वासिंद्र मिश्र
एडिटर (न्यूज़ ऑपरेशंस), ज़ी मीडिया


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भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी क्या अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और रूसी राष्ट्रपति पुतिन के नक्शेकदम पर चल पड़े हैं? नरेंद्र मोदी के लगभग 11 महीने की कार्यशैली से कमोबेश इसी तरह के संकेत मिल रहे हैं। मोदी के हालिया विदेश दौरे और राज्यपालों के लिए जारी निर्देशों से उनकी मंशा पर सवालिया निशान लग गया है?


देश में राज्यपालों को अब नए तौर तरीकों से काम करना होगा। मसलन अगर कहीं जाना हो तो राष्ट्रपति से लिखित में इजाज़त लेनी होगी। इजाज़त लेने के लिए अपनी यात्रा से संबंधित पूरी जानकारी भेजनी होगी। ये जानकारी ना सिर्फ राष्ट्रपति बल्कि प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव और गृहमंत्री को भी देनी होगी। राष्ट्रपति से इजाज़त के बाद ही गवर्नर अब राज्य से बाहर की यात्रा कर पाएंगे। इतना ही नहीं अब राज्यपालों को अपने राज्य में साल के 292 दिन बिताने ही होंगे, ऑफिशियल हो या फिर पर्सनल यात्रा अब बाकी बचे दिनों में ही करनी होगी। गृह मंत्रालय की तरफ से 18 प्वाइंट सेट ऑफ रूल्स जारी किए गए हैं। इसके मुताबिक अगर गवर्नर को अचानक कहीं जाना पड़ता है तो उसकी वजह साफ करनी होगी। कहा जा रहा है कि गवर्नर्स के राज्य से बाहर टूर पर रहने की खबरें आने के बाद ये बदलाव किया जा रहा है।


लेकिन क्या मसला सिर्फ इतना ही है। हमारा देश कहीं प्रेसिडेंटियल फॉर्म ऑफ गवर्नमेंट की तरफ तो नहीं बढ़ रहा। अमेरिका में प्रेसिडेंटियल फॉर्म ऑफ गवर्नमेंट है, जहां राष्ट्रपति के पास सबसे ज़्यादा ताकत होती है। केंद्र में बीजेपी की सरकार बनने के बीते 11 महीनों में मोदी ने सरकार की कार्यशैली में कई बदलाव ला दिए हैं। मसलन ज्यादातर मौकों पर नरेंद्र मोदी ही आगे नजर आते हैं चाहे वो मसला किसी भी मंत्रालय से जुड़ा हुआ क्यों ना हो। आप नरेंद्र मोदी की अप्रैल में की गई तीन देशों की विदेश यात्रा को ही देख लीजिए। इस यात्रा में नरेंद्र मोदी के साथ एक मंत्री है उनकी भी कहीं कोई खबर नहीं है। अक्सर ऐसा देखने को नहीं मिलता कि विदेशों में होने वाले समझौतो से संबंधित मंत्रालय के मंत्री भी डेलीगेशन में शामिल ना हों।


हालांकि मोदी की इस कार्यशैली की झलक उनकी भाषा में भी दिखती है। चाहें तो आप उनके चुनाव प्रचार के दौरान दिए गए भाषणों को दोबारा सुन लें। अक्सर मोदी 'मैं' शब्द का इस्तेमाल करते सुनाई देंगे। उनके भाषणों के दौरान हीं इस बात का अहसास होने लगा था कि अगर बीजेपी की सरकार बन जाती है तो नरेंद्र मोदी पावर सेंटर भी बन जाएंगे। मोदी के चुनाव प्रचार का तरीका भी कमोबेश अमेरिकी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जैसा ही था। उतना ही हाइटेक, वैसे ही शब्दों का चयन...।
 
ऐसा लगता है कि मोदी ने जो अच्छे दिन के सपने दिखाए हैं उसे वो किसी और के भरोसे नहीं छोड़ना चाहते। वो किसी पर भरोसा नहीं कर पाते। शायद कोई और उनकी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाता। इसीलिए अलग-अलग मंत्रालयों के काम-काज पर भी मोदी की नज़र रहती है। भारत में पार्लियामेंट्री फॉर्म ऑफ गवर्नमेंट है, जिसमें प्रधानमंत्री और मंत्रियों के अधिकार क्षेत्र में ज्यादा फर्क नहीं होता लेकिन मोदी की कार्यशैली ऐसी है कि उनके मंत्रियों के अधिकार क्षेत्र में भी उन्होंने अपने लिए काफी जगह बना ली है ऐसा प्रेसिडेंटियल फॉर्म ऑफ गवर्नमेंट में होता है जहां राष्ट्रपति सबसे ज्यादा ताकतवर होता है। अमेरिका में राष्ट्रपति के पास असीमित अधिकार हैं। रूस के प्रेसीडेंट ब्लादिमीर पुतिन भी असीमित अधिकार रखते हैं। मोदी की कार्यशैली भी इन दोनों से मेल खाती है। लेकिन अमेरिका और रूस का संविधान अलग है। वहां की जनता का मिजाज अलग है। क्या भारत की जनता मोदी के इस इनीटिएटीव और इन्‍टेंशन को लंबे समय तक स्‍वीकार कर पाएगी।


भारत में आज तक एक बार इमरजेंसी लगी है जब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं। इंदिरा गांधी भी एब्‍सोल्‍यूट पावर चाहती थीं। इंदिरा गांधी ने संविधान में 42वें संशोधन के जरिए प्रधानमंत्री कार्यालय को काफी पावरफुल बना दिया था। सुप्रीम कोर्ट की शक्तियां कम कर दी थीं। जिसकी वजह से सियासत में उनके कई विरोधी पैदा हो गए। बदले माहौल में देश में पॉलिटिकल अनरेस्‍ट भी बढ़ गया। इस अनरेस्‍ट का ही नतीजा था कि देश में इमरजेंसी लगा दी गई। उसके बाद तो जनता ने भी इंदिरा गांधी को नकार दिया। 1977 के आम चुनाव में देश में जनता पार्टी की सरकार बन गई। जनता पार्टी की सरकार ने संविधान में 44 वां संशोधन किया जिसके जरिए जनता को ज्यादा अधिकार दिए गए। साथ ही इंदिरा गांधी की सरकार में किए गए 42वें संशोधन के किए गए सबसे ज्यादा विवादित बदलावों को खत्म कर दिया। सवाल ये है कि देश में और ज्यादा जागरुक हो चुकी जनता क्या फिर प्रधानमंत्री तक सीमित हो रहे अधिकारों को पचा पाएगी।