मदर्स डे 2018: मां कोई औरत नहीं भाव है
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मदर्स डे 2018: मां कोई औरत नहीं भाव है

ममत्व एक भाव है जो किसी के अंदर भी हो सकता है. और जिसके अंदर ये भाव है वो ही सही मायने में मां है.

मदर्स डे 2018: मां कोई औरत नहीं भाव है

टीवी पर एक विज्ञापन आ रहा है. एक महिला घर के सभी सदस्यों को खाना परोस रही है. साथ में ससुरालवालों के ताने खा रही है. वजह ये है कि उसने अपने बेटे को पर्स से 10 रुपये निकालने को लेकर डांटा है. इसी बीच ससुर जोर से अपने पोते को डांटता है और खाना खाने के लिए बोलता है. साथ में घरवालों को बोलता है कि उसके पोते ने दस रुपये निकाले नहीं थे बल्कि चुराए थे और अगर वो उसकी मां की जगह होता तो शायद उसे थप्पड़ लगाता. लड़का चुपचाप खाना खाने लग जाता है. विज्ञापन के अंत में वहीं मां अपने बेटे को प्यार से कुछ सिखा रही होती है. विज्ञापन मां के एक सख्त रवैये को दिखाता है.

इसी तरह एक विज्ञापन में मां अपनी बेटी को गिरने और चोट लगने पर उसकी तरफ भागती नहीं है बल्कि उसे खुद से उठने का हौसला देती है.
 
विज्ञापन जगत के सबसे जाने माने नाम पियूष पांडे ने अपनी किताब पांडेमोनियम में बताया है कि किस तरह एक खाने का तेल बनाने वाली कंपनी के मालिक ने जब उनके सामने ये इच्छा रखी कि अब वो तेल में बनते हुए खाने के बजाए अपने उत्पाद के साथ कुछ भावुकता जोड़ना चाहते हैं, तो मां की दाल का विज्ञापन सामने आया. इस विज्ञापन की खास बात ये थी कि डिजिटल दुनिया में इसकी अवधि पांच मिनट रखी गई थी जो कमर्शियल विज्ञापन के लिहाज़ से बहुत ज्यादा थी. यहां तक कि जब उसे टेलीकास्ट किया गया तब भी ये विज्ञापन शुरुआत में एक मिनट का चलाया गया था वो भी प्राइम टाइम में जिसके लिए पियूष पांडे को खुद चैनल वालों से गुजारिश करनी पड़ी थी. लेकिन मां की दाल का असर इतना तगड़ा था कि ये विज्ञापन बहुत जल्दी ही वायरल हो गया था.

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विज्ञापन अक्सर इस तरह बनाया जाता है कि वो जनता की नब्ज को पकड़े जिससे वो लोगों के दिलों में घर करता है और याद में बस जाता है. अगर हम आज के परिदृश्य में देखें तो मां को दिखाने वाला नज़रिया बदला है. अब मां वो नहीं है जो चूल्हे में खट रही है, नाजुक सी है बल्कि मां सख्त है जो अपने बच्चे को लड़ना जूझना सिखा रही है.

दरअसल, ये समझने वाली बात है कि आखिर मां है क्या? जब भी हम मां की बात करते हैं तो हमारे ज़ेहन में एक ऐसी औरत की छवि बनती है जो अपने बच्चों की देखरेख में कोई कोर कसर नहीं छोड़ती. जो अपने बच्चों की बेहतरी के लिए कुछ भी कर गुज़रने को राजी रहती है. मां को हम उस खूंटी की तरह देखते हैं जिस पर बच्चा अपनी सारी परेशानियां टांग देता है. जिसके दाल चावल के डब्बों से बच्चे की हसरत, वक्त-बेवक्त की जरूरतें पूरी होती हैं. जो बच्चे की जिदंगी से मुश्किलों को वैसे ही बुहारती है जैसे वो झाड़ू से घर के कचरे को बुहारती है. वो उस चकले और बेलन की तरह होती है जो एक निराकार लोई को आकार दे देता है. इस सबसे ऊपर वो जो परवाह करना जानती है.

