नर्मदा क्या सोच रही होगी- भाग-2 : क्या समाज और संस्कृ​ति का विस्थापन संभव है!
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नर्मदा क्या सोच रही होगी- भाग-2 : क्या समाज और संस्कृ​ति का विस्थापन संभव है!

नर्मदा की परिक्रमा यात्रा पेट ही नहीं भरती, वह एक अद्भुत देशाटन है. वह प्रकृति से साक्षात्कार है. इससे इतर वह आत्मसाक्षात्कार है.

चिखल्दा गांव के लोगों का आरोप है कि उन्हें ऐसी जगह विस्थापन के लिए प्रस्तावित की जो दोबारा डूब में आने वाली है.

राकेश कुमार मालवीय

किसी भी विस्थापन के बारे में सोचता हूं तो मेरी नजर के सामने सबसे पहले अपना घर याद आ जाता है. आप भी महज एक मिनट का छोटा-सा समय निकालकर केवल यह कल्पना कर लीजिए. किसी भी तरह के विकास के लिए आपका घर तोड़ा जा रहा हो, हटाया जा रहा हो, डुबोया जा रहा हो, वह भी यह सुनिश्चित किए बिना कि आपका पुनर्वास क्या होगा, कैसे होगा, कितना होगा, कहां होगा, मेरे आसपास का क्या होगा, मेरे रिश्ते-नातों का क्या होगा, मेरे पशु-पक्षियों और पेड़ों का क्या होगा, जिंदगी ऐसी ही रहेगी, और अच्छी हो जाएगी, या बर्बाद ही हो जाएगी.

यह बात तथ्यात्मक से ज्यादा भावनात्मक भी लग सकती है, लेकिन वास्तव में जिनकी जिंदगी डूबती-सी लगती है, यह उनके लिए कैसी होगी. ऐसे महज एक-दो परिवार नहीं हैं, दावा है कि 192 गांव के 43 हजार परिवार इस विकासजनित त्रासदी की चपेट में हैं. यह महज छोटी संख्या नहीं है. इन परिवारों में एक परिवार मेरा भी शामिल होता तो. मुझे अंदर से गुस्सा आता, मैं विद्रोह कर चुका होता, इतनी लंबी अहिंसक लड़ाई के बाद भी कोई नहीं सुनता, तो हो सकता है कि मैं किसी हिंसा के बारे में भी सोच चुका होता. ऐसा सोचने में मुझे कोई बुराई भी नहीं लगती है आखिर सरकार भी तो किसी असहज परिस्थिति में लोगों पर गोली चलवा ही देती है!

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क्या किसी समाज और संस्कृति का विस्थापन संभव है? तकरीबन एक घंटे की चर्चा के बाद राजघाट के किनारे अपना आश्रम बनाकर रह रहे स्वामी रामदासजी महाराज से जब मैंने अपना अंतिम सवाल किया तो उनका दो टूक जवाब था नहीं. किसी भी सभ्यता, संस्कृति और समाज का किसी भी कीमत पर कोई विस्थापन नहीं कर सकता है. यह महज सरकारों का अहंकार है कि वह यह समझती हैं कि इस समाज को वह अपनी योजनाओं की बदौलत विस्थापित कर देंगी.

अपने जवाब के अंत में उन्होंने एक सवाल हमसे ही दागा. पूछा कि एक बांध की औसत उम्र क्या होती है. हम सचमुच आंकड़ा देने की स्थिति में नहीं थे. उन्होंने ही बताया कि 90 से 110 साल अधिकतम. इतने सालों में बांध में नदी के साथ बहकर आने वाली गाद जमा हो जाती है और बांध बेकार हो जाता है. और महज सौ सालों की जरूरत के लिए हम हजारों साल पुरानी सभ्यता को डुबोने जा रहे हैं.

उनके इस वाक्य से मुझे समझ आया कि वास्तव में क्या उनका इतना आसान-सा सवाल क्या नीति-नियंताओं को समझ नहीं आया होगा. जिस कैंपस में वह बैठकर बात कर रहे हैं, वह धर्मशाला ही महज सौ साल पुरानी है. उस धर्मशाला को उन्होंने पिछले दस-बीस सालों में अपने प्रयासों से सजीव किया है. यहां पर नर्मदा परिक्रमा करके आने वाले लोगों के लिए हर वक्त भोजन और ठहरने की व्यवस्था रहती है. यह सभी इंतजाम समाज करता है.

 

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इसी परिसर में ​तकरीबन सौ साल पुराना दत्त मंदिर है. इसी परिसर के एक कोने पर वही गांधी समाधि है. इस राजघाट को आज की शब्दावली में पीपीपी मॉडल के तहत बनाया गया था. इसमें कुल 44,110 रुपए का खर्च आया था. इस खर्च में 26 हजार रुपए यहां के लोगों ने जुटाए थे और शेष 18,110 रुपए राजदरबार ने खर्च कि‍ए थे. इसी घाट के ​एक शिलालेख पर किसी सूचना के अधिकार की तरह ही पूरा हिसाब-किताब सार्वजनिक किया गया है. ऐसी अदभुत पारदर्शिता और काम की बुनि‍यादी मजबूती.

