स्वार्थ के आगे बौनी है पर्यावरण की चिंता
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स्वार्थ के आगे बौनी है पर्यावरण की चिंता

स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद यानि प्रोफेसर जीडी अग्रवाल गंगा एक्ट बनाने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं, जिसका मूल यही है कि गंगा के उद्गम से 250 किमी के दायरे तक कम से कम उसके किनारे किसी तरह का कोई निर्माण ना किया जाए.

स्वार्थ के आगे बौनी है पर्यावरण की चिंता

गेम ऑफ थ्रॉन्स में एक किरदार है टायरिन लेनिन्सटर. वो एक बौना है, लेकिन सबसे ताकतवर पिता की औलाद है, लेकिन उसके पिताजी उसे अपने खानदान पर एक कलंक मानते हैं. यहां तक कि उसका बौना होना एक अभिशाप माना जाता है. उसे एक राक्षस की तरह देखा जाता है. उसका पिता एक प्रकार से उसकी जिंदगी को ढो रहा है, जबकि टायरिन बहुत बुद्धिमान और नीतियों पर चलने वाला इंसान है. 

एक बार टायरिन को साम्राज्य का सेनापति बनने का मौका मिलता है. उसी दौरान दुश्मन राज्य पर हमला कर देते हैं औऱ उस दौर का राजा राज्य को बचा ना पाकर जनता को मरने के लिए छोड़ कर भाग निकलता है. तब टायरिन ही सैनिकों में उत्साह फूंककर उन्हें लड़ने के लिए प्रेरित करता है, लेकिन इसकी एवज में खुद को असुरक्षित महसूस करने वाला राजा और उसकी मां टायरिन से उसका सेनापति का पद छीन लेती है. ये पूरी कार्यवाही उसके पिता की जानकारी में ही होती है, लेकिन वो भी उसे पदच्युत करने में समर्थन देता हैं, क्योंकि वो कहीं ना कहीं अपने बौने बेटे की सफलता को पचा नहीं पाता है.

एक वक्त ऐसा मौका आता है कि साम्राज्य के राजा (जोकि खुद बहुत क्रूर है और कहीं ना कहीं टायरिन से चिढ़ता है, हालांकि टायरिन उसका मामा है.) की मौत एक भरी सभा में हो जाती है. जिस शराब को पीकर उसकी मौत हुई है उसे भरकर टायरिन ने ही दिया है. टायरिन पर राजा की मौत की साज़िश का मुकदमा चलता है. टायरिन ने राजा को नहीं मारा है ये बात सभी जानते हैं औऱ फैसला क्या होना है ये भी सभी को मालूम है. अहम बात ये है कि जनता जिसे टायरिन ने अपनी जान पर खेलकर बचाया था वो भी टायरिन के खिलाफ ही नजर आती है. 

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मुकदमें के दौरान जब टायरिन को समझ में आता है कि कोर्ट का ड्रामा खेला जा रहा है तो वो जज बने अपने पिता और दूसरे जजों से बोलता है कि मैं अपना अपराध कुबूल करना चाहता हूं. उसका पिता एक मिनट के लिए चौंकता है औऱ खुश होते हुए पूछता है कि क्या तुम राजा को मारने का अपराध कुबूल करते हो. तो टायरिन इस पूरे प्रकरण का मजा ले रही जनती की तरफ देखकर बोलता है, ‘नहीं उसमें तो मैं निर्दोष हूं, लेकिन मैंने उससे भी बड़ा अपराध किया है. मैंने इन फिज़ूल जिंदगियों को बचाने का अपराध किया है. काश मैं स्टेनिस को तुम्हें मारने देता. मैंने राजा को ज़हर नहीं दिया, लेकिन काश कि मैं दे पाता. काश मैं वैसा राक्षस होता, जैसा तुम लोगों ने मुझे बना दिया औऱ जो ज़हर तुमने मुझे देने का मन बना लिया है वो तुम्हारे हलक में उतारता औऱ जीवन भर तुम लोगों को उसे धीरे-धीरे करके गटकता हुआ देखता’.  

