चीन की गोद में मालदीव, भारत के लिए मुश्किल चुनौती
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चीन की गोद में मालदीव, भारत के लिए मुश्किल चुनौती

2013 में एक विवादास्पद चुनाव के बाद अब्दुल्ला यामीन मालदीव के राष्ट्रपति बने, तब से वहां की परिस्थितियां तेजी से भारत की कीमत पर चीन के पक्ष में जाने लगीं.

चीन की गोद में मालदीव, भारत के लिए मुश्किल चुनौती

भारत की चेतावनी को अनदेखी करते हुए मालदीव ने अपने देश में आपातकाल की अवधि को 30 दिन के लिए बढ़ा दिया है, और वह भी असंवैधानिक तरीके से. इस फैसले से वहां का राजनीतिक संकट सुलझने के बजाय और उलझता जा रहा है. इस संकट की शुरुआत उस समय हुई थी, जब पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद समेत कई विपक्षी राजनीतिक नेताओं के पक्ष में आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले को वहां की अब्दुल्ला यमीन सरकार ने अमान्य ठहराते हुए 5 फरवरी को मालदीव में 15 दिन के लिए आपातकाल लगा दिया था. यामीन सरकार के तानाशाही भरे इस ताजा कदम से मालदीव में लोकतंत्र की चाह रखने वाले भारत की चिंता और बढ़ेगी. इस बीच मालदीव के नए मित्र चीन की हिन्द महासागर में नौसैनिक गतिविधि बढ़ गयी है, हालांकि दोनों देश डोकलाम जैसे तनाव से बच रहे हैं.

मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद लगातार अपील कर रहे हैं कि भारत को वहां पर व्याप्त अस्थिरता को खत्म करने के लिए सैन्य हस्तक्षेप करना चाहिए, लेकिन पर्दे के पीछे रहकर वहां की राजनीति को प्रभावित करने वाला चीन किसी बाहरी ताकत के हस्तक्षेप का विरोध कर रहा है. हालांकि आधिकारिक तौर पर चीन ने भारत का नाम नहीं लिया है, लेकिन वहां के सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने भारत का नाम लेकर उसके गुस्से का कारण बताया है. उसका कहना है कि मालदीव द्वारा बड़ी ताकतों से संबंध विकसित करने के कारण भारत गुस्से में है. डोकलाम विवाद के दौरान भड़काऊ बातें करने वाले इस अखबार की टिप्पणी से एक बात का साफ संकेत मिलता है कि चीन वहां की राजनीति में किस सीमा तक लिप्त है. 

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2012 में जब नशीद ने राष्ट्रपति पद से इस्तीफा दिया था, उसके पहले ही चीन ने वहां राजनयिक पैठ बना ली थी. धीरे-धीरे वह अपने रणनीतिक उद्देश्यों - बेल्ट रोड इनिशिएटिव- के लिए मालदीव की सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों का फायदा उठाने की स्थिति में आ गया और भारत पिछड़ गया. इस संकट के बाद हाल ही में एक साक्षात्कार में मोहम्मद नशीद ने कहा था कि मालदीव में भारत के सामने दो समस्याएं हैं- एक उग्र इस्लाम और दूसरा चीन द्वारा भूमि लूट. शीत युद्ध के दौर में भी मालदीव किसी खेमे का हिस्सा नहीं रहा, लेकिन उसके खत्म होने के बाद वहां इस्लामिक कट्टरता ने अपनी पैठ बढ़ानी शुरू कर दी. अब हालत यह बताई जा रही है कि वहां के जेहादी लड़ाके सीरिया में इस्लामिक स्टेट की ओर से लड़ रहे हैं. यही नहीं, मालदीव के शासन के विभिन्न अंगों पर उनकी पकड़ स्थापित हो गई है. चीन अपने रणनीतिक लक्ष्यों को साधने के लिए इन जेहादी तत्वों को सहलाकर उस समाज में अपनी पैठ बढ़ाने में सफल रहा.