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ये परवाह करना ही दरअसल सबसे अहम होता है. हम जिस समाज में पले बढ़े हैं या हमारे समाज ने जो ढर्रा अपनाया है. उसके तहत आदमी का काम बाहर जाना और पैसे कमाना था. औरत घर में रहती थी, और सबकी परवाह करती थी. उसका काम सबकी ज़रूरत का ख्याल रखना होता था. इस सबसे ज्यादा अहम, कवि गोपाल व्यास के शब्दों में – अब तक लोगों की इस तथ्य पर जा पाई बिल्कुल दृष्टि नहीं/ नर सब कुछ है कर सकता, पर कर सकता है सृष्टि नहीं.

औरत को प्रकृति ने सृष्टि करने का तोहफा भी दिया. चूंकि वो रचना जो रची गई वो सबसे पहले और सबसे ज्यादा वक्त तक उसके साथ है इसलिए ममत्व का भाव उसमें घुमडा और हमने मां से ममता को जोड़ कर देखा. लेकिन क्या वाकई में ममत्व को किसी लिंग से जोड़ा जाना सही है. क्या ममत्व शब्द स्त्रीलिंग हो सकता है . दरअसल, मां, ममता, ममत्व जैसे शब्द उस व्यक्ति के लिए उपयोग करना ज्यादा बेहतर होगा जिसमें परवाह करने का गुण हो. जिसमें मानवता हो, इंसानियत हो. मां वही है जिसमें मानवता है.

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हरिवंश राय बच्चन ने अपनी आत्मकथा ‘नीड़ का निर्माण फिर’ में लिखा है, मातृ हृदय की परिभाषा ही शायद ये होगी, जो किसी के भी दुख-कष्ट में सहज भाव से विगलित हो सके. प्रेम निश्चय प्रतिदान चाहता है. प्रतिदान नहीं पाता तो दुखी होता है. करुणा केवल देना जानती है, वह किसी से कुछ प्रत्याशा करके द्रवीभूत नहीं होती. इस कारण में करूणा का प्रेम से भी बड़ा मानता हूं. प्रेम में स्वार्थ की गंध है. करूणा इसके ऊपर उठी हुई है. प्रेम निस्वार्थ हो सके तो में उसे करूणा का नाम देने में संकोच न करूंगा. प्रेम मन की सहज प्रवृत्ति हो सकती है. करूणा का जन्म तो किसी साधना अनुशासन, किसी की सही-झेली-भोग, पचाई पीड़ी से ही संभव है. इसलिए प्रेमी से में करुणाशील को अधिक विकसित व्यक्ति मानता हूं.

दीवार फिल्म में जब अमिताभ बच्चन, शशि कपूर को अपनी सफलता गिना रहे होते हैं और उनसे सवाल पूछते हैं कि तुम्हारे पास क्या है. तो शशि कपूर धीरे से यही बोलते हैं कि मेरे पास मां है. अगर हम फिल्म के परिप्रेक्ष्य में देखें तो वो मां ही है जो अपने उस बेटे का साथ देती है जो मानवता के साथ रहता है. जो इंसानियत का पक्ष लेता है. मॉम फिल्म की मां अपनी बेटी के साथ गलत करने वाले उन अपराधियों को सबक सिखाती है जिन्होंने मानवता को तार–तार किया था.

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जिसने आपको, हमें जन्म दिया वो हमारी जननी है मां तो वो है जिससे हमें परवाह करने का गुण मिलता है. किसी के घर में उसके पिता, किसी के भाई या बहन, मौसी, चाची, पड़ौसी या फिर दोस्त ऐसे हो सकते हैं जिसमें परवाह करने का ज्यादा माद्दा हो. जो बगैर किसी स्वार्थ के बस आपके परवाह करते हैं, या किसी की भी परवाह करते हैं. ममत्व एक भाव है जो किसी के अंदर भी हो सकता है. और जिसके अंदर ये भाव है वो ही सही मायने में मां है.

जिसके पास आप सबसे ज्यादा सुरक्षित महसूस करते हों, जिस पर आपको सबसे ज्यादा भरोसा हो या फिर जब आप कोई परेशानी में हो तो आप जिसे सबसे पहले याद करते हों दरअसल आपके लिए वहीं मां है.

तो इस बार मातृत्व दिवस पर जब आप अपनी मां को फोन मिलाए, उनके लिए कार्ड बनाए, उन्हें कहीं खाना खिलाएं या उनके दिन को खास बनाएं तो उस व्यक्ति को भी मातृत्व दिवस की बधाई ज़रूर दीजिए जिसके अंदर ममत्व है.

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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