अक्सर जेपी, इंदिरा को भी कड़े शब्दों में बोलने से नहीं चूकते थे, कई बार उनके नेताओं के भ्रष्टाचार की खबरें मिलती थीं, तो सीधे इंदिरा के पास पहुंच जाते थे.
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जयप्रकाश नारायण इंदिरा गांधी के चाचा की तरह थे. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का ये महानायक, आजादी के बाद सक्रिय राजनीति से दूर हो गया था. लेकिन वह समय-समय पर नेताओं को भ्रष्टाचार से बचने के लिए सचेत करते रहते थे. जब इंदिरा गांधी ने सत्ता संभाली तो जेपी उनसे मिलने आए और उनको वो सारे खत सौंप दिए, जो उनकी मां ने अलग-अलग मौकों पर अपनी प्रिय सहेली और जेपी की पत्नी प्रभावती को लिखे थे. उन खतों में इंदिरा की मां कमला नेहरू के दिल का गुबार भरा हुआ था, वो सारा गुस्सा जो उन्हें इंदिरा के पिता पर आता था, वो सारी कसक जो अकेलेपन से उपजती थी, वो सारा दर्शन जो उनके दुख से उत्पन्न हुआ था, वो सभी उन पत्रों में था. जाहिर है वो नेहरूजी को नहीं सौंपे जा सकते थे, इसलिए जेपी ने इंदिरा को सौंपना ही बेहतर समझा था.
दूरियां बढ़ती चली गईं
अक्सर जेपी, इंदिरा को भी कड़े शब्दों में बोलने से नहीं चूकते थे, कई बार उनके नेताओं के भ्रष्टाचार की खबरें मिलती थीं, तो सीधे इंदिरा के पास पहुंच जाते थे, लेकिन उन्हें धीरे-धीरे लगने लगा कि इंदिरा उनकी बातों पर तवज्जो नहीं देतीं. एक दिन 1 अप्रैल 1974 को इंदिरा गांधी ने भुवनेश्वर में भाषण दिया कि जो बड़े पूंजीपतियों के पैसों पर पलते हैं, उनको भ्रष्टाचार पर बात करने का कोई हक नहीं है. जेपी को लगा कि ये उन पर निशाना साधा गया है. सो दोनों के बीच दूरियां बढ़ती चली गईं.
'मैंने देश के अलावा सोचा ही क्या है?'
ऐसे में जब गुजरात में नवनिर्माण आंदोलन हुआ तो आंदोलनकारियों ने जेपी को अपील की कि वो आएं और नेतृत्व करें. जेपी भी इंदिरा की तानाशाही और कांग्रेस में बढ़ते भ्रष्टाचार के चलते लोगों की मुश्किलों से वाकिफ थे, वो सहर्ष तैयार हो गए. 72 साल की उम्र में वो पटना के गांधी मैदान में लाठियां खा रहे थे. लालू, नीतीश, पासवान, सुशील मोदी जैसे छात्र नेता बिहार में उनके साथ हो लिए, सम्पूर्ण क्रांति का नारा दिया गया. ऐसे में इंदिरा ने एक बार जेपी को समझौते के लिए अपने निवास में बुलवाया, लेकिन इंदिरा चुप बैठी रहीं और सारी बात बाबू जगजीवन राम करते रहे. जेपी अवाक थे, इंदिरा उनसे हमेशा अकेले मिलती थीं. इंदिरा ने बहुत थोड़ा बोला और वही उनको चुभ गया. इंदिरा ने कहा, ‘जरा देश के बारे में भी सोचिए...’, हैरान जेपी ने बस इतना कहा, ‘इंदु... मैंने देश के अलावा सोचा ही क्या है?’ उनको लग गया कि अब मुकाबला आर पार का होगा. इसी मीटिंग में उन्होंने इंदिरा को उनकी मां के खत सौंपे थे.