2013 में एक विवादास्पद चुनाव के बाद अब्दुल्ला यामीन मालदीव के राष्ट्रपति बने, तब से वहां की परिस्थितियां तेजी से भारत की कीमत पर चीन के पक्ष में जाने लगीं. इसकी शुरुआत भारतीय कंपनी जीएमआर के ठेके को रद्द करने से हुई, जिसे माले एयरपोर्ट को बनाना था. यह ठेका चीनी कंपनी को दिया गया था. मालदीव चीन के बेल्ट रोड इनिशिएटिव का हिस्सा बन गया. उसने चीन को अपने कई द्वीपों को लीज पर दे दिया. आशंका जताई जा रही है कि भारत को घेरने की रणनीति के तहत चीन उसे अपने अड्डे के रूप में विकसित कर सकता है. इसे हिन्द महासागर में भारत के प्रभाव को घटाने और चीनी प्रभाव को बढ़ाने की कवायद के रूप में देखा जा रहा है. यही नहीं, मालदीव ने चीनी युद्धक पोतों को भारतीय हितों को नजरअंदाज करते हुए वहां आने की इजाजत दे दी.

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इस दिशा में ताजा कदम 2017 में मालदीव द्वारा चीन के साथ मुक्त व्यापार समझौता करना है. जिस प्रकार चीन के साथ इस समझौते को अंजाम दिया गया, वह चीन के साथ यामीन सरकार की निकटता स्थापित करने की व्यग्रता को दिखाता है. मालदीव की संसद ने उसे बहुत जल्दबाजी में पास किया था, जब संपूर्ण विपक्ष सदन से अनुपस्थित था. पहले से कर्ज में डूबे मालदीव के लिए यह समझौता घातक है, क्योंकि इससे उसे राजस्व की हानि होगी. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार मालदीव की कुल जीडीपी का करीब 35 प्रतिशत कर्ज बाहरी है, जो 2021 तक बढ़ कर 51 प्रतिशत हो जाएगा. इसका दो-तिहाई चीन का होगा. 

समझा जा सकता है कि इससे श्रीलंका की तरह मालदीव भी चीन के कर्ज जाल में फंस जाएगा, जो छोटे देशों में चीन के प्रभाव विस्तार की नई रणनीति है. इसके बावजूद यामीन सरकार द्वारा इसे अंजाम देना सोचने के लिए विवश करता है. आरोप है कि यामीन सरकार चीन द्वारा अपने तानाशाही शासन के समर्थन के बदले में ऐसा कर रही है. इस समझौते में चीनी सामान को भारतीय बाजार तक पहुंचाने की संभावना भी छिपी हुई है, क्योंकि 1981 में भारत-मालदीव के बीच संपन्न विशेष व्यापार संधि के तहत मालदीव के सामान की भारत में असीमित पहुंच की इजाजत है. अब तो यामीन सरकार मालदीव में चीनी निवेशों की सुरक्षा के लिए चीन से सुरक्षा की मांग करने लगी है.

बहरहाल, यह उसका आंतरिक मामला है कि उसे किसके साथ और क्या समझौता करना है, पर इसके अंतरराष्ट्रीय आयाम हैं, जिसे दूसरे देश नजरअंदाज नहीं कर सकते. ऐसे में अगर मालदीव यह कहता है कि उसके लिए भारत पहले है, तो उस पर विश्वास करना कठिन है. दरअसल, वह भारत का नाम लेकर उसे अंधेरे में रखना चाहता है. सच तो यह है कि अब चीन उसकी रणनीति में पहले स्थान पर आ चुका है. हिन्द महासागर की भू-सामरिक परिस्थितियों के लिहाज से चीन का यहां बढ़ता हस्तक्षेप भारत के लिए चिंता का कारण है. मालदीव की तरह ही श्रीलंका में भी भारत-चीन प्रतियोगिता कर रहे हैं, जहां चीन भारी पैमाने पर निवेश कर रहा है. चीनी नौसनिक पोतों की हिन्द महासागर में आवाजाही बढ़ चुकी है. यह व्यापक भू-सामरिक प्रतियोगिता का हिस्सा है, जिसमें दूसरी बड़ी शक्तियों का भी स्वार्थ छिपा हुआ है.

