नरेंद्र मोदी सरकार को एक साल पूरा होने वाला है। इससे पहले की बीजेपी अपनी सरकार के काम-काज का लेखा-जोखा पेश करे, पार्टी में आंतरिक विरोधी सुर सुनाई दे रहे हैं। अरुण शौरी ने सरकारी नीतियों को आड़े हाथों लिया है तो पार्टी में नेताओं का दूसरा खेमा बिफर पड़ा है। लेकिन भारत की राजनीति में तो अक्सर ऐसा होता आया है कि अगर विपक्ष कमजोर हो तो पार्टी के अंदर ही विरोध गहराने लगता है। भारतीय इतिहास में पहली घटना नहीं है जब सत्तारूढ दल के ही सदस्य अपनी ही सरकार की खुले तौर पर आलोचना करें। खासकर तब-जब संसद में सत्तारूढ़ दल को पूर्ण बहुमत हासिल है और निर्धारित संख्या पूरी नहीं कर पाने की वजह से संसद में मान्यता प्राप्त विपक्ष का कोई नेता नहीं है।


COMMERCIAL BREAK
SCROLL TO CONTINUE READING

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को भी इस अंदरूनी विरोध का सामना करना पड़ा  था। कृष्णा मेनन, राम मनोहर लोहिया और फिरोज़ गांधी उन नेताओं में से थे जिन्होंने खुलकर नेहरु की नीतियों का विरोध किया था, तो इंदिरा गांधी की नीतियों का भी इस कदर विरोध हुआ कि कांग्रेस पार्टी के अंदर एक नया pressure group ग्रुप बना जिसे young turk का नाम दिया गया। इस ग्रुप में मोहन धारिया, कृष्णकांत और चंद्रशेखर सरीखे नेता शामिल थे। इंदिरा गांधी को इमरजेंसी लगाने के फैसले को लेकर अपनी ही पार्टी के नेताओं का भी विरोध झेलना पड़ा था। जगजीवन राम और हेमवती नंदन बहुगुणा विरोध करने वाले नेताओं में शामिल थे।


इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति की लहर की वजह से जब राजीव गांधी ने प्रचंड बहुमत से भारतीय संसद में जगह बनाने में कामयाबी हासिल की थी तो उस वक्त भी विरोधी पार्टियों के मुकाबले कांग्रेस को अपनी ही पार्टी के नेताओं का विरोध ज्यादा झेलना पड़ा था। कांग्रेस के ज्ञानी जैल सिंह, वी पी सिंह, अरुण नेहरु और आरिफ मोहम्मद खान सरीखे नेता एक-एक कर खुले तौर पर राजीव गांधी सरकार की आलोचना करने लगे थे। कमोबेश एक बार फिर उसी तरह के हालात बन रहे हैं। पिछले लगभग एक साल में मोदी के मुकाबले विपक्ष असहाय और लाचार दिख रहा है। ऐसा कह सकते हैं कि जो राजनीतिक हालात रहे हैं उसमें विपक्ष के किसी नेता में इतनी कूवत नहीं दिखी है जो मोदी के अभियान पर लगाम लगा सके। ऐसी स्थिति में बीजेपी के अंदर से अपनी सरकार और अपनी नेता के खिलाफ विरोध के सुर उठना स्वाभाविक है।


मोदी के खिलाफ उनकी ही सरकार में बन रहे इस माहौल ने अटल जी के कार्यकाल की भी याद दिला दी है। अटल बिहारी वाजपेयी भी अपनी Coterie बनाकर ही आगे बढ़े थे। उस Coterie के जरिए योजनाओं को शक्ल दिया था। जिसे लेकर अटल जी के वक्त भी इसी तरह तमाम नेताओं में नाराजगी बनी रहती थी। यहां तक कि कई बार आडवाणी जी भी इस Coterie के आगे खुद को लाचार पाते थे। शायद यही कारण था कि अटल जी के कार्यकाल के आखिरी दिनों में ये खबरें उठीं कि आडवाणी और अटल जी के बीच गहरे मतभेद हैं। लेकिन विरोध के इन सुरों को अटल बिहारी वाजपेयी ने सार्वजनिक मंच से ये कहकर बंद करा दिया था कि ना तो वो tired हैं ना हीं रिटायर्ड बतौर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अपनी लोकप्रियता और कूटनीति के दम पर अपने विरोधियों को चुप कराने में कामयाब रहे। उस समय जसवंत सिंह, प्रमोद महाजन और अरुण शौरी जैसे नेता अटल जी के Coterie के प्रमुख सदस्य माने जाते थे।


वाजपेयी सरकार में विनिवेश मंत्री रहते हुए अरुण शौरी के फैसलों पर काफी विवाद खड़े हुए थे। अटल जी की सरकार में सबसे ज्यादा आरोप विनिवेश मंत्रालय की वजह से ही लगे थे। अरुण शौरी पर आरोप थे कि उन्होंने पब्लिक सेक्टर की तमाम युनिट्स को बहुत कम पैसों में निजी हाथों में बेच दिया है। लेकिन अब अरुण शौरी मोदी पर लगाए गए आरोपों की वजह से चर्चा में हैं। देखना ये होगा कि अरुण शौरी की इस आवाज को बीजेपी के और किन नेताओं का समर्थन हासिल होता है। खबरों के मुताबिक कुछ चुनिंदा लोगों को भेजी गई अपने 16 पेज की चिट्ठी में मुरली मनोहर जोशी ने सरकार के 11 महीनों के कार्यकाल का जिक्र किया है। जिसके आधार पर अरुण शौरी नरेंद्र मोदी की सरकार को आर्थिक मोर्चे पर विफल करार दे रहे हैं।


नरेंद्र मोदी की कार्यशैली से पार्टी के कुछ नेताओं की नाराजगी नई नहीं है लेकिन ऐसे नाखुश नेताओं ने सोच समझ कर ये वक्त चुना है। अगर सरकार बनते ही इन नेताओं ने नरेंद्र मोदी का विरोध किया होता तो ऐसा लगता कि मोदी को काम करने का मौका दिए बगैर ऐसे लोग उनका विरोध कर रहे हैं जो बीजेपी को कभी भी ऐसा प्रचंड बहुमत नहीं दिला पाए। शायद इसीलिए मोदी विरोधी इन नेताओं ने सही वक्त के इंतजार में अपना वक्त गुजारा है और अब जब एक साल पूरा हो गया है और इन्हें लगता है कि मोदी सरकार ना तो महंगाई ना ही निवेश के मोर्चे पर कुछ खास कर पाई है। आंतरिक सुरक्षा की तस्वीर भी कमोबेश मनमोहन सिंह की सरकार जैसी ही है। ऐसे में उनको लगता है कि ये माकूल समय है जब नरेंद्र मोदी की सरकार की आलोचना की जाएगी तो इसका असर होगा। पार्टी के नेता और देश की जनता भी मोदी की आलोचना सुनना पसंद करेगी।