सियासत में आह्वाहन की भूमिका
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सियासत में आह्वाहन की भूमिका

एकजुटता और अखंडता को दर्शाता है- आह्वाहन। श्रेष्ठ नेतागण या किसी समुदाय विशेष को दिशा निर्देशित करने वाले व्यक्ति किसी विशेष कार्य के लिए लोगों के एकजुट होकर कदम से कदम मिलाकर चलने का आह्वाहन करते हैं। महात्मा गांधी ने आह्वाहन किया था उन बिखरे लोगों का जो आजके बने भारत में तो थे पर उनमें मिलकर चलने की असल भावना गांधीजी ने ही जगायी। लाल बहादुर शास्त्री जी ने देशवासियों का आह्वान् किया था कि देशवासी कुछ दिनों के लिए एक वक्त का भोजन छोड़ दें। ताकि ग्रामीण इलाकों में चल रही भूखमरी की समस्या से कुछ हद तक निज़ाद मिल सके।

सियासत में आह्वाहन की भूमिका

सर्वमंगला मिश्रा

एकजुटता और अखंडता को दर्शाता है- आह्वाहन। श्रेष्ठ नेतागण या किसी समुदाय विशेष को दिशा निर्देशित करने वाले व्यक्ति किसी विशेष कार्य के लिए लोगों के एकजुट होकर कदम से कदम मिलाकर चलने का आह्वाहन करते हैं। महात्मा गांधी ने आह्वाहन किया था उन बिखरे लोगों का जो आजके बने भारत में तो थे पर उनमें मिलकर चलने की असल भावना गांधीजी ने ही जगायी। लाल बहादुर शास्त्री जी ने देशवासियों का आह्वाहन् किया था कि देशवासी कुछ दिनों के लिए एक वक्त का भोजन छोड़ दें। ताकि ग्रामीण इलाकों में चल रही भूखमरी की समस्या से कुछ हद तक निज़ाद मिल सके। उस वर्ष फसलों को काफी नुकसान पहुंचा था। किसानों की हालत दयनीय हो गयी थी। इसी तरह समय समय पर अनेक गणमान्यों ने जनसाधारण को एकजुट होने के लिए आवाज लगायी। जनसैलाब तो हर बार उमड़ पड़ता है। भले वो जन साधारण स्वयं पधारी हो या आमंत्रण पर।

आह्वाहन हर नेता करता है।यही आह्वाहन जिसकी एक पुकार पर जनता भागी चली आती है और एक साधारण नेता भी गणमान्य की उपाधि हासिल कर लेता है। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जो अपने कालेज के वक्त से राजनीति में अपनी दखल बना चुकी थीं। उनका सर्वोत्तम प्रिय नारा रहा- ब्रिग्रेड चलो। उनके पक्षधर एवं जुगाड़ु जनता भीड़ बनने एवं भीड़ का हिस्सा बनने चल देते थे। एक दिन के नाश्ते के इंतजाम पर ये गरीबी और भूखमरी से जुझते लोग जो अपने विवेक का प्रयोग किये बिना अंधानुकरण करने चल देते हैं। उन्हें यह भी पता नहीं कि वो किसको सपोर्ट करने जा रहे हैं। क्या वह व्यक्ति देश अथवा राज्य के हित में है या नहीं। सवाल यहीं उठता है कि जिस व्यक्ति पर परिवार के भरण पोषण की जिम्मेदारी है पर अर्थिक तंगी के कारण बेबस और लाचार जब अपनी रोजमर्रा की हालत सुधार पाने में असक्षम है तो देश के विषय में सोचना उसके विवेक से परे है। राजनीति यहीं खत्म नहीं होती। पलटवार जब सीपीएम करती थी- तो फिर ब्रिगेड चलो। आधी भीड़ जो ममता के जूलूस में शामिल होती थी वही सीएम में भी जाती थी। वही इंसान जो सरकार से सवाल पूछता था नारे लगाकर वही दूसरे दिन दूसरा नारा बोलकर अपना विरोध दर्शाता था। आज भी यही हाल है।

