मोहब्बत में नहीं फर्क जीने और मरने का, उसी को देखकर जीते है जिस ‘काफ़िर’ पे दम निकले
आईना देख अपना सा मुंह ले के रह गए, साहब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था
वो आए घर में हमारे ख़ुदा की क़ुदरत है, कभी हम उन को कभी अपने घर को देखते हैं
इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ‘ग़ालिब’, कि लगाए न लगे और बुझाए न बने
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता, अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले, बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा, लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं
इश्क़ ने ‘ग़ालिब’ निकम्मा कर दिया, वर्ना हम भी आदमी थे काम के
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन, दिल के ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है