गुल ओ बुलबुल का गुलशन में ख़लल होवे तो बरजा है चमन में जब चले वो गुल-बदन आहिस्ता-आहिस्ता
वो नाज़नीं अदा में एजाज़ है सरापा ख़ूबी में गुल-रुख़ाँ सूँ मुम्ताज़ है सरापा
फिर मेरी ख़बर लेने वो सय्याद न आया शायद कि मिरा हाल उसे याद न आया
आज तेरी भवाँ ने मस्जिद में होश खोया है हर नमाज़ी का
मुफ़लिसी सब बहार खोती है मर्द का ए'तिबार खोती है
कमर उस दिलरुबा की दिलरुबा है निगह उस ख़ुश-अदा की ख़ुश-अदा है
चाहता है इस जहाँ में गर बहिश्त जा तमाशा देख उस रुख़्सार का
जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे उसे ज़िंदगी क्यूँ न भारी लगे
याद करना हर घड़ी तुझ यार का है वज़ीफ़ा मुझ दिल-ए-बीमार का