देश के प्रधानमंत्री मोदी जी और दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल जी ने भी जनता को कई कार्यों में शामिल होने और मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए जनता का आह्वाहन किया। मोदी जी ने गंगा सफाई अभियान से लेकर स्वच्छता अभियान के तहत अपने मंत्रियों से लेकर आम जनता को भी अच्छे कार्यक्रम में भागीदार बनने के लिए आह्वाहन किया। बड़े बड़े उद्दोगपतियों से लेकर अभिनेता मंत्री सबने अपने हाथ में झाड़ु उठाया और नौ रत्नों ने सफाई करके मुहिम का शुभारंभ किया। पर हाल ही में एक सर्वे के मुताबिक बनारस- मोदी जी का संसदीय क्षेत्र सबसे गंदे शहर की फहरिस्त में शामिल दिखा। केजरीवाल जी तो जनता के अनन्य भक्त हैं। कोई भी काम जनता से पूछे बिना करते ही नहीं। बस अपने सभी एमएलए की तनख्वाह चार गुनी बढ़ाने के वक्त पूछना भी लाज़मी नहीं समझा।

जब कोई नेता देश के नवयुवकों का आह्वाहन करता है तो देश में नवसंचार होता है। संचार होता है जोश का, नयी उम्मीद और दिशा का। नेतृत्व अगर सही है तो दिशा सही होगी अन्यथा नेतृत्वविहीन संचालन भटकाव की ओर ले जाता है। आज देश में गुलामी की बंदिशें नहीं है। स्वतंत्रता, स्वछंदता पर्याप्त है। पर हार्दिक पटेल और कन्हैया जैसे लोगों को राजनीति के पल्लू में ढकी आजादी लहराने की स्वतंत्रता की मांग कर देश में आह्वाहन कर भटकाव की राजनीति को हवा दे रहे हैं। जनमानस आज सबको टी वी चैनलों के माध्यम से आसानी से देख सुन सकता है। सही गलत का आंकलन कर सकता है। यह जे पी जी का समय नहीं है कि मात्र एक रेडियो या दूरदर्शन पर समाचार आने का इंतजार करना होगा। या दूर दूर से आकर अपने नेता को एक झलक देखकर याद रखना होगा। चौबीस घंटे न्यूज चैनल घर घर पल पल की खबरें पहुंचा रहे हैं। जहां जनता को परखने के संसाधन अधिक से अधिक उपलब्ध हो रहे हैं वहीं इसका दूरुपयोग भी हो रहा है। जानबूझकर ऐसे हत्कंडे अपनाये जा रहे हैं कि मीडिया बाध्य हो उन्हें दिखाने को। जिससे उन्हें आसानी से पब्लिसिटि उपलब्ध हो जाती है। देश में बेवजह बहस के मुद्दे सिर उठाने लगते हैं। नाम दे दिया जाता है क्रांति का, आजादी का। इन्हें क्या पता अंग्रेजों के शासनकाल में क्या इन्हें इतनी छूट मिलती जिसतरह जेनयू कैम्पस में ये लोग नारे लगाये। जेल जाकर कन्हैया ने कोई तमगा हासिल नहीं किया। लेकिन, छूटने के बाद उसके कैम्पस में उसकी लोकप्रियता जैसे रातों रात बंदर के हाथ मोतियों की माला लग जाना।

साम्यवाद, भूखमरी से आजादी की मांग कर रहे इन छात्रों को सही गलत का एहसास नहीं। इतनी ही आजादी पसंद है तो दिल्ली और उससे सटे एनसीआर में सुव्यवस्था लाने के लिए इन छात्रों ने कौन सी ऐसी मुहिम छेड़ी जो सफल या असफल हुई। भूखमरी की समस्या मिटाने के लिए क्या कदम उठाये इन्होंने। आवाज बुलंद होनी चाहिए पर शिगूफे छोड़ने के लिए नहीं। देश को परस्पर उन्नति की दिशा में आगे बढ़ाना है तो नवयुवकों को अपनी सोच को विवेक से तालमेल बैठाना होगा। वरना एक दिन के हीरो बनने को जारों लोग लालायित हैं। जिससे देश का भला नहीं हो सकता।  
आह्वाहन, को भ्रमित नहीं होने दें। सशक्तता का द्दोतक यह शब्द कहीं शब्दकोश से गायब न हो जाय। यह एक शक्ति है। जिससे बलहीन को बल और विरोधी पक्ष में भय का संचार हो जाता है। यह बिगुल है। युद्ध की पहली इकाई है। ऐसे समय में देश को समझने वाले बुद्धिजीवियों की पहल होनी चाहिए कि ऐसे नवयुवकों को सही मार्ग प्रशस्त करें।

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