंग्रेजी की जूठन बनाकर नहीं प्रसारित-प्रचारित की जाएगी. हिन्दी सप्ताह-पखवाड़ा बंद कर वर्ष का हर दिन हिन्दी और भारतीय भाषा का समझने की शुभकामनाएं.

लेखक: आलोक मेहता वरिष्ठ पत्रकार हैं.

(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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