अक्सर हम सुनते हैं कि गांधी चाहते तो भगत सिंह को फांसी से बचा सकते थे. कहा जाता है कि गांधी ने अंग्रेजों से समझौता कर लिया था. आइए जानते हैं इस कथन के पीछे का सच.
8 अप्रैल, 1929 को भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ सेंट्रल असेंबली में दो बम फेंके थे. यहीं उन्होंने गिफ्तारी दी. वे इस धमाके की आवाज पूरी दुनिया तक पहुंचाना चाहते थे.
बम फेंकने के मामले में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को 7 अक्टूबर 1930 को फांसी की सजा सुनाई गई. हालांकि, उन्हें तय तारीख से एक दिन पहले 23 मार्च 1931 को लाहौर जेल में फांसी दे दी गई.
फांसी से 17 दिन पहले वायसराय लॉर्ड इरविन और महात्मा गांधी के बीच एक समझौता हुआ. समझौते में हिंसा के आरोपियों को छोड़कर बाकी राजनीतिक बंदियों को रिहा करने की बात हुई. इसे इरविन पैक्ट कहते हैं.
इतिहासकार अनिल नौरिया का दावा है कि गांधी ने भगत सिंह की फांसी को कम कराने के लिए तेज बहादुर सप्रू, एमआर जयकर और श्रीनिवास शास्त्री को वायसराय से मिलने भेजा था.
इतिहासकार एजी नूरानी का दावा है कि भगत सिंह का जीवन बचाने में गांधी के प्रयास आधे-अधूरे थे. उन्होंने मजबूत अपील नहीं की.
ब्रिटिश सरकार में गृह सचिव रहे हर्बर्ट विलियम इमर्सन का कहना है कि भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने के लिए गांधी के प्रयास सच्चे थे, उन्हें कम आंकना शांति दूत का अपमान है.
गांधी और भगत सिंह की राह बिलकुल अलग थी. एक शांति और अहिंसा से आजादी के पक्षधर थे, जबकि दूसरे का मानना था कि शांति की राह पर चलने से आजादी नहीं मिलेगी.
महात्मा गांधी ने कहा था कि भगत सिंह और उनके साथियों के साथ बात करने का मौका मिला होता तो मैं उनसे कहता कि उनका चुना हुआ रास्ता गलत और असफल है. हिंसा के रास्ते पर चलकर स्वराज नहीं मिलता.
यहां दी गई सभी जानकारी इतिहासकारों द्मावारा किए गए दावों पर आधारित है. Zee Hindustan इसकी पुष्टि नहीं करता है.