DNA ANALYSIS: Coronavirus से मरने वालों पर श्रीलंका की सरकार ने क्यों किया ऐसा फैसला?
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DNA ANALYSIS: Coronavirus से मरने वालों पर श्रीलंका की सरकार ने क्यों किया ऐसा फैसला?

श्रीलंका (Sri Lanka) में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार है. वहां की सरकार ने एक ऐसा कड़ा फैसला लिया है, जिसकी आलोचना तो हो रही है, लेकिन लोग चाहकर भी सरकार के फैसले में बदलाव नहीं करवा पा रहे हैं. श्रीलंका की सरकार अब भी अपने फ़ैसले को लेकर बहुत सख़्त है

DNA ANALYSIS: Coronavirus से मरने वालों पर श्रीलंका की सरकार ने क्यों किया ऐसा फैसला?

नई दिल्ली: जनतंत्र में आज़ादी के नाम पर लोग कई बार ज़िद्दी हो जाते हैं, इस आज़ादी का दुरुपयोग करने लगते हैं और सिर्फ़ हां या न में ही जवाब सुनना चाहते हैं. बीच के रास्ते में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं होती. लेकिन दुनिया के कई दूसरे लोकतांत्रिक देशों में ऐसा नहीं होता. वहां सरकार जो फ़ैसले लेती है. उसका सम्मान जनता को करना ही पड़ता है. इससे वो लोकतांत्रिक देश तानाशाही में नहीं बदल जाता, बल्कि सिर्फ़ भीड़ के इशारे पर चलने से बच जाता है. भारत से सिर्फ़ ढाई हज़ार किलोमीटर दूर एक ऐसा ही देश है, जिसका नाम है श्रीलंका.

श्रीलंका (Sri Lanka) में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार है. वहां की सरकार ने एक ऐसा कड़ा फैसला किया है, जिसकी आलोचना तो हो रही है, लेकिन लोग चाहकर भी सरकार के फैसले में बदलाव नहीं करवा पा रहे हैं.

सरकार ने सबके लिए एक जैसा नियम लागू किया
इस साल अप्रैल के महीने में ही श्रीलंका की सरकार ने ये फ़ैसला लिया था कि कोरोना वायरस (Coronavirus) से मरने वाले हर व्यक्ति के शव को जला दिया जाएगा, चाहे वो व्यक्ति हिंदू हो, ईसाई हो, बौद्ध हो या मुसलमान हो. इसलिए श्रीलंका में अगर किसी भी धर्म के व्यक्ति की कोरोना वायरस की वजह से मौत होती है तो उसके शव को दफ़नाया नहीं जा सकता, सिर्फ़ जलाया जा सकता है.

श्रीलंका की सरकार मानती है कि शवों को दफ़नाने से कोरोना वायरस ज़मीन में प्रवेश कर सकता है और इससे ज़मीन के नीचे मौजूद पानी भी संक्रमित हो सकता है.

हिंदू और बौद्ध धर्म में तो वैसे भी शव को जलाकर ही उसका अंतिम संस्कार किया जाता है, लेकिन ईसाई और इस्लाम धर्म में शवों को दफ़नाने की परंपरा है. फिर भी श्रीलंका की सरकार ने सबके लिए एक जैसा नियम लागू किया है.

हाल ही में श्रीलंका (Sri Lanka) में एक 20 दिन के मुस्लिम बच्चे की कोरोना वायरस से मौत हो गई. इस बच्चे का नाम शायक था. शायक के माता पिता चाहते थे कि उसे मुस्लिम रीति रिवाज़ से दफ़नाया जाए, लेकिन श्रीलंका की सरकार ने उनकी एक नहीं सुनी और इस बच्चे के शव को जलाकर, उसकी अस्थियां उसके माता पिता को सौंप दी गईं. इसके बाद श्रीलंका में सरकार के इस फ़ैसले का विरोध शुरू हो गया और कुछ लोगों ने इसे एक बड़े अभियान में बदल दिया.

श्रीलंका के मुस्लिम, शवों को दफ़नाए जाने का अधिकार मांग रहे
श्रीलंका में अब तक कोरोना वायरस से मरने वाले 15 मुसलमानों के शवों को जलाकर उनका अंतिम संस्कार किया जा चुका है. ज़्यादातर मामलों में मृतकों के परिवारों को उनकी इच्छा के विरुद्ध श्मशान घाट ले जाया गया, लेकिन अब श्रीलंका के मुस्लिम शवों को दफ़नाए जाने का अधिकार मांग रहे हैं.

हालांकि श्रीलंका की सरकार अब भी अपने फ़ैसले को लेकर बहुत सख़्त है और यहां तक कि श्रीलंका के जिन मुसलमानों की मौत, श्रीलंका के बाहर किसी और देश में होती है. उनके शवों को भी देश में लाए जाने की अनुमति नहीं है.

