पुनर्जागरण की बाट जोहता, एक ठिठका हुआ मुल्क
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पुनर्जागरण की बाट जोहता, एक ठिठका हुआ मुल्क

एकरसता मानवता द्वारा संचित संस्कृति और मूल्यों के वैविध्य को संरक्षित कर सके, इसके लिए उन देशों की जिम्मेदारी ज्यादा बड़ी है, जो सभ्यता के विकास में पिछली तीन सदियों में पीछे रहे गए. अब वे देश अपने आर्थिक विकास के लिए तेज गति से आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं.

पुनर्जागरण की बाट जोहता, एक ठिठका हुआ मुल्क

भारत की असली समस्या है, इसका बहुत पुराना होना. अब तो हरियाणा से लेकर राजस्थान-गुजरात तक भारत की लगभग समूची पश्चिमी भूमि पर हड़प्पाकालीन नगर-सभ्यता के जमींदोज़ भग्नावशेष खोज निकाले गए हैं. भरपूर पुरातात्विक प्रमाण सामने हैं. अगर भारत की धरती को स्कैन किया जा सकता, तो बहुत पुरातन एक देश निकल आता. पर यह तो जमीन के नीचे की बात हुई. बहुत पुरातन एक देश तो जमीन के ऊपर भी है. अगर भारत के करोड़ों लोगों के दिमागों की स्कैनिंग संभव हो तो उसकी लेजर फिल्मों में वह देश दिखाई देगा. जहां तक पुरातत्व की बात है, तो यह बेहतर स्थिति है कि खंडहर मिलें, जिनसे इतिहास की टूटी कड़ियां जुड़ सकें, परंतु दिमागों में भी यदि सदियों के खंडहर जाग रहे हों तो यह चिंता की बात है.

क्या पुराना है, क्या नया? क्या बचा रहना चाहिए, क्या नष्ट हो जाना चाहिए? इसका निर्णय इतना आसान नहीं होता -- खासकर उस सभ्यता के लिए जो नवीकरण की अपनी आंतरिक ऊर्जा से संघर्ष कर रही हो. यहां पहले मैं लिखना चाह रहा था कि जिसकी ‘नवीकरण की अपनी आंतरिक ऊर्जा खत्म हो चुकी हो!’ पर सहसा मेरे सामने भारत के करोड़ों लोग -- सतलज से गंगा और गोदावरी से ब्रह्मपुत्र तक के लाखों गांवों, हजारों शहरों, अगणित बस्तियों में जीवन-संघर्ष करते -- करोड़ों लोग एक तेज झलक में गुजर गए. बचपन में देखे वे चेहरे, वे बातें, देश की वे जुबानें, वे तमाम दृश्य जो इस देश का अंदरूनी यथार्थ बनाते हैं. निश्चित रूप से भारत का साधन-संपन्न वर्ग अपनी नवीकरण की समस्त ऊर्जा खो चुका है. वह इस व्यवस्था में से सिर्फ पा लेना चाहता है. धर्म की व्यवस्था, राजनीति की व्यवस्था, आर्थिक प्रणाली की व्यवस्था... सभी से कुछ हथिया लेना चाहता है. पर इस वर्ग के परे विशाल भारत है, जो अपने जीवन में बहुआयामी संघर्ष कर रहा है, क्या उसके इस जीवन-संघर्ष को एक सभ्यता के नवीकरण का कोई आयाम दिया जा सकता है?

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यही वह मूल प्रश्न है, जिससे भारत को आने वाले दशकों में सीधे टकराना पड़ेगा. यही वह मूल प्रश्न है, जिसे यह देश लगातार स्थगित करता आ रहा है. परंतु दुनिया की रफ्तार बहुत तेज है, बीते हर जमाने की तुलना में बहुत तेज. और दुनिया अब एक अर्थव्यवस्था, एक संचार-व्यवस्था, एक संस्कृति, एक इतिहास की ओर निरंतर तेजी से ही बढ़ेगी. यह एकरसता मानवता द्वारा संचित संस्कृति और मूल्यों के वैविध्य को संरक्षित कर सके, इसके लिए उन देशों की जिम्मेदारी ज्यादा बड़ी है, जो सभ्यता के विकास में पिछली तीन सदियों में पीछे रहे गए. अब वे देश अपने आर्थिक विकास के लिए तेज गति से आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं. यह ठीक भी है. पर इससे दो गहरे संकट पैदा हो चुके हैं --

1.  यह आर्थिक विकास मुख्यतः अमेरिकी नेतृत्व वाली पश्चिमी अर्थ-व्यवस्था द्वारा नियंत्रित-अनुकूलित है, जो भारत जैसे देशों में तेजी से समाज के बीस-तीस प्रतिशत लोगों को अतिसमृद्धि की ओर ले जा रहा है, तो शेष दूसरे हिस्से को जीने के संघर्ष में उलझा रहा है.

