तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना खो चुका हूं मैं, कि तू मिल भी अगर जाए तो अब मिलने का ग़म होगा
वो झूट बोल रहा था बड़े सलीक़े से, मैं एतिबार न करता तो और क्या करता
आसमां इतनी बुलंदी पे जो इतराता है, भूल जाता है ज़मीं से ही नज़र आता है
दुख अपना अगर हम को बताना नहीं आता, तुम को भी तो अंदाज़ा लगाना नहीं आता
शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं, इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं
आते आते मिरा नाम सा रह गया, उस के होंटों पे कुछ कांपता रह गया
शर्तें लगाई जाती नहीं दोस्ती के साथ, कीजे मुझे क़ुबूल मिरी हर कमी के साथ
फूल तो फूल हैं आंखों से घिरे रहते हैं, कांटे बे-कार हिफ़ाज़त में लगे रहते हैं
वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता, मगर इन एहतियातों से तअल्लुक़ मर नहीं जाता