Analysis : विदेशी निवेश के लिए सरकार की नई कवायद से जुड़े कुछ तथ्य
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Analysis : विदेशी निवेश के लिए सरकार की नई कवायद से जुड़े कुछ तथ्य

2013 में हम एफडीआई प्रवाह के मामले में 15वे नंबर पर थे, 2014 में 9वें पर आ गए थे. और 2015 में हम एफडीआई के लिए सबसे अच्छा विकल्प बनकर उभरे थे.

Analysis : विदेशी निवेश के लिए सरकार की नई कवायद से जुड़े कुछ तथ्य

विदेशी व्यापारियों के लिए भारत में निवेश करना और आकर्षक बना दिया गया. एकल ब्रांड खुदरा बाजार, निर्माण व रीयल एस्टेट और विमानन के क्षेत्र में नई छूट दी गई हैं. हालांकि ऐसा आकर्षण पहले भी पैदा किया गया था. लेकिन उस कवायद के मुताबिक कोई खास फायदा हुआ नहीं दिखा. हमारे पास किसी भी नए आर्थिक कदम के नफे-नुकसान को परखने के लिए सीमित तरीके हैं. मसलन जीडीपी वृद्धि दर, रोजगार सृजन दर आदि. यह भी एक तथ्य है कि पिछले कुछ साल में भारत में विदेशी निवेश और देशों की तुलना में बढ़ा है.

2013 में हम एफडीआई प्रवाह के मामले में 15वे नंबर पर थे, 2014 में 9वें पर आ गए थे. और 2015 में हम एफडीआई के लिए सबसे अच्छा विकल्प बनकर उभरे थे. 2015 में हमने चीन और अमेरिका को भी पीछे छोड़ दिया था. लेकिन यह तुलनात्मक रूप से ही था. लेकिन अब सवाल यह उठता है कि उस कवायद के बावजूद भी इस समय हमारी जीडीपी दर गिर रही है. रोजगार के अवसर भी उस दर से नहीं बढ़े हैं. विदेशी निवेश से कितना फायदा होता है और कहां-कहां फायदा होता है ये भी शोध का विषय होना चाहिए.

बहरहाल इस बार विदेशी निवेशकों के सामने मालिकाना हक बढ़ाने का आकर्षण जोड़ा गया है. इस कवायद की पृष्ठभूमि पर गौर करें तो इस समय भी दुनिया मंदी की गिरफ्त से निकल नहीं पाई है. उत्पादकों का माल बिक नहीं पा रहा है. सबको नए बाजार यानी नए ग्राहकों की तलाश है. इस लिहाज से देखें तो इस माहौल में एकल ब्रांड खुदरा बाजार, निर्माण व रीयल एस्टेट और विमानन के क्षेत्र में विदेशी व्यापारियों को भारत में अपनी रकम लगाने का आकर्षण बढ़ाने की कोशिश हुई है. इस कोशिश का क्या फायदा होगा इसे हाल की पुरानी कवायद को सामने रखते हुए सोचा जाना चाहिए. यह सोच विचार इस काम भी आएगा कि अगर अब भी खास फर्क न पड़ा तो हमारी सरकार का अगला कदम क्या होगा या होना चाहिए? लगे हाथ यह अनुमान भी लगाया जाना काम का साबित हो सकता है कि विदेशी निवेश को लुभावना बनाने की फौरी जरूरत क्यों आन पड़ी.

अभी क्या जरूरत थी...
पहला कारण यह कि बजट आने वाला है. इस बार के बजट में सबसे ज्यादा दिक्कत काम धंधे बढ़ाने के लिए रकम का टोटा पड़ने की ही आने वाली है. 50,000 करोड़ के नए कर्ज की बात सरकार कर ही चुकी है. सो इस तरह के अनुमानित प्रबंध के जरिए बजट को लुभावना दिखाने में आसानी होगी. लेकिन बजट में ऐसे अनुमानों की ज्यादा गुंजाइश निकलती नहीं है. फिर भी अगले साल बेहतर आर्थिक माहौल की उम्मीद बंधाने में तो ये बातें काम आ ही सकती हैं.

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नए एलान का दूसरा कारण यह बताया जा रहा है कि इस बार विश्व आर्थिक मंच की बैठक में देश के प्रधानमंत्री खुद ही जा रहे हैं. सिर्फ दस दिन बाद ही प्रधानमंत्री को वहां भाषण देना है जो दुनिया के तमाम देशों को भारत आकर व्यापार करने का न्योता देने का भी मौका होगा. गौरतलब है की दावोस की बैठक के दौरान ही विश्व की बड़ी बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ भी एक बैठक है. हालांकि ये न्योते पहले भी दिए जा चुके हैं, लेकिन नए वायदों के साथ वहां प्रधानमंत्री का भाषण बेशक आकर्षक होगा.