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2.  आर्थिक विकास के अलावा जीवन के वृहत्तर समस्त आयाम न सिर्फ उपेक्षित हो गए हैं, बल्कि उन्हें अनावश्यक भी मान लिया गया है.

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यह स्थिति अगर न बदली तो भीतरी दबावों से यह समाज फट पड़ेगा. यही वह बिंदु है जहां भारतीय समाज के नवीनीकरण की सर्वाधिक जरूरत है.

इस नवीकरण का मतलब क्या है? क्या यह मूल्यों के संकट से जुड़ी कोई बात है? बिल्कुल नहीं. क्योंकि भारतीय समाज व्यापक तौर पर जिन बातों को मूल्यों के रूप में जानता-जीता रहा है, वे उसकी बेड़ियां हैं. उसे अपनी इन बेड़ियों से निकलने के लिए पश्चिमी समाज द्वारा अर्जित आधुनिक मूल्यों को अपने मानस में, अपने वैयक्तिक संबंधों में और अपने सामाजिक ढांचे में समाहित करने का यत्न करना होगा. ध्यान रहे कि भारतीय संविधान की रचना के मूल में इन मूल्यों को समाहित करने का सूत्र ही है. पर यह संविधान सामाजिक अर्थों में विफल है, या अधिक से अधिक इतना ही सफल है, कि इस सफलता को नगण्य माना जा सके.

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अब तक अत्याधुनिक संविधान और पुराने मानस वाले व्यक्तियों का समाज अस्तित्व में था -- थोड़े-बहुत परस्पर द्वंद्व के साथ. पर अब जैसे-जैसे समय बीतेगा, यह टक्कर और बढ़ेगी. हमें इस संविधान के योग्य समाज बनना ही होगा अन्यथा एक राष्ट्र और समाज के रूप में विध्वंस हमारी प्रतीक्षा कर रहा है. यही वह बिंदु है, जहां हमें इस बात की शिनाख्त करनी पड़ेगी कि जिन मूल्यों को हम अपना गौरव समझते हैं, और जिनसे हमारे मानसिक संस्कार बनते हैं, वे हमारे अस्तित्व को व्यक्ति के रूप में सीमित करते हैं और समाज के रूप में उसके विकास का सबसे बड़ा अवरोध हैं. अगर परिभाषित करना ही हो तो ये मूल्य मोटे तौर पर एक कालबाह्य सामंती समाज के मूल्य हैं, जिनको पश्चिमी उपभोक्तावाद से मिलाकर जीने की एक प्रणाली भारत के साधनसंपन्न वर्ग ने अपने लिए बना ली है. इस साधनसंपन्न वर्ग के बाहर का देश इस स्थिति की वास्तविक त्रासदी को अपने जीवन में भुगतता है -- स्त्री-पुरुष संबंधों से लेकर रोजी-रोटी के संकट तक के प्रत्येक स्तर पर.