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पत्थरों को लोहे की छोटी-छोटी रॉड से लॉक करके इस तरह जमाया गया कि अब तक नर्मदा की कई-कई बाढ़ों में भी यह सुरक्षित रहा. यहां नर्मदा के भंडारे भी होते हैं, और गांधी को भी याद किया जाता है. यह पूरा परिसर अब डूब में आने से यहां के साधु-संत चिंतित हैं. मंदिरों को बनाने वाली सरकार मंदिरों को डुबोने में लगी है. यह मंदिर उनके एजेंडे में क्यों नहीं. इनका भी पुनर्स्थापन होगा तो कैसे, क्या एक लाइन में हर बसाहट का, मंदिर का, घर का, प्लॉट दे देने से यह अद्भुत प्राकृतिक दृश्य रच पाएगा, इसमें उन्हें शंका है. नर्मदा दुनिया की एकमात्र ऐसी नदी है जिसकी परिक्रमा की जाती है. पहले यह परिक्रमा नदी के किनारे-किनारे पैदल चलकर तीन साल तेरह महीने, तेरह दिन में पूरी होती थी. परिक्रमा को कहते-कहते परकम्मा कहा जाने लगा, और परिक्रमा करने वालों को परकम्मावासी. मतलब जो पूरी तरह परकम्मा में ही बस गया हो. जेब में एक फूटी कौड़ी भी न हो तो कोई चिंता नहीं, क्योंकि परकम्मा वाला खुद को नर्मदा को सौंप देता है.

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नर्मदा के किनारे रहने वाले सबकुछ दिया नर्मदा का दिया हुआ मानते हैं, इसलिए परकम्मा करने वालों की जिम्मेदारी को वह अपनी मानते हुए उनके रुकने-खाने का इंतजाम सदियों से करते रहे हैं. किसी परकम्मावासी ने यह कभी नहीं कहा कि वह एक दिन भी भूखा रहा हो. नर्मदा की यह यात्रा पेट ही नहीं भरती, वह एक अद्भुत देशाटन है. वह प्रकृति से साक्षात्कार है. इससे इतर वह आत्मसाक्षात्कार है. वह दो संस्कृतियों का मिलन बिंदु भी है. वह उत्तर और दक्षिण भारत दोनों का ही एक मिलन और प्रस्थान बिंदु है, इसलिए वह हर छोर पर पवित्र माना गया है. यह सहज है. नानक, कबीर, मीरा जैसे कई उदाहरण हैं जिन्होंने इस सहज मार्ग से धर्म, जीवन, प्रकृति और समाज दर्शन का रास्ता चुना.
 
आधुनिक समय में इसके स्वरूप में बदलाव निश्चित ही आते गए, पर यह विकल्प समाज के सामने खुला हुआ था. इस हजारों साल पुराने विकल्प की भी महज सौ साल की उम्र वाली एक विकास योजना ने बलि चढ़ा दी. वह रास्ते खंडित हो गए, या होने की कगार पर हैं. अपनी परिक्रमा पर इतराने वाली नर्मदा क्या अब खुद पर नाज कर सकेगी.

सैकड़ों साल पुराने मंदिर हैं. हर मंदिर से जुड़ी हुई कुछ कहानियां हैं, कुछ मान्यताएं हैं, परंपराएं हैं. कागजी योजनाओं से ढांचों का विस्थापन तो संभव है, लेकिन इन परंपराओं को क्या कोई योजना, कोई मुआवजा कभी विस्थापित कर सका है. राजघाट पुल के उस पार एक गांव है चिखल्दा. चिखल्दा और राजघाट को जोड़ने वाला पुल भी अब अपनी अंतिम सांसें गिन रहा है.

अलबत्ता उसकी जगह एक बड़ी ऊंचाई वाला पुल कसरावद गांव के पास जरूर बन चुका है. सरकार जो बनाना चाहती है, उसे बना देती है. वह चाहती तो 43 हजार परिवारों के विस्थापन के लिए भी उसके पास 32 साल का समय था. 32 सालों में वह कम से कम आधारभूत जरूरतों को पूरे करने वाला मॉडल तो जरूर ही खड़ा करके आंदोलन करने वालों का मुंह बंद कर सकती थी, पर ऐसा नहीं हो पाया, सरकार के एजेंडे में पुल तो था, पर कोई बसाहट नहीं. चिखल्दा गांव के लोगों का आरोप है कि उन्हें प्रशासन ने एक ऐसी जगह विस्थापन के लिए प्रस्तावित की जो दोबारा डूब में आने वाली है.

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चिखल्दा गांव में हिंदू-मुस्लिम दोनों ही आबादी हैं. यहां स्कूल भी चलता है और मदरसा भी. नर्मदा किस तरह दो धर्मों को भी अपने में समाती है, इसका एक उदाहरण चिखल्दा गांव भी है. इसका एक उदाहरण नर्मदा के किनारे बसा शिव मंदिर है. इस शिव मंदिर के बारे में मान्यता यह है कि जब भी सूखा पड़ता है, बारिश नहीं होती, तब यहां के लोग नर्मदा के पानी से शिव मंदिर को पूरा भरते हैं. चमत्कार यह होता है कि पानी बाहर निकलने के सारे रास्ते बंद कर देने के बावजूद इस मंदिर में मौजूद शिवलिंग कभी डूबता नहीं. इसमें पानी भरने के लिए मंदिर से घाट तक लाइन लगाई जाती है. इस पानी के बर्तन इस लाइन से होकर ही आते हैं. ​लाइन में हिंदू खड़ा है या मुसलमान कोई नहीं देखता. यह नर्मदा के प्रति आस्था है. नर्मदा सभी को आस्था देती है.
जारी...

(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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