लगभग 90 दिन से भूख हड़ताल पर बैठे गंगा को उसका अधिकार दिलाने के लिए लड़ रहे स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद यानि प्रोफेसर जीडी अग्रवाल से जब मुलाकात हुई तो उनकी बातों में इसी तरह की कुछ निराशा थी. हालांकि वो इतने कठोर नहीं हुए न ही उन्होंने किसी और के मरने की कामना की, लेकिन उन्होंने ये ज़रूर कहा कि, ‘अब मुझे किसी से कोई उम्मीद नहीं है. आने वाली 9 तारीख को नवरात्र शुरू होते ही मैं पानी भी त्याग दूंगा. अब मैं बस यही चाहता हूं कि ये प्राण निकलें. जब जिंदगी नहीं रहती है तो सारे प्रश्न खत्म हो जाएंगे.’ वो इस कदर घोर निऱाशा से गुज़र रहे हैं कि किसी तरह की कोई भी सांत्वना उन्हें और चिढ़ा देती है. वो कहते हैं कि आपको अच्छा लगता होगा कि आप मुझे समर्थन की सांत्वना दे रहे हैं, लेकिन इससे मुझे और दुख ही होता है औऱ अब मेरा इतना सामर्थ्य नहीं है कि मैं किसी तरह की कोई चर्चा कर सकूं. 

स्वामी सानंद गंगा एक्ट बनाने के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं, जिसका मूल यही है कि गंगा के उद्गम से 250 किमी के दायरे तक कम से कम उसके किनारे किसी तरह का कोई निर्माण ना किया जाए. गंगा और उससे जुड़ीं तमाम नदियों को अविरल बहने दिया जाए. अभी सरकारी कागज़ों में 150 किलोमीटर तक नो कन्सट्रक्शन ज़ोन है, लेकिन अगर आप पहाड़ों में ऊपर जाएंगे तो आपको नज़र आएगा की हर नदी के मुहाने तक को नहीं छोड़ा गया है. चारों तरफ नदी को रोककर विकास बह रहा है. कहीं लोग नदियों के किनारे पर रिवर व्यू अपार्टमेंट और होटल बना रहे है तो कहीं बांध बन रहे हैं. बांधों के निर्माण का आलम तो ये हैं कि उत्तराखंड के अहम प्रयागों में से एक विष्णु प्रयाग अब टनल में बह रहा है. 

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पर्यावरण के प्रति हमारी चिंता किस हद तक गंभीर है इसकी बानगी तब देखने को मिली जब एक मंत्री ने केदारनाथ आपदा के पीछे धारी देवी की मूर्ति को हटाना कारण बताया था. दरअसल,  श्रीनगर गढ़वाल क्षेत्र में एक बहुत ही प्राचीन सिद्ध पीठ है, जिसे 'धारी देवी' का सिद्धपीठ कहा जाता है. इसे दक्षिणी काली माता भी कहते हैं. बद्रीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग पर श्रीनगर से करीब 15 किलोमीटर की दूरी पर कलियासौड़ में अलकनंदा नदी के किनारे सिद्धपीठ मां धारी देवी का मंदिर स्थित है, लेकिन नदी पर बांध बनाने के चक्कर में तत्कालीन सरकार ने स्थानीय लोगों की चेतावनी के बावजूद धारी देवी की इस मूर्ति को श्रीनगर विद्युत परियोजना के तहत 16 जून को हटा दिया और संयोग से उसी रात को एक ग्लेशियर टूटा और और एक बादल फटा. फिर शुरू हुई प्रकृति की विनाशलीला. 17 जून को सैलाब ने पूरे उत्तराखंड को मौत के आगोश में जकड़ लिया. बाद में मूर्ति को ऊपर उठाकर उसके मूल स्थान पर स्थापित किये जाने की मांग ने औऱ जोर पकड़ा और केदारनाथ की त्रासदी की मूल वजह धारी देवी को हटाना मान लिया गया. 