क्या भारत का नवीकरण संभव है? इस सवाल का जवाब कई छोटी-बड़ी बातों से जुड़ता है. भारत में युवाओं की बड़ी आबादी है, इसका कितना भी छोटा हिस्सा हो, जीवन के प्रति संजीदगी रखता है, परंतु उसे भटकाने वाली आदर्शवादी राजनीति के कई चेहरे देश में मौजूद हैं, जो कई दशकों से इस युवा-वर्ग को अपने सतही आदर्शवाद के घेरे में लेते हैं. कुछ अरसे बाद युवाओं का मोहभंग होता है, उनका जीवन नष्ट हो चुका होता है या वे उतनी ही तेजी से फिर अगर लौट सके तो उन रास्तों पर लौट जाते हैं, जहां सुविधासंपन्न जीवन की बिसात बिछी है. कुछ ही साल पहले आप की राजनीति इसी आदर्शवादी राजनीति का एक नई तरह का घनीभूत चेहरा थी. जीवन एक भौतिक यथार्थ है. आदर्श के जुमलों की पनाहगाह नहीं. भौतिक यथार्थ को संबोधित किए बिना आदर्शवाद की परिणाति पतन में ही होती है. भारत को अवसरवादी और आदर्शवादी राजनीति, दोनों का विकल्प चाहिए. उसे परिवर्तन के बहुत ठोस विचार चाहिए. जीवन को सचमुच बदल सकने वाली गतिकी चाहिए. यह छोटी सी बात पूरे भारत में बिजली की लहरें पैदा कर सकती है. करोड़ों युवाओं को दिशा दे सकती है. भारत बदल सकता है, रूपांतरित हो सकता है, उसका नवीकरण हो सकता है. यह प्रेरित युवावर्ग भारत के करोड़ों साधारण लोगों को नवनिर्माण की नई दिशा दे सकता है.

सारे राजनीतिक दल जो सत्ता में हैं और जो सत्ता में नहीं हैं, जो सत्ता में आने का सपना देख रहे हैं और वे भी जो सत्ता में आने का सपना देखने योग्य भी नहीं हैं, आदर्शवाद के धरातल से ही हमेशा जनता को संबोधन करते हैं, और अपने अपने दलों की सत्ता-संरचना को ही वे चरम मानते हैं. प्रत्येक दल की अंदरूनी सत्ता-संरचना निहित स्वार्थों, सामंती संस्कारों, नई पीढ़ी को आगे न आने देने, नेता के वर्चस्व आदि पर ही टिकी होती है. यह स्थिति समाज में एक गतिरोध, एक अवसाद, एक उत्साहहीनता, एक निराशा का विस्तार करती है. दाएं-बाएं के वर्तमान के समस्त राजनीतिक दलों को निरस्त करता प्रगतिशील आधुनिक मूल्यों पर टिका नागरिक उभार ही इस देश को नए भविष्य की ओर ले जा सकेगा. जाहिर है कि यह व्यवहार के धरातल पर इतनी सरल सी बात नहीं है. इसमें हजार जटिलताएं हैं. मगर रास्ता यही है. इसके अलावा दूसरा कोई रास्ता इतिहास ने भारत के लिए शेष नहीं छोड़ा है.

भारत के लोगों को यह बात भली-भांति समझ लेनी चाहिए कि आज से चार-पांच सदी पहले यूरोप में दो बड़ी घटनाएं घटी थीं, उसके बाद से पूरी दुनिया उन्हीं के प्रभावों की श्रृखला में है. उसके बाद से दुनिया पुरानी नहीं रह गई. सभ्यताएं और देश नए ढंग से परिभाषित होने लगे. जीवन का ढंग ही बदल गया. ये दो घटनाएं थीं -- 1. औद्योगिक क्रांति और उससे जन्मा पूंजीवाद 2. ज्ञान-विज्ञान-कला-विचार का महाजागरण, जिसे यूरोपीय पुनर्जागरण या रेनेसां कहा जाता है. इन दोनों घटनाओं ने मिल कर यूरोप को पूरी तरह से बदल दिया. पश्चिम की बर्बर असभ्य दुनिया विकास, प्रगति और आधुनिकता का पर्याय बन गई. और दुनिया उसके बाद से दो हिस्सों में बंटती चली गई -- पश्चिम के अमीर देश और पूरब के गरीब देश. सारे संसार पर पहली घटना पूंजीवाद का जबर्दस्त प्रभाव पड़ा. इसी के कारण एशिया और अफ्रीका के देश गुलाम हुए. उनका आर्थिक शोषण और चारित्रिक पतन हुआ. जबकि दूसरी घटना -- पुनर्जागरण ने इन गुलाम पिछड़े देशों में अधिक असर नहीं डाला.

आज के भारत की यही कहानी है. भारत का अधिकांश समाज पुरातन युग में है, क्योंकि उसका कोई पुनर्जागरण नहीं हो पाया - न स्वतःस्फूर्त, न पश्चिमी प्रभाव से. भारत के सशक्त, साधनसंपन्न, सुशिक्षित जनों का मानस भी परंपराग्रस्त और रूढ़िवादी है, फिर गरीब और अशिक्षित जनसमाज की बात ही क्या. परंतु आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था के क्षेत्र में भारत आधुनिक संसार में अपने को तलाशने में निरंतर लगा रहा है. यही वह मसला है जिसमें पूरा भारतीय समाज फंस कर रह गया है. इससे निकलने का उसके पास कोई मार्ग नहीं है. वह दो पाटों के बीच में पिसता हुआ समाज है. पश्चिमी ढांचे पर विकास और सामाजिक पिछड़ापन यह इस भारत का संपूर्ण सार है.

