ज़रा पाने की चाहत में, बहुत कुछ छूट जाता है नदी का साथ देता हूं, समंदर रूठ जाता है
ग़नीमत है नगर वालों, लुटेरों से लुटे हो तुम हमें तो गांव में अक्सर दरोगा लूट जाता है
तराज़ू के ये दो पलड़े, कभी यकसां नहीं रहते जो हिम्मत साथ देती है मुक़द्दर रूठ जाता है
अजब शै हैं ये रिश्ते भी, बहुत मज़बूत लगते हैं ज़रा-सी भूल से लेकिन भरोसा टूट जाता है
गिले शिकवे, गिले शिकवे, गिले शिकवे, गिले शिकवे कभी मैं रूठ जाता हूं कभी वो रूठ जाता है
बमुश्किल हम मुहब्बत के दफ़ीने खोज पाते हैं मगर हर बार ये दौलत, सिकंदर लूट जाता है
तुम सोच रहे हो बस, बादल की उड़ानों तक मेरी तो निगाहें हैं, सूरज के ठिकानों तक
टूटे हुए ख़्वाबों की इक लम्बी कहानी है शीशे की हवेली से, पत्थर के मकानों तक
दिल आम नहीं करता, अहसास की ख़ुशबू को बेकार ही लाए हम चाहत को ज़ुबानों तक