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तीसरा कारण भारत में आर्थिक गतिविधियों के लिए धन का टोटा पड़ना है ही सो विदेशी निवेश बढ़ाने के अलावा और कोई उपाय कोई भी नहीं सूझ रहा है. रही बात विदेशी उपाय के नफे-नुकसान की, तो हमें इसका कोई प्रत्यक्ष अनुभव अब तक इसलिए नहीं हो पाया है क्योंकि इस मामले में हमने पहले जो सोचा था वह अब तक हुआ ही नहीं है. लिहाजा फिलहाल विदेशी निवेश के नफे-नुकसान का ठोस तर्क कोई दे नहीं सकता.

अब तक क्यों नहीं हो पाया यह काम
आर्थिक क्षेत्र के विशेषज्ञ लगातार याद दिलाते चले आ रहे हैं कि दुनिया के सभी बाजार संतृप्त अवस्था में हैं यानी अपनी क्षमताओं का भरसक इस्तेमाल कर रहे हैं. कहा जाता है कि जब माल की मांग नहीं बढ़ती तब मंदी का अंदेशा खड़ा हो जाता है. यह भी तथ्य है कि पिछले दो दशकों में दुनिया में जिस तरह से ताबड़तोड़ उत्पादन का दौर चला उसके बाद बाजार को कभी न कभी तो संतृप्त होना ही था. इसका एक उदाहरण हम खुद हैं. विनिर्माण के क्षेत्र में गिरावट और सेवा के क्षेत्र में बढ़ोतरी का हमसे बेहतर उदाहरण कौन हो सकता है.

हैरत की बात है कि कृषि प्रधान देश में कृषि क्षेत्र में ही पिछले साल के मुकाबले इस साल गिरावट के बावजूद हमारे यहां चिंता या बैचेनी नहीं दिखी. और यह चिंता शायद इसलिए नहीं है कि जीडीपी में इस क्षेत्र की सिर्फ 17 फीसद भागीदारी है. ऐसा मानने के बाद क्या आश्चर्य है कि हमारा सारा ध्यान विनिर्माण, निर्माण और सेवा पर ही सीमित हो जाए. वैसे अर्थशास्त्र के विद्वानों और प्रबंधन प्रौद्योगिकी के विशेषज्ञों को जल्द ही एक फॉर्मूला बनाने के काम पर लग जाना चाहिए कि उत्पादक क्षेत्र, सेवा क्षेत्र और कृषि में विकास के बीच क्या अनुपात हो. और शायद तब हमें यह आसानी से समझ में आ जाएगा कि विदेशी निवेशक इस माहौल में भारत आकर व्यापार करने में दिलचस्पी क्यों नहीं ले रहे हैं. हां, अगर यह बात सोची जा रही हो कि वे विदेशी कंपनियां अपना माल यानी अपने ब्रांड का माल भारत आकर बेचने के लिए एक आकर्षक मौका देखेंगी, तो बात अलग है. और अगर यह आकर्षक मौका हो भी तो क्या वे यह नहीं देखेंगी कि भारत के लोगों की जेब में उनका माल खरीदने के लिए पैसे हैं या नहीं?

अगले कदम का अनुमान
इतना तो तय है कि सरकार का अगला कदम किसी और तरीके से निजी निवेश बढ़वाने का ही होगा. वो भले ही विदेशी की बजाए देशी निजी निवेश बढ़वाने के लिए हो. वैसे ये प्रत्यक्ष सिद्ध है कि जिसके पास भी अतिरिक्त धनहोता है उसके पास निवेश के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. मसलन भारतीय शेयर बाजार में ही इस समय डेढ़ सौलाख करोड़ का निवेश है. इसे भले ही और न बढ़ाया जा सके, लेकिन यह तो संभव है ही कि उस निवेश के क्षेत्र को बदलवा दिया जाए. हमारी सरकार जिस भी क्षेत्र में निवेश बढ़वाने की बात इस समय सोच रही है उसी क्षेत्र में भारतीय निजी निवेश की कूबत भी कम नहीं है. जैसा आकर्षण हम विदेशी निवेशकों को दे रहे हैं वैसा अगर अपने देसी निवेशकों के सामने रख दें तब भी उम्मीद लगा सकते हैं. ये अलग बात है कि सरकार को देश में अमीरों को ज़्यादा और अमीर बनाने और गरीबों को और गरीब बनाने के आरोपों को झेलना पड़ेगा. लेकिन क्या अभी भी मौजूदा सरकार को विदेशी निवेश के उपायों के खिलाफ ऐसे ही आरोपों को नहीं झेलना पड़ रहा है?

(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)

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