वासिंद्र मिश्र
एडिटर (न्यूज़ ऑपरेशंस), ज़ी मीडिया


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आतंकवाद से घिरे पाकिस्तान के लिए आतंकियों के हमले कोई नई बात नहीं है लेकिन 16 दिसंबर 2014 की घटना ना तो पाकिस्तान के हुक्मरान भूल पाएंगे ना ही उनकी अवाम। इतना ही नहीं इस घटना ने दुनिया के हर मुल्क, हर इंसान को झकझोरा है।


लाखों लोगों के दिलों से इंसानियत के लिए भरोसे की चूलें हिला दी हैं। यहां तक कि जिहाद के नाम पर दहशत फैलाते रहे अफगान तालिबान के आतंकी भी इस घटना को अफसोसनाक बता रहे हैं। पर सबसे ज्यादा अफसोस इस बात का है कि ये कायराना हरकत उन लोगों ने की है जो कथित तौर पर इस्लाम की शिक्षा को आगे बढ़ाने की बात करते हैं। क्या इस्लाम मासूमों के खून बहाने की इजाज़त देता है? क्या वो नफरत का सैलाब पैदा करने की इजाज़त देता है? अल्ला हू अकबर का नारा लगाकर जब आतंकी बच्चों के शरीर में गोलियां उतार रहे होंगे तब क्या खुदा खुश हो रहा होगा? यकीनन नहीं...।
 
दरअसल इस्लाम और खुदा के नाम पर ऐसी कायराना और जाहिल हरकत करते आ रहे लोग कभी इस्लाम को समझ हीं नहीं पाए, वो ये नहीं समझ पाए कि इस्लाम तलवार के दम पर पैदा हुआ धर्म नहीं है। जो इस्लाम को जानते हैं वो ये भी जानते हैं कि ये धर्म प्यार, इंसानियत और बराबरी की शिक्षा देता है। तो फिर ये कौन से लोग हैं जो इस्लाम के नाम पर नफरत फैलाने की ठेकेदारी लिए बैठे हैं। क्या है इनका दीन और ये किसे अपना खुदा मानते हैं।


भारत के बड़े विद्वान और इस्लाम के जानकार हज़रत मौलाना अली मियां  नफरत की इस आग को इस्लाम से जोड़े जाने के खिलाफ थे। वो खिलाफ थे कि इस्लाम के नाम पर जिहाद और जिहाद के नाम पर इस तरह की हरकतें नहीं होनी चाहिए। मौलाना अली मियां ने ये डर जताया था कि नफरत और हिंसा की आग उन सभी परंपराओं को जलाकर खाक कर देगी जिसने इस्लाम और इसका पालन करने वालों को आदर औॅर प्रतिष्ठा दिलाई थी। मौलाना अली मियां ने अपील भी की थी कि नफरत की ये आग बुझनी चाहिए नहीं तो ये दूसरों का मुल्क, उनके घर या उन्हें ही नहीं जलाएगी बल्कि इसकी तपिश में वो सब झुलसेंगे जो लेशमात्र भी इसका विरोध करेंगे। क्या मौलाना अली मियां की ये बातें सच नहीं हैं। और फिर नफरत की इस खेती से हासिल ही क्या होगा? जो हरकत पाक कुरान शरीफ के खिलाफ हो, जो इस्लाम के खिलाफ हो, उससे भी बढ़कर जो इंसानियत के खिलाफ हो उसे जिहाद का नाम कैसे दिया जा सकता है।
 
हर मज़हब मोहब्बत और अमन का पैगाम देता है लेकिन पाक इस्लाम के नाम को बदनाम करने वालों से कौन पूछे कि उन्होंने जिहाद का क्या मतलब निकाला है। उन्हें आखिर पाक कुरान को बदनाम करने का हक किसने दे दिया। कुरान कहता है कि जिहाद का मतलब संघर्ष या जद्दोजहद करना होता है। इसका मतलब किसी बेगुनाह की जान लेना नहीं और ना ही युद्ध करना है। युद्ध के लिए अरबी भाषा में अलग से शब्द है गजवा या मगाजी। जबकि जिहाद का मतलब इनसे बिल्कुल उलट है। जिहाद दो किस्मों का बताया गया है, पहला जिहाद अल अकबर यानी इंसान अपने अंदर की बुराइयों से लड़े, अपने बुरे व्यवहार को अच्छाई में बदले इसे बड़ा जिहाद कहा गया है। जबकि जिहाद अल असगर का मतलब है समाज में फैली बुराइयों के खिलाफ संघर्ष, ऐसे में खुद ही सोचिए कि तालिबान के तथाकथित जिहादी अपने अंदर की बुराइयों से लड़ रहे हैं या फिर समाज की बुराइयों से?


क्या ये सच नहीं है कि मतलबपरस्ती के लिए ये इस्लाम की पाक शिक्षा को तोड़मरोड़कर अपने नापाक मंसूबों के लिए इस्तेमाल करते हैं। पाकिस्तान के पेशावर का मंजर ये बताने के लिए काफी है कि पाक हुक्मरानों औैर पाक की अवाम को सबक सिखाने निकले तथाकथित जेहादी दरअसल दरिंदे थे। ऐसे में ये लड़ाई इंसान और दरिंदों के बीच की है। जो बच्चे मरे, वो ना तो हिंदू थे ना ही मुसलमान। वो इंसान का भविष्य थे, जिन पर अपने मुल्क को आगे ले जाने की जिम्मेदारी थी। और अब भी अगर आतंक से लड़ने से पहले धर्म की बात सामने आई तो इसका कोई हल नहीं निकल सकता।


कोई भी धर्म आतंक फैलाने, कत्लेआम करने की इजाज़त नहीं देता, तो फिर क्यों धर्म के नाम कुछ गए गुज़रे लोग आतंक का राज कायम करने की सोचते हैं। लड़ाई आतंकवाद के खिलाफ है और अगर इस घटना ने पाकिस्तान के अलावा बाकी देशों पर भी असर डाला है तो उन्हें कोशिश करनी चाहिए कि ऐसी घटना दोबारा ना हो। अपने हित, अपने अहंकार अपने मंसूबों से ऊपर उठकर सबको साथ आना चाहिए और पूरी ताकत से आतंकवाद का खात्मा कर देना चाहिए।