पैरेंट्स की इन 'दिखावटी समस्याओं' का बच्चों पर पड़ रहा नकारात्मक असर
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पैरेंट्स की इन 'दिखावटी समस्याओं' का बच्चों पर पड़ रहा नकारात्मक असर

ध्यान रहे, बच्चे कोरे कागज हैं. गीली मिट्टी हैं. आप जो चाहें उन्हें आकार दे सकते हैं. उन पर लिख सकते हैं. अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो कहीं न कहीं, हमसे चूक हो रही है.

पैरेंट्स की इन 'दिखावटी समस्याओं' का बच्चों पर पड़ रहा नकारात्मक असर

आजकल पैरेंट्स एक अजीबो-गरीब समस्या से जूझते हुए देखे जा रहे हैं. मैं भी उनके इस संकट को मुलाकातों के दौरान महसूस कर पा रहा हूं. बच्चों की अलग-अलग समस्याओं को लेकर मुझ तक पहुंचने वाले माता-पिता इस बात से खुश नहीं हैं कि उनका अपना बच्चा बहुत अच्छे अंकों से पास हुआ है. वे इस बात से ज्यादा परेशान हैं कि पड़ोसी का बच्चा मेरे वाले से एक फीसदी ज्यादा कैसे पा गया?

कहीं स्कूल शान में बट्टा लगा रहे हैं तो कहीं घर. कहीं गाड़ी को लेकर तनाव पसरा हुआ है तो कहीं इस बात की ही चिंता खाए जा रही है कि परसों वाली पार्टी में कौन सी साड़ी पहनूंगी? बीते दो महीनों में लगभग दर्जन भर मामलों की समीक्षा के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि पैरेंट्स की इन ओढ़ी हुई समस्याओं का नकारात्मक असर बच्चों पर पड़ रहा है. वे तनाव में जी रहे हैं. उनकी परफॉर्मेंस पर इसका नकारात्मक असर पड़ रहा है.

पैसा बहुत कुछ तो है लेकिन सब कुछ नहीं
मैं मानता हूं और सभी से कहता भी हूं कि अगर सब लोग अपने सुख से सुखी और दुख से दुखी हों तो न तो कोई व्यावहारिक दिक्कत आएगी और न ही कोई खुदकुशी जैसा कदम उठाएगा. गरीबी-अमीरी तो कभी भी कोई कारण हो ही नहीं सकते. इनमें से ज्यादातर की समस्या के मूल में अपना कोई ठोस कारण बिल्कुल नहीं मिला. कुल मिलाकर अपनी इनकी जितनी समस्याएं थीं, वे सुलट गईं पर तेरी कमीज मेरे से सफेद कैसे? यह संकट बना हुआ है और अंदर ही अंदर खाए जा रहा है. सताए जा रहा है जबकि इसका जवाब साफ है भाई, बढ़िया कपड़ा खरीदा, साबुन, डिटर्जेंट पाउडर, नील आदि में भी गुणवत्ता का ध्यान रखा तो उनकी ज्यादा सफेद है. आपने इस पूरी प्रक्रिया में कहीं कोई चूक की तो आपकी कमीज थोड़ी धुंधली ही रह गई. बस, यही मर्म समझ आ जाए तो जीवन की ज्यादातर समस्याएं हल हो जाएं. मेरे पास आने वाले लोग अक्सर कमजोर आर्थिक स्थिति का हवाला भी देते हैं. इस काम में कभी पति तो कभी पत्नी, सामने आती हैं. इतना पैसा तो सबको चाहिए कि उसकी जरूरतें पूरी हो जाएं. मेरा मानना है कि पैसा बहुत कुछ तो है लेकिन सब कुछ नहीं है. हमारी सोच, आचार-विचार, रहन-सहन इसमें बड़ी भूमिका अदा करते हैं.

अगर पैसा ही जीवन में सब कुछ होता तो...
मैं इन सबसे कहता हूं, खुले मंचों पर कहता हूं कि अगर खुश रहने का कोई कारण केवल पैसा होता तो भला अंबानी बंधु वर्षों पहले अलग-अलग क्यों होते? अगर पैसा ही जीवन में सब कुछ होता तो इंदौर वाले आध्यात्मिक गुरु भैय्यू जी महराज खुदकुशी क्यों कर लेते? महाराष्ट्र में हिमांशु राय जैसा बहादुर पुलिस अफसर खुदकुशी क्यों करता? इंदौर में वरिष्ठ पत्रकार कल्पेश याज्ञनिक और लखनऊ में पुलिस अधिकारी राजेश साहनी की खुदकुशी के मामले में भी पैसा कारण नहीं था. महत्वपूर्ण और जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों की खुदकुशी की ये सभी घटनाएं हाल के वर्षों में हुईं. विषय को समझने के लिए इनका महत्व अभी भी है. हादसे के समय सभी की उम्र 45 से 60 के बीच रही. कुछ के कारण हादसे के साथ ही सामने आ गए और कुछ के आज तक न आए. पता नहीं आएंगे भी या नहीं.

इन असमय मौतों पर सभी का अपना नजरिया हो सकता है. पुलिस का कुछ, दफ्तर वालों का कुछ और परिवार वालों का कुछ, लेकिन एक बात तय है कि इनकी खुदकुशी ने परिवारों को सड़क पर ला खड़ा किया. रुपया, पैसा भले ही बहुत मिल गया हो लेकिन यह सब छद्म ही साबित हुआ. लोग इन घटनाओं को भूल चुके हैं. परिवार अपनों को खोने के बाद अपने तरीके से ही संघर्ष कर रहा होगा.

75 फीसदी समस्याओं का निदान अपने हाथ में
ताजे संदर्भों में देखें तो पता चलता है कि जीवन की आधी से ज्यादा परेशानियां हमारी ओढ़ी हुई हैं. केवल दिमाग को खुला रखने पर इसे सुदूर फेंक सकते हैं. बची हुई कुछ समस्याओं को पति-पत्नी आपसी सूझ-बूझ से निपटा सकते हैं. अब अगर 75 फीसदी समस्याओं का निदान अपने हाथ में है तो फिर इनका असर मासूमों पर क्यों पड़े? हम उन्हें क्यों चिंतामुक्त नहीं कर सकते पढ़ने के लिए? खुद को फिट रखने के लिए? ध्यान रहे मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ बच्चा ही हर क्षेत्र में बहुत अच्छा कर सकता है. बस, उसे अपने मम्मी-पापा का साथ चाहिए. प्यार चाहिए, गाल पर थपकी चाहिए. दादा-दादी या नाना-नानी का प्यार मिल जाए तो सोने पर सुहागा ही साबित होगा. ध्यान रहे, बच्चे कोरे कागज हैं. गीली मिट्टी हैं. आप जो चाहें उन्हें आकार दे सकते हैं. उन पर लिख सकते हैं. अगर ऐसा नहीं हो पाता है तो कहीं न कहीं, हमसे चूक हो रही है और इस चूक से हमें खुद को बचाना होगा. तभी हम अपने बच्चों के साथ न्याय कर पाएंगे. उन्हें उनकी मंजिल तक पहुंचा पाएंगे, मदद कर पाएंगे.

(लेखक सीनियर जर्नलिस्ट, काउंसलर और लाइफ कोच हैं.)

(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं.)

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