हाल ही में श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने मालदीव्स के राष्ट्रपति से बात की और उनसे आग्रह किया कि श्रीलंका के जिन मुसलमानों की मौत मालदीव्स में हुई है. उन्हें वहीं दफ़ना दिया जाए. यानी श्रीलंका के मुसलमानों को उनके देश के बाहर तो दफ़नाया जा सकता है, लेकिन उनके अपने देश ने उनसे ये अधिकार छीन लिया है.

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बौद्ध भिक्षु का दावा
श्रीलंका की सरकार ने शवों को जलाने का फ़ैसला वहां एक प्रभावशाली बौद्ध भिक्षु की मांग पर किया था. इस बौद्ध भिक्षु का दावा था कि शवों को दफ़नाने से ये वायरस ज़मीन और पानी के रास्ते अन्य लोगों तक पहुंच सकता है.

सरकार इस मामले में किसी की भी बात सुनने के लिए तैयार नहीं
हालांकि दुनिया भर के वैज्ञानिकों का दावा है कि किसी के शव को दफ़नाने से Ground Water में कोरोना वायरस नहीं पहुंचता और ये सिर्फ़ एक भ्रांति है, लेकिन श्रीलंका की सरकार इस मामले में किसी की भी बात सुनने के लिए तैयार नहीं है. इसी महीने की शुरुआत में श्रीलंका के सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार के पक्ष में फ़ैसला सुनाया और सरकार के फ़ैसले के विरोध में दायर सभी याचिकाओं को सिरे से ख़ारिज कर दिया. इस फ़ैसले के बाद श्रीलंका की सरकार ने 19 मुस्लिम परिवारों द्वारा शवों को दफ़नाए जाने की मांग ठुकरा दी. इसके बाद इन परिवारों ने शवों को लेने से मना कर दिया, लेकिन श्रीलंका की सरकार ने इसकी परवाह नहीं की और सभी शवों का जलाकर अंतिम संस्कार कर दिया गया.

इसके बाद बहुत सारे लोगों ने इसका विरोध शुरू कर दिया और श्मशान घाटों के गेट पर सफेद रंग के रिबन लगाकर अपना विरोध दर्ज़ कराया. फिर भी जब सरकार नहीं मानी तो लोगों ने श्रीलंका की सरकार के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर अभियान शुरू कर दिया. लोगों ने आरोप लगाया कि श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे मुसलमानों को दबाने के लिए ऐसा कर रहे हैं और बिना Test या Positive Report के भी मुसलमानों के शवों को जलाया जा रहा है.

तमिलों और मुसलमानों के साथ पक्षपात का आरोप
राजपक्षे परिवार को श्रीलंका के गृह युद्ध को बर्बरता पूर्वक कुचलने के लिए जाना जाता है. श्रीलंका के मौजूदा राष्ट्रपति LTTE के साथ 30 वर्षों तक चले गृह युद्ध के दौरान श्रीलंका की सेना में अहम पदों पर भी रहे और वो इस दौरान लंबे समय तक देश के रक्षा मंत्री भी थे, तब श्रीलंका में गोटाबाया के भाई महिंदा राजपक्षे की सरकार थी. इसलिए श्रीलंका में LTTE के ख़ात्मे का श्रेय राजपक्षे  परिवार को दिया जाता है, लेकिन इस परिवार पर तमिलों और मुसलमानों के साथ पक्षपात का आरोप भी लगता रहा है. हालांकि श्रीलंका की सरकार को इन सब बातों की परवाह नहीं है और वहां कोरोना वायरस के नाम पर मुसलमानों को शव दफ़नाने का अधिकार देने से मना कर दिया गया है.

श्रीलंका की सरकार ने कोरोना वायरस से निपटने की ज़िम्मेदारी एक तरह से देश की सेना को ही सौंप रखी है और श्रीलंका में Covid 19 से निपटने के लिए जो टास्क फोर्स बनाई गई है. उसका अध्यक्ष भी श्रीलंकाई सेना के प्रमुख को बनाया गया है, जिनका नाम है-शवेंद्र सिल्वा. कहा जा रहा है मुसलमानों के शवों को जलाने का फ़ैसला शवेंद्र सिल्वा के इशारे पर ही किया गया है.

