वासिंद्र मिश्र ,एडिटर (न्यूज़ ऑपरेशंस), ज़ी मीडिया


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प्रतीक-प्रतिमानों की राजनीति करने वाले लोगों को जब सत्ता मिलती है तो क्यों जीवन दर्शन से दूर चले जाते हैं? फिर साल में एक बार उन्हें रीति रिवाज़ों की तरह याद किया जाता है। क्या प्रतीक और प्रतिमान बन चुके महापुरुष ऐसे अवसरवादी राजनेताओं की रस्मअदायगी के मोहताज हैं?


महात्मा गांधी, राम मनोहर लोहिया, दीन दयाल उपाध्याय और बाबा अंबेडकर का नाम लेकर देश की 4 बड़ी राजनीतिक पार्टियां दशकों से सत्ता की राजनीति करती रही हैं। सत्ता के शीर्ष तक पहुंचने के लिए इन महापुरुषों के सिद्धांतों और दर्शन की दुहाई देती रही हैं लेकिन सत्ता मिलने के बाद उनकी कार्यशैली और इन महापुरुषों के जीवनदर्शन के बीच कोई खास सामंजस्य नज़र नहीं आता।


पंडित दीनदयाल उपाध्याय किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। अपनी सादगी, सरलता, ईमानदारी और प्रतिबद्धता के चलते वे करोड़ों लोगों के मन में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं लेकिन उनके साथ भी कमोबेश वैसा ही व्यवहार हो रहा है जैसा व्यवहार महात्मा गांधी, बाबा अंबेडकर और राम मनोहर लोहिया के मानने वाले इन नेताओं के साथ करते रहे हैं। इस साल पंडित दीनदयाल उपाध्याय के दिए एकात्म मानववाद के सिद्धांत को पचास साल पूरे हो रहे हैं लेकिन क्या दीन दयाल उपाध्याय के दर्शन को अपना ध्येय बताने वाले उनके अनुगामी नेता इसे अपने कर्मों में उतार पाए हैं। क्या इससे ये साबित नहीं हो जाता कि इस दर्शन की बात करने वाले नेता महज एक रस्म अदायगी करते हैं।


25 मई को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दीन दयाल उपाध्याय जी के पैतृक गांव नगला जाने वाले हैं, जहां प्रधानमंत्री एक जनसभा को संबोधित करेंगे। पिछले करीब एक साल से लगातार पूंजीपरस्त और अमीरों की सरकार का आरोप झेल रहे नरेंद्र मोदी की कोशिश खुद को गरीबों को मसीहा साबित करने की है और शायद इसीलिए 'एकात्म मानववाद ' के प्रणेता पंडित दीन दयाल उपाध्याय की जन्मस्थली को चुना गया है।


क्या दरिद्रनारायण की चिंता करने वाले दीनदयाल उपाध्याय की जन्मस्थली से महज जनसभा को संबोधित करने से अपनी सरकार पर लग रहे गरीब विरोधी दाग को धोने में नरेंद्र मोदी कामयाब हो पाएंगे या सचमुच कुछ ऐसा ठोस काम करना होगा जिसकी परिकल्पना 'एकात्म मानववाद के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय' ने की थी।


प्रधानमंत्री के रूप में पंडित दीन दयाल उपाध्याय के गांव तो अटल बिहारी वाजपेयी भी गए थे। वह अटल बिहारी वाजपेयी जिन्होंने दीन दयाल उपाध्याय जी के सचिव के रूप में अपने सार्वजनिक जीवन की शुरुआत की थी। अटल बिहारी वाजपेयी जी लगभग 6 साल तक देश के प्रधानमंत्री रहे लेकिन इन 6 साल के अपने शासन के दौरान उन्हें भी एकात्म मानववाद के सूत्र याद नहीं आए।


मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से देश को बहुत उम्मीदें हैं और देश से ज्यादा उन करोड़ों-करोड़ों कार्यकर्ताओं को उम्मीदें हैं, जिन लोगों ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जीवन दर्शन को अपनाकर अपना संपूर्ण जीवन देशहित में समर्पित कर दिया है। अब देखना ये है कि नरेंद्र मोदी दीन दयाल जी के उस 'एकात्म मानववाद' की फिलॉसॉफी और करोड़ों कार्यकर्ताओं की अपेक्षा पर कितने खरे उतर पाते हैं।