ट्रेन के ड्राइवर को क्यों दी जाती है लोहे की रिंग? क्या है इसका काम

Photo Credit: Social Media

Bavita Jha
Jun 10, 2024

भारतीय रेलवे में हर दिन लाखो करोड़ों लोग ट्रेन में सफर करते हैं. यात्रियों की सुविधा के लिए रेलवे लगातार एडवांस बनने की कोशिशों में लगा हुआ है. आजादी के बाद से अब तक रेलवे में कई बड़े परिवर्तन आ चुके हैं.

लेकिन आज भी रेलवे में कुछ ऐसी चीजें हैं, जो अंग्रेजों के जमाने से अपनाई जा रही है. ऐसा ही एक सिस्टम है अंग्रेजों के जमाने में इस्तेमाल होने वाला टोकन एक्सजें सिस्टम. वैसे तो रेलवे में इस सिस्टम को खत्म कर दिया गया है, लेकिन कुछ जगहों पर अभी भी इसका इस्तेमाल किया जा रहा है.

अगर कभी गांव या छोटे शहर के स्टेशनों पर गए होंगे तो आपने देखा भी होगा,कि ट्रेन के ड्राइवर को एक लोहे की रिंग दी जाती है. पहले जब ट्रैक सर्किट सिस्टम नहीं था तब यहीं छल्ला काम करता था.

लोहे की साधारण से दिखने वाली ये रिंग बड़े काम की है. ट्रेन के चलने और रुकने के लिए ये रिंग काफी जरूरी होती है. इस लोहे के छल्ले का मकसद ट्रेन को उसके डेस्टिनेशन तक सुरक्षित पहुंचाना है.

पुराने जमाने में ट्रैक सर्किट नहीं होता था, उस वक्त इन्हीं लोहे के छल्ले यानी टोकन एक्सचेंज के जरिए ही ट्रेन अपने डेस्टिनेशन तक पहुंचती थीं. टोकन एक्सचेंज की मदद से एक ही ट्रैक पर आ रही दो ट्रेनों को भिड़ने से बचाया जाता था.

दरअसल ट्रेन के ड्राइवर को स्टेशन मास्टर ये लोहे का रिंग देता था. जिसके मतलब था कि कि जिस ट्रैक पर गाड़ी चल रही है वह लाइन पूरी तरह से क्लीयर है. अपने डेस्टिनेशन पर पहुंचने के बाद ड्राइवर उस लोहे की रिंग को स्टेशन मास्टर के पास जमा कर देता था.

स्टेशन मास्टर फिर वही रिंग उस ट्रैक पर चलने वाली दूसरी गाड़ी के ड्राइवर को दे देता था. छल्ले में लगी बॉल को स्टेशन मास्टर स्टेशन पर लगे नेल बॉल मशीन पर फिट करता है.

इससे अगले स्टेशन तक रूट क्लीयर माना जाता है. अगर ट्रेन स्टेशन पर नहीं पहुंचती तो स्टेशन पर लगे नेल बॉल मशीन अनलॉक नहीं होगी. जिसका मतलब था कि कोई भी ट्रेन उस ट्रैक पर नहीं आएगी .

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