कमाल की बात ये है कि आंदोलन करते लोग औऱ विकास करती सरकार किसी को भी केदारनाथ त्रासदी में नदी के बहाव में छितराती बांध परियोजना और मुहाने से उजड़ते निर्माण नज़र नहीं आए. आलम ये है कि आज भी आप अगर केदारनाथ या बद्रीनाथ के इर्द-गिर्द रहने वालों से इस आपदा के बारे में बात करेंगे तो आपको मालूम चलेगा कि वहां के लोगों का मानना है कि जो लोग मरे वो पापी थे. वहां रहने वाले बाशिंदे, जिन्होंने धर्म औऱ धंधे के नाम पर लूट मचा रखी थी औऱ जो लोग वहां घूमने आए थे, लेकिन उनके मन में श्रद्धा का भाव कम था औऱ जिन्होंने धार्मिक स्थल को हनीमून स्पॉट बना रखा था वो मारे गए. इस सोच के आगे लगभग 90 दिन से भूखे पर्यावरण और गंगा को बचाने के लिए लड़ाई लड़ रहे स्वामी सानंद के प्रयास बेमानी हो जाते हैं. 

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गौरतलब है कि इसी श्रम के एक और संत स्वामी निंगमानंद भी गंगा को खनन माफिया से बचाने के लिए लगभग 100 दिन तक भूख हड़ताल करके अस्पताल में अपनी जान गंवा चुके हैं. हालांकि उनकी मौत को एक हत्या की साज़िश बताया गया था, जिस पर आज तक कोई भी कार्यवाही नहीं हो सकी. दरअसल स्वामी निगमानंद हरिद्वार के मातृ सदन के संत थे. मातृ सदन की स्थापना 1997 में कुछ संतों ने मिलकर पर्यावरण की रक्षा के उद्देश्य के लिए की थी. तब से ही मातृ सदन ने गंगा और हिमालय की रक्षा के लिए कई आंदोलन किए. हरिद्वार के कुंभ क्षेत्र में हो रहे खनन कार्यों को रोकने के लिए वह पिछले कई साल से सक्रिय रहा है. 1998 में भी स्वामी निगमानंद ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर लगभग 70 दिन की भूख हड़ताल की थी. उनकी मांग थी कि गंगा को बचाने लिए इसमें हो रहे खनन पर पूरी तरह से रोक लगाई जाए. उनकी मांगों पर कभी-कभी अस्थाई तौर से कार्रवाइयां भी हुईं, लेकिन गंगा में हो रहे खनन पर कभी भी पूरी तरह रोक नहीं लगी. 19 फरवरी 2011 को स्वामी निगमानंद ने हरिद्वार के कुंभ क्षेत्र में हो रहे खनन को पूरी तरह से रोकने की मांग को लेकर एक बार फिर से भूख हड़ताल शुरू की. जब उनका स्वास्थ्य ज्यादा बिगड़ने लगा तो 27 अप्रैल को प्रशासन ने उन्हें हरिद्वार के जिला अस्पताल में भर्ती करवा दिया. लगभग एक महीना हिमालयन अस्पताल में रहने के बाद अंततः 13 जून को स्वामी निगमानंद की मौत हो गई. 

पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में उनकी मौत का कारण कई दिनों तक भूखे रहने के कारण हुए कुपोषण को बताया गया था. हालांकि आश्रम का आरोप था कि उन्हें ज़हर देकर मारा गया था. स्वामी जी की मौत की एकमात्र वजह स्वार्थ और समाज की पर्यावरण के प्रति लापरवाही थी. इसी स्वार्थ औऱ अपने को क्या वाली प्रवृत्ति के चलते एक संत औऱ अपनी जान गंवाने पर तुला है. विडंबना देखिए कि दुनिया भर की खबरों पर नज़र रखने का दावा करने वाले मीडिया को हरिद्वार के कनखल में बने आश्रम मातृ सदन में बैठा वो संत नज़र नहीं आ रहा है. शायद हमने अपनी आंखों में उस विकास का सुरमा लगा रखा है, जिसके लगते ही हमें चारों तरफ खुशहाली नज़र आती है. 

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ऐसे में हमारी प्रकृति, नदियां और उनके किनारों को सुरक्षित रखने वालों के मन में टायरिन की तरह ही भाव उमड़ना स्वाभाविक है. केदारनाथ त्रासदी के दौरान जिस नदी या प्रकृति को खलनायक साबित किया गया था शायद वो टायरिन की तरह ही सोच रही है कि मैं खलनायक नहीं हूं, लेकिन काश मैं होती.

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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