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एक किस्म से यह इंडो-पैसिफिक और बेल्ट रोड इनिशिएटिव की अवधारणा की लड़ाई भी है. ऐसे में यह सवाल उठता है कि भारत के पास मालदीव संकट के संदर्भ में विकल्प क्या हैं? 1988 में मालदीव में किए गए ऑपरेशन कैक्टस की तर्ज पर भारत को सैन्य कार्रवाई करनी चाहिए, लेकिन तब और अब की परिस्थितियों में अंतर है. उस समय भारत की सेना मालदीव की सत्तासीन सरकार के मुखिया मामून अब्दुल गयूम द्वारा मदद मांगे जाने पर वहां गई थी. तब पूरी दुनिया ने वहां व्याप्त अस्थिरता को खत्म करने के लिए भारत की सराहना की थी, लेकिन मौजूदा परिदृश्य में वहां की निर्वाचित यामीन सरकार ने भारत को नहीं बुलाया है. 

पूर्व राष्ट्रपति नशीद की अपील का कोई वैधानिक औचित्य नहीं है. ऐसे में भारत के लिए वहां सीधे हस्तक्षेप का कोई आधार नहीं बनता. यह भारत की घोषित विदेश नीति के अनुकूल भी नहीं है. यह तभी संभव है, जब कोई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था बने. इस दिशा में संयुक्त राष्ट्र की पहल ही कोई मौका प्रदान कर सकती है, लेकिन इसमें चीन बाधक हो सकता है. वह अभी से किसी अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप के विरोध की मंशा जता रहा है, हालांकि नौसैनिक दृष्टि से हिन्द महासागर में उसकी क्षमता सीमित है. सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात से मालदीव में काफी फंडिंग होती है, लेकिन ऐसा नहीं लगता कि वह यामीन सरकार के पक्ष में खुलकर आएगा. हां, पाकिस्तान उसके साथ जरूर है.

एक विकल्प यह है कि मालदीव में रह रहे भारतीयों की जान-माल को खतरा हो, तो भारत वहां हस्तक्षेप कर सकता है, लेकिन ऐसी स्थिति अभी नहीं बनी है. वैसे भी सैन्य हस्तक्षेप कोई कारगर विकल्प नहीं है. यह तभी कारगर हो सकता है, जब वहां की सरकार ही नहीं, समाज का भी उसे समर्थन प्राप्त हो, अन्यथा बाहरी सेना के सामने विपरीत स्थिति पैदा हो जाती है. इराक, अफगानिस्तान में अमेरिकी हस्तक्षेप इसका उदाहरण है. खुद भारत के सामने श्रीलंका में वहां की सरकार के निमंत्रण पर भेजी गई शांति सेना का दृष्टांत मौजूद है. बाहरी ताकतों से प्रेरित इस्लामी जेहादियों के कारण मालदीव के समाज में अपनी पैठ बढ़ाने में भारत को धीरे-धीरे मुश्किल हो जाएगी. ऐसी स्थिति में भारत को वहां की मौजूदा यामीन सरकार के खिलाफ जनता के बीच से उठ रही आवाज को मजबूत होने का इंतजार करना होगा. 

लेकिन भारत के लिए असली चिंता वहां की यामीन सरकार का बने रहना नहीं है, बल्कि वहां चीन की बढ़ती अवांछित दखल है. इसकी क्या गारंटी है कि यामीन की जगह आने वाली कोई अन्य सरकार चीन परस्त न निकले या उसे अपना राजनीतिक हित सर्वोपरि न दिखने लगे? जरूरत इस बात की है कि वहां की जनता चीन की चालबाजियों को समझे, यह समझे कि चीन प्रलोभन देकर उन्हें अपना गुलाम बना रहा है. जब तक वहां की जनता चीन की साम्राज्यवादी नीति के खिलाफ खड़ी नहीं होती, तब तक भारत के पास विकल्प सीमित हैं.

(लेखक वरिष्‍ठ पत्रकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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