नीरज के गीतों ने प्यार सिखाया, तब मैं छोटी लड़की थी...
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नीरज के गीतों ने प्यार सिखाया, तब मैं छोटी लड़की थी...

नीरज की कविता का पाठ मैंने इस तरह किया कि उनका गीत आंखों में काजल की तरह बस गया और आंखों की सुन्दरता बढ़ गयी. हृदय में उतारा तो प्रेमपत्र लिखने वाले साथी के लिये प्यार का झरना फूट पड़ा.

नीरज के गीतों ने प्यार सिखाया, तब मैं छोटी लड़की थी...

तब मैं छोटी लड़की थी. ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ने वाली. अपनी मां के साथ ग्राम सेविका शिविर में गई थी जो सिकन्दरा नाम के गांव में आयोजित था. यह गांव जिला झांसी में आता है. मैं यहां से सात मील दूर मोंठ नामक क़स्बे में पढ़ती थी. शिविर के दौरान मेरे हाथ एक पत्रिका लगी- नवनीत विशेषांक. इसको पढ़ते हुये मैं जिस कविता पर ठहर गयी, वह अपने लिखित रूप में बड़ी आकर्षक लगी-

प्यार अगर पथ में न थामता उंगली इस बीमार उमर की
हर पीड़ा वेश्या बन जाती हर आंसू बंजारा होता...
निरवंशी रहता उजियारा गोद न भरती किसी किरन की
और ज़िन्दगी लगती जैसे डोली कोई बिना दुल्हन की
दुख से सब बस्ती कराहती लपटों में हर फूल झुलसता
करुणा ने जाकर नफ़रत का आंगन नहीं बुहारा होता

मैंने कई कई बार पढ़ा इस कविता को. कवि का नाम गोपाल दास नीरज. बान की नंगी खटिया पर बैठी मैं चौदह साल की लड़की प्रेम का ऐसा परिचय पा रही थी जिसके मुकाबले मुझे कोई सौग़ात नहीं दिखाई दी. यह उस माहौल के बीच घटित हुयी ख़ास परिघटना थी जो गोबर से लिपे दालान में चल रहे नाच और गीतों के बीच हस्तक्षेप कर रही थी. नहीं तो मेरे भीतर दबी छिपी कविता क्यों विकसित होने लगती? फिर तो लगन ऐसी लगी कि अख़बारों, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, त्रिपथगा में छपी कवितायें अपनी नोटबुक में उतार लेती या उनको पत्रिकाओं में से काटकर सहेज लेती.

किशोरावस्था के भी बड़े सरकश कारनामे होते हैं, कविता में लिप्त होने के ऐन मौक़े पर मुझसे एक क्लास आगे पढ़ने वाले विद्यार्थी का प्रेमपत्र उड़ता चला आया और मेरे हाथों मे आकर रुका. वह भी कविता के रूप में! एक तो प्यार का इज़हार दूसरा कविता के रूप में!! मेरे लिये इससे बढ़कर सम्मोहन क्या होता? मेरी मां जहां मुझे सरोजिनी नायडू या सुचेता कृपलानी बनाना चाह रही थीं, प्रेम कविताओं ने मुझे इस ख़तरनाक निर्णायक मोड़ पर खड़ा कर दिया. अब मैं पीसीएस भी बनने की बात भूलने लगी. क्या बड़े बड़े अफ़सर या नेता बनने के सपने देखने वाले कविताओं में डूबकर फिर किनारे नहीं लगते? दुनिया की नज़र में बरबाद हो जाते हैं?

मां से साफ़ साफ़ कहने की मेरी उम्र नहीं थी- माता जी प्यार ने मेरी उंगली थाम ली है. मुझे मुहब्बत का वह ख़ज़ाना बख़्श दिया है जिसे मैं छिपाना नहीं उलीचना चाहती हूं. कविता का पाठ मैंने इस तरह किया है कि नीरज का गीत आंखों में काजल की तरह बस गया और आंखों की सुंदरता बढ़ गयी. हृदय में उतारा तो प्रेमपत्र लिखने वाले साथी के लिये प्यार का झरना फूट पड़ा.

कवि को क्या पता कि मेरे जैसी कितनी ही किशोर बालाओं ने प्यार का मर्म समझने के लिये खुद को प्रस्तुत किया होगा. कितने युवक मुहब्बत के विस्तार का संकल्प ले बैठे होंगे. मेरे मन में ऐसी मनभावन धुन का इकतारा बजता रहा कि मैं नीरज की कविताओं की दीवानी हो गयी.

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डीबी इन्टर कॉलेज मोंठ से बारहवीं पास करने के बाद मैंने जब झांसी के बुन्देलखण्ड कॉलेज में बीए में दाख़िला लिया तो जैसे कविताओं के मामले में मन की मुराद मिल गयी. मेरे सपने अब पूरी तरह बदल चुके थे. मुझे पीसीएस से मिलने वाली पदवी से नहीं, कविता से प्रेम हो चुका था. मां को जब किताबों से भरे बैग में कुछ प्रेमपत्र मिले जिनको मुझे छिपाकर रखना चाहिये था तो मां समझ गईं कि मामला उनकी अदालत से बाहर चला गया है क्योंकि लड़की तो प्यार के अपराध पर लड़की की तरह डर ही नहीं रही.

