जितना दिलचस्प चुनावी मुकाबला होता है, उतनी ही रोचक कहानी है उस स्याही की भी है, जो वोटिंग के दौरान आपकी ऊंगली पर लगाई जाती है.
चुनावी दिनों में ऊंगली पर नीले निशान के साथ लोगों की सेल्फी सोशल मीडिया पर ट्रेंड बन जाती है, लेकिन क्या आप उस नीली स्याही की कहानी जानते हैं.
वोट देते समय आपकी ऊंगली पर जो स्याही लगाई जाती है, वो आती कहां से है? उस स्याही को बनाता कौन है? उसकी कितनी कीमत है, क्यों आपके हाथों पर लगाई जाती है ?
इस स्याही की कहानी 1962 से शुरू होती है. इसे बनाने वाली कंपनी भी आज तक एक ही है. मैसूर के इस स्याही का सफर शुरू होता है, जो पूरे देश में हर चुनाव पर पहुंचता है.
इस कंपनी का नाम है मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड (MPVL).कर्नाटक सरकार की इस कंपनी की शुरुआत 1937 में हुई.
कंपनी की नींव नलवाड़ी कृष्णा राजा वाडियार ने रखी थी. इस कंपनी का नाम मैसूर लाक फैक्ट्री हुआ करता था. जिसे साल 1947 में आजादी के बाद सरकार ने टेकओवर कर लिया.
इसका नाम बदलकर मैसूर लाक एंड पेंट्स लिमिटेड रखा गया, जो नेशनल फिजिकल लैबोरेट्री की मदद से स्याही तैयार करती है.
स्याही की एक शीशी 10 ml की होती है, जिससे कम से कम 700 उंगलियों पर पक्की स्याही लगाई जा सकती है. एक शीशी की कीमत 127 रुपये है.
यानी 1 लीटर की कीमत करीब 12,700 रुपये होगी. एक ml यानी एक बूंद की कीमत करीब 12.7 रुपये के करीब बैठेगी.
1962 के लोकसभा चुनाव में पारदर्शिता और फर्जी वोटिंग रोकने के लिए ऊंगली पर स्याही लगाने की शुरुआत हुई. जिसके बाद से नियम बन गया. स्याही से फर्जी वोटिंग और धांधली रोकी जाती है.
मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड (MPVL) भारत के अलावा 25 और देशों को भी यह स्याही एक्सपोर्ट करती है.
वोटिंग वाली स्याही में सिल्वर नाइट्रेट होता है, जो त्वचा या नाखून के संपर्क में आने के बाद और गहरा हो जाता है. सिल्वर नाइट्रेट की यह खासियत है कि इसके निशान कई दिन तक नहीं जाता है.
यहां स्याही लगती है, जब तक वहां नए सेल्स नहीं बन जाते हैं या नाखून नहीं बढ़ जाते, तब तक यह निशान जाता नहीं.
इस बार के लोकसभा चुनाव में अब तक की रिकॉर्ड स्याही इस्तेमाल की जा रही है. इस बार 26.5 लाख शीशी स्याही का ऑर्डर दिया गया है. साल 2019 में 25.9 लाख और 2014 में 21.5 लाख शीशी इस्तेमाल हुई थी.