बौद्ध संतों को खुश करने के लिए ऐसा कर रही है सरकार?
कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि श्रीलंका की सरकार प्रभावशाली बौद्ध संतों को खुश करने के लिए ऐसा कर रही है क्योंकि, श्रीलंका की बहुसंख्यक आबादी सिंहली बौद्ध हैं, जबकि तमिल और मुसलमान वहां अल्पसंख्यक हैं. श्रीलंका की आबादी में मुसलमानों की संख्या 10 प्रतिशत है. इसलिए पहली नज़र में ये फ़ैसला सिर्फ़ राजनीति से प्रेरित लगता है, लेकिन इस ख़बर का दूसरा पहलू भी है और वो ये है कि शताब्दी के इस सबसे बड़े स्वास्थ्य संकट ने जीवन और मृत्यु की परंपराओं को भी हमेशा के लिए बदलकर रख दिया है. इस दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या अब लाखों में है जो इस महामारी की वजह से अपने लोगों से दूर हो गए. उनके जीवन के अंतिम पलों में भी उनके साथ कोई नहीं था और जब मौत आई तो भी ये अकेलापन दूर नहीं हुआ क्योंकि, संक्रमण के डर की वजह से या तो सरकारों ने लोगों को अंतिम संस्कार में जाने की इजाज़त नहीं दी या फिर डर के मारे खुद लोगों ने ही किसी की अंतिम यात्रा में शामिल होना ठीक नहीं समझा. इस वायरस की वजह से मारे गए हज़ारों लोग तो ऐसे भी थे, जिनके शवों का अंतिम संस्कार करने से उनके परिवार वालों ने ही मना कर दिया.

दुनियाभर में बदल गए अंतिम संस्कार के नियम
अमेरिका के मैनहेटन शहर से सिर्फ़ 17 किलोमीटर दूर अमेरिका का सबसे विशाल कब्रिस्तान है, जहां उन लोगों के शवों को दफ़नाया जाता है जिनका कोई दावेदार नहीं होता. इस साल अक्टूबर तक इस कब्रिस्तान में 2 हज़ार से ज़्यादा शवों को दफ़नाया जा चुका था, जो पिछले वर्ष के मुकाबले दोगुनी संख्या है.

जो शव यहां दफ़नाए जाते हैं उनका भी अंतिम संस्कार नहीं किया जाता, बल्कि PPE KIT पहने हुए कर्मचारी सीधे शवों को एक गड्ढे में धकेल देते हैं. ब्राज़ील में कई महीनों तक ये नियम लागू था कि किसी भी व्यक्ति के अंतिम संस्कार में उसके परिवार के लोग सिर्फ़ 10 मिनट तक ही हिस्सा ले सकते हैं. इजिप्ट जैसे इस्लामिक देश में तो शवों को दफ़नाने से पहले उन्हें नहलाने की प्राचीन इस्लामिक प्रथा पर भी रोक लगा दी गई थी.

मृत्यु की ये कहानियां हम आपको इसलिए दिखा रहे हैं ताकि आप जीवन की कीमत पहचान पाएं. कोई महामारी आए या ना आए, लेकिन पृथ्वी पर मौजूद 100 प्रतिशत लोगों का एक न एक दिन मरना तय है. यानी मृत्यु एक ऐसा अटल सत्य है, जिसकी आपके जन्म के साथ ही भविष्यवाणी की जा सकती है.

भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा था कि अगर वो जीवन के सत्य को समझना चाहते हैं तो सबसे पहले शमशान घाट पर जाकर ध्यान लगाएं, वहां जलाए जा रहे शवों को ध्यान से देखें, तभी उन्हें ये समझ आएगा कि जीवन की पूंजी को कैसे और कहां ख़र्च किया जाना चाहिए.

लेकिन जो लोग जीवन की पूंजी के प्रति समर्पित नहीं होते, उन्हें मृत्यु का भय बार-बार सताता है. वो कभी मरना नहीं चाहते, विडंबना ये है कि दूसरों का अंतिम संस्कार होते हुए देखकर भी लोग ये नहीं समझ पाते कि ये उनके जीवन का भी सच है. श्मशान घाट और कब्रिस्तानों को शहरों के बाहर बसाया जाता है ताकि लोगों को मृत्यु सामने दिखाई न दे.

मृत्यु के भय पर विजय
बिना मरे मृत्यु से साक्षात्कार करने की अपनी एक कला होती है. ये कला आपको जीवन की अहमियत के बारे में बताती है. कहने का अर्थ ये है कि जीते जी मृत्यु के सच को स्वीकार करना, संतुष्ट जीवन जीने का पहला फॉर्मूला है. इस संबंध में हमें आध्यात्मिक गुरु ओशो की भी एक बात याद आ रही है. वो कहते थे कि जो व्यक्ति युवा अवस्था में मृत्यु की सत्यता को स्वीकार कर लेता है, मृत्यु उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाती और मौत भी उसके लिए सिर्फ़ एक अनुभव बन जाती है. विज्ञान मृत्यु पर विजय कब हासिल करेगा ये तो नहीं कहा जा सकता. लेकिन आप चाहें तो आज ही मृत्यु के भय पर विजय हासिल कर सकते हैं.

अगर आज हम में से किसी के सामने मृत्यु आकर खड़ी हो जाए तो क्या हम मृत्यु को खुशी-खुशी स्वीकार कर पाएंगे? क्या हम खुद से ये कह सकते हैं कि हमने अब तक जो भी किया, पूरी लगन से किया, पूरी तन्मयता से किया और हमारे परिश्रम को हमारी मृत्यु भी हमसे नहीं छीन सकती? ऐसा कहने वाले शायद इस दुनिया में बहुत कम लोग होंगे.

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