बुन्देलखण्ड कॉलेज झांसी में पढ़ते हुये उन दिनों वहां के छात्रों को ऐसे अनेक मौक़े मिलते जब वे सिद्ध प्रसिद्ध कवियों से आसानी से मिल पाते, कारण था कि तब राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त वहीं थे. वे हमारे कॉलेज में अक्सर आते थे. बड़े से बड़े कवि सम्मेलन वहां हो पाते थे. ऐसे ही कवि सम्मेलन में गोपालदास नीरज आये. आप समझ सकते हैं मेरे मन में कैसे झांझ मजीरे बजे होंगे.

गोपालदास नीरज : गीतों के साथ सफरनामा

यों तो उस बार बच्चन जी भी थे और उन्होंने निशा निमंत्रण या मिलन यामिनी से कवितायें सुनाई थीं. मगर हम तो नीरज के दीवाने. लम्बा गोरा छरहरा सुन्दर सौम्य युवक जिसके बाल बहुत घने और सुन्दर, ऐसे गोपालदास नीरज. मैं तब तक ‘बादर बरस गयो' पढ़ चुकी थी. उन्होंने एक के बाद एक कवितायें सुनायीं. ग़ज़ब की स्मरण शक्ति. वे मेरे मन में बस गये कि कविताओं ने डेरा जमा लिया. मैं कवितायें लिखने लगी और अपने प्रेमपत्र वाले दोस्त के जबाव देने लगी.

आप उस समय को ऐसे भी न आंकें कि लड़कियों की दुनिया में सिर्फ़ हया शर्म के पर्दे और हाय अल्ला या उई मां की अदाओं से ज़्यादा कुछ न था, सहयोगी लड़कों से बराबर की दोस्ती भी चलती थी, शादी से पहले से लेकर शादी के बाद तक. ये दोस्तियां चाल चलन पर फ़िज़ूल के इल्ज़ामों को महत्व नहीं देतीं.

फिर झांसी छूटी, गांव भी छूट गया, मगर नीरज की कविता ने पीछा नहीं छोड़ा...

शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन
गांव था उमड़ पड़ा बहक उठे नयन नयन

फिर क्या, मैं फिर इसलिये ही गांव के चक्कर काटने लगी कि मेरी शादी की विदा के वक़्त ठीक यही माहौल तो था. लगाव ने जुड़ाव को टूटने नहीं दिया. मैं गांव को बिलखता छोड़कर दिल्ली की नहीं हो सकी. नीरज भी महानगरों से क्यों लौटते रहे? हमें महानगर रास नहीं आते क्योंकि दिल में मिट्टी महकती है.

और देखिये कि अरसे बाद नीरज जी मुझे शताब्दी गाड़ी में मिल गये. वे मुझे पहचानते कैसे, बहुत कुछ बदल चुका था. - मैं मैत्रेयी पुष्पा.

उन्होंने नाम सुना था. बातें हुयीं. मैंने कहा कि मैं कवितायें पढ़ते पढ़ते उपन्यास लिखने लगी. वे हंसने लगे. मैंने उनकी कौन सी कवितायें अपनी आत्मकथाओं में कोट की हैं, बताया.

रेलगाड़ी में जितनी भी बातें हो पायीं, उन्हीं के आधार पर नीरज जी ने अपने ऊपर छपने वाले विशेषांक में मुझसे लिखवाने की इच्छा जताई. और मैंने पूरे मन से लिखा भी.

कल ही वे इस संसार में नहीं रहे. उनकी स्मृतियां मेरे पास हैं. और वह भी कि नीरज जी मेरे बारे में क्या सोचते थे. वह भी मैं यहां कोट कर रही हूं दो रचनाकारों के संबंध की मुकम्मल निशानी -

'मैत्रेयी से मेरी मुलाक़ात कानपुर में मुझ पर केन्द्रित पत्रिका के दौरान हुयी. इस मुलाक़ात ने मुझे मैत्रेयी जैसा अभिन्न मित्र दिया. मैं उस वक़्त तक मैत्रेयी से बहुत परिचित नहीं था. मैंने उन्हें विशेष पढ़ा भी नहीं था. वे एक सीधी साधी सरल महिला दिखीं. लेकिन स्टेज पर आकर वो जिस निडरता, खुलेपन से अपने बचपन के किसी पुरुष के प्रति भावात्मक लगाव को लेकर बोलीं, मैं हतप्रभ रह गया. मुझे मैत्रेयी के रूप में अमृता प्रीतम साक्षात जीवित खड़ी दिख रही थीं. जैसे जैसे मैंने उन्हें और जाना, मुझे लगने लगा क्रांति का शंखनाद फूंकती यह सचमुच दूसरी अमृता ही है.

फिर वो मुझसे मिलने अलीगढ़ भी आईं. यह अपनाव भरा मिलन सुखद और आश्चर्यकारी था. महिलायें जिस बात को कहने में संकोच अनुभव करती हैं, वह उन बातों को बिना लाग लपेट सहजता से कह जाती हैं. वह एक ऐसी बुद्धिजीवी हैं जो सच को स्वीकार करने की हिम्मत रखती हैं'.

वह मेरे गीतों की बहुत प्रशंसक हैं लेकिन सच तो यह है कि मैं उनका प्रशंसक हूं. उन्होंने मेरे गीतों को पढ़कर प्रेम करना सीखा, लेकिन मैंने उनके द्वारा प्रेम को निडरता से स्वीकार करना सीखा. हम दोनों ने ही प्रेम को जिया.' -गोपालदास नीरज

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं)

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