इमरजेंसी का ऐलान
धीरे-धीरे उनके साथ तमाम कांग्रेस विरोधी दल और इंदिरा विरोधी कांग्रेस गुट के लोग भी आ गए, अटल, आडवाणी, जॉर्ड फर्नांडिस, सुब्रमण्यम स्वामी, चंद्रशेखर जैसे सभी विरोधी दलों के नेता थे और जेटली, मोदी जैसे उस वक्त के युवा नेता भी. 25 जून के दिल्ली के रामलीला मैदान की उनकी रैली कोई नहीं भूलता, लाखों की भीड़ थी, इंदिरा गांधी ने ऋषि कपूर की फिल्म ‘बॉबी’ दूरदर्शन पर चलवा दी ताकि भीड़ घर पर ही रुक जाए, फिर भी लोग रैली में पहुंचे. उस रैली में जेपी ने एक लाइन पुलिस और सेना के जवानों से भी बोली कि व्यवस्था के खिलाफ लड़ाई में साथ दें. इंदिरा को मौका मिल गया और रात में ही इमरजेंसी का ऐलान कर दिया और अपने भाषण में कहा कि – ‘एक व्यक्ति सेना को विद्रोह के लिए भड़का रहा है’.
जेपी भी रोए और इंदिरा भी रोईं
इमरजेंसी की कहानी तो सबको पता है, इमरजेंसी के बाद के चुनावों में इंदिरा गांधी हार जाती हैं. महानायक जेपी का सपना पूरा हो जाता है. जेपी को नेता बनाने वालों की तो बांछें खिल जाती हैं, एक बार फिर उसी शाम वहीं एक विजय रैली आयोजित की जाती है. कायदे से सभी नेताओं के साथ जेपी को भी वहीं होना चाहिए था, लेकिन वो नहीं जाते हैं. वो जाते हैं 1, सफदरजंग रोड यानी इंदिरा गांधी का घर, हार के बाद ये उनकी पहली रात थी, उस घर में.
इस मुलाकात की पूरी कहानी मशहूर पत्रकार प्रभास जोशी ने अपनी किताब ‘लुटियन के टीले का भूगोल’ में विस्तार से लिखी है कि कैसे इंदिरा गांधी उस वक्त अकेली थीं, उनके साथ बस एक सहयोगी थे, एच वाई शारदा प्रसाद, जबकि जेपी के साथ थे, गांधी शांति प्रतिष्ठान के मंत्री राधाकृष्ण और खुद प्रभास जोशी. जोशी लिखते हैं, ‘’अद्भुत था उनका मिलना, जेपी भी रोए और इंदिरा भी रोईं’’. वो लिखते हैं, जेपी उनके बिना पराजित नहीं हो सकते थे और उनको हराए बिना लोकतंत्र भी नहीं बचना था.
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चाचा वाले अवतार में जेपी
अब जेपी पूरी तरह से अपने चाचा वाले अवतार में थे, इंदिरा से आत्मीयता से पूछते हैं कि सत्ता के बाहर अब काम कैसे चलेगा? घर का खर्चा कैसे निकलेगा? इंदिरा गांधी ने जवाब दिया, 'घर का खर्चा तो निकल आएगा, पापू (इंदिरा नेहरूजी को यही बोलती थीं) की किताबों की रॉयल्टी आ जाती है. लेकिन मुझे डर है कि ये लोग मेरे साथ बदला निकालेंगे.'
जेपी के मन का मैल भी अब धुल चुका था. इंदिरा से उन्हें सुहानुभूति थी. फौरन शांति प्रतिष्ठान लौटकर रात में ही मोरारजी देसाई को एक पत्र लिखा कि इंदिरा के साथ बदले की कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए.
मोरारजी देसाई ने कोशिश भी की थी, लेकिन गृहमंत्री चौधरी चरण सिंह भरे बैठे थे, वो इंदिरा को जेल भेजकर ही माने थे. इधर, जेपी की भी तबीयत अचानक से खराब हो गई थी, उनको डायलिसिस पर जाना पड़ गया और फिर उसी हाल में वो अपनी मौत तक रहे और इंदिरा की कोई भी मदद नहीं कर पाए.