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भारत की सारी राजनीति इस विकास का लालच विराट जनसमुदाय में पैदा कर देने पर टिकी है. जबकि यह तय है कि इस विकास का छोटा-सा अंश भी करोड़ों भारतीयों तक नहीं पहुंच सकेगा. विडंबना यह कि इस राजनीति का चालक इंजन भारत का सामाजिक और मानसिक पिछड़ापन है. इसका दोहन ही राजनीति का मूल आधार है. ऐसी स्थिति में भारत कहां जाएगा? क्या सामाजिक पिछड़ेपन को दूर किए बिना वह प्रगति और विकास की कोई यात्रा शुरू भी कर सकेगा? और सबसे बड़ा सवाल यह कि भारतीय समाज का पुनर्जागरण यदि न हो पाया तो क्या यह समाज, यह देश विश्व-इतिहास की तेज गति में टिक भी पाएगा?

सोवियत संघ में क्रांति की विफलता और उसके विघटन को प्रायः बहुत सतही ढंग से देखा गया है और वैचारिक पूर्वाग्रहों से मत बना लिए गए हैं. थोड़ा गहरे में उतर कर पड़ताल की जाए तो उसका कारण बहुत स्पष्ट था. एक बड़ा देश भयानक आर्थिक पिछड़ेपन, साथ ही सामाजिक-मानसिक पिछड़ेपन में घिरा था. रूस के पश्चिमी छोटे से हिस्से के थोड़े से बौद्धिक-क्रांतिकारी वर्ग में वैचारिक जागृति आई. इस जागृति का विस्तार नहीं हुआ. क्रांति के बाद बरस-दर-बरस पुराने मानसिक पिछड़ेपन की जमीन पर बस समाजवादी नारे रोप दिए गए. समाज का कोई वास्तविक प्रबोधन नहीं हो सका. सारी समस्याओं से निपटने का रास्ता तेज आर्थिक विकास को मान लिया गया. दुनिया के किसी भी हिस्से की तुलना में और इतिहास के किसी भी उदाहरण की तुलना में रूस का आश्चर्यजनक गति से आर्थिक विकास किया गया. सामाजिक पिछड़ेपन और आर्थिक विकास के इस द्वंद्व ने रूसी समाज को भीतर से जर्जर कर दिया. बाकी काम उन सब कारणों ने किया ही जिनसे हम बहुत परिचित हैं. सार यह कि मानसिक और सामाजिक नवजागरण के बिना हुआ आर्थिक विकास सिर्फ और सिर्फ विध्वंस और पतन ही सुनिश्चित करेगा.

यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि सांस्कृतिक-विकास, आर्थिक-विकास, सामाजिक-विकास अलग-अलग बातें नहीं हैं. जीवन के सभी आयाम अविभाज्य रूप से परस्पर गुंथे हुए हैं. 19 वीं सदी में जब भारत में विदेशी गुलामी के खिलाफ चेतना आई तो उस चेतना ने अपना विस्तार किया था और सिर्फ राजनीतिक आजादी और आर्थिक आजादी तक खुद को सीमित नहीं रखा था. यही कारण है कि भारत ने आधुनिक होने की ओर अपना पहला कदम बढ़ाया, उसने यूरोपीय आधुनिकता के बरक्स अपनी आधुनिकता को परिभाषित करने की कोशिश की. भारत की आजादी की लड़ाई की यही मूल शक्ति थी. पर सारी कहानी आधी-अधूरी रह गई. भारत ठहर गया. और अब यह ठहराव प्रत्यावर्तन के पथ पर है. यह अपने मानसिक खोल में लौट जाना चाहता है, साथ ही आर्थिक रूप से महाशक्ति बनने का भी इसका दावा है. इस विडंबना को इतिहास अपनी परिणति तक पहुंचाए, उसके पहले भारतीय सभ्यता के नवीकरण का महाअभियान आरंभ होना ही होगा.

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