DNA ANALYSIS: US को India से सीखनी चाहिए 'Democracy'
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DNA ANALYSIS: US को India से सीखनी चाहिए 'Democracy'

DNA Analysis: अमेरिका के लिए इससे दुर्भाग्यपूर्ण कुछ नहीं होगा कि आज ही के दिन 7 जनवरी वर्ष 1789 में वहां पहली बार राष्ट्रपति चुनाव हुए थे. तब जॉर्ज वाशिंगटन (George Washington) चुनाव में अकेले उम्मीदवार थे और उन्हें जीत मिली थी. हालांकि वो कभी चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे, वो राष्ट्रपति नहीं बनना चाहते थे. लेकिन आज अमेरिका में इसी पद के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला हुआ है.

अमेरिका की संसद में घुस गए राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के समर्थक.

वाशिंगटन: आज हम सबसे पहले अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन डीसी (Washington DC) में भड़की हिंसा के बारे में आपको बताना चाहते हैं. ये हिंसा 6 जनवरी को हुई और हिंसा की आग कैपिटल बिल्डिंग तक पहुंच गई, जो अमेरिका की संसद है. राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के समर्थक अमेरिका की संसद में घुस गए, जहां तोड़फोड़ और आगजनी की. ये सब उस समय हुआ, जब संसद में राष्ट्रपति चुनाव की प्रक्रिया पर सदन की अहम बैठक चल रही थी.

अमेरिका की संसद में घुस गए ट्रंप समर्थक

इस बैठक में जो बाइडेन को मिली जीत की आधिकारिक पुष्टि होनी थी. लेकिन इस प्रक्रिया के खत्म होने से पहले ही हथियारों के साथ कुछ लोग संसद में घुस आए. संसद के प्रतिनिधियों को बंधक बना लिया गया. अंदर भगदड़ मच गई और ये सब कहीं और नहीं, अमेरिका में हुआ. इस हिंसा में चार लोगों की जान चली गई और वाशिंगटन डीसी (Washington DC) में 15 दिन की इमरजेंसी लगा दी गई. आप कह सकते हैं कि अमेरिका आज Too Much Democracy का खामियाजा भुगत रहा है.

कहीं और ऐसा होता तो अमेरिका क्या करता

सोचिए कि अगर इस तरह की हिंसा किसी और देश में हुई होती तो अमेरिका क्या करता? अमेरिका लोकतंत्र पर बड़े-बड़े उपदेश देता, मौलिक अधिकारों की बात करता, संभव है कि लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए वो उस देश पर कड़े प्रतिबंध भी लगा देता, जैसे वो कई बार कर भी चुका है. लेकिन ये अमेरिका का दुर्भाग्य ही है कि इस बार किसी और देश में लोकतंत्र उपहास का विषय नहीं बना है, बल्कि अमेरिका में ही लोकतंत्र पर अब तक का सबसे बड़ा हमला हुआ है.

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अमेरिका में भड़की हिंसा की कई तस्वीरें सामने आई हैं. जब भीड़ संसद में घुस आई थी और इनमें शामिल एक व्यक्ति House of Representatives में उपराष्ट्रपति माइक पेंस की कुर्सी पर बैठ गया. जबकि एक व्यक्ति हाउस स्पीकर के ऑफिस में उनकी कुर्सी पर बैठा हुआ नजर आया. इन तस्वीरों में दिख रहे लोगों के चेहरों पर आप मुस्कान देख सकते हैं.

अमेरिका के लोकतंत्र का बना मजाक

आप कह सकते हैं कि जिस समय अमेरिका का लोकतंत्र इस ऐतिहासिक घटना की वजह से दुखी था, उस समय ये लोग हंस रहे थे. ये लोग अमेरिका के लोकतंत्र की उस ताकत पर हंस रहे थे, जिसका ढिंढोरा पिछले 200 वर्षों से पूरी दुनिया में पीटा गया है. वैसे तो अमेरिका में हमेशा से सत्ता के हस्तांतरण की शांतिपूर्ण परंपरा रही है. लेकिन इस बार ट्रंप के हार स्वीकार नहीं करने से लगभग 200 वर्षों पुरानी इस परंपरा को नुकसान हुआ है.

अमेरिका के लिए इससे दुर्भाग्यपूर्ण कुछ नहीं होगा कि आज ही के दिन 7 जनवरी वर्ष 1789 में वहां पहली बार राष्ट्रपति चुनाव हुए थे. तब जॉर्ज वाशिंगटन (George Washington) चुनाव में अकेले उम्मीदवार थे और उन्हें जीत मिली थी. हालांकि वो कभी चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे, वो राष्ट्रपति नहीं बनना चाहते थे. लेकिन आज अमेरिका में इसी पद के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला हुआ है.

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राष्ट्रपति ट्रंप पर लगे हिंसा भड़काने के आरोप

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) चुनाव से पहले भी और बाद में भी यही कहते रहे कि उन्हें साजिश के तहत हराया गया, वो हारे नहीं हैं. उनके इसी हठ ने अमेरिका के लोकतंत्र को हिंसा की आग में झोंक दिया. हालांकि अब राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) अपनी हार मानने के लिए तैयार हो गए हैं. डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) ने कहा है कि वो सत्ता के हस्तांतरण के लिए सहमत हैं.

डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) अब भले ही हार को स्वीकार कर लें लेकिन उन पर अमेरिका में हिंसा भड़काने के आरोप लग रहे हैं, क्योंकि हिंसा से पहले उन्होंने वाशिंगटन डीसी (Washington DC) में एक रैली की थी. इस रैली में उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव में धांधली के आरोपों को दोहराया था.

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उन्होंने अपनी हार को स्वीकार करने से भी इनकार कर दिया था और अब अमेरिका में लोग उनके इस भाषण को हिंसा की जड़ मान रहे हैं. हालांकि डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) ने अब एक बयान जारी करके अपने समर्थकों से घर लौटने की अपील की है.

हार स्वीकार करना एक कला

हार को स्वीकार करना एक कला है और इस कला को सीखने का कोई कोर्स नहीं होता. आप इसकी ट्रेनिंग नहीं ले सकते. यही वजह है कि डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) हार के सत्य को स्वीकार नहीं कर पाए और अब अमेरिका में उन्हें राष्ट्रपति पद से हटाने की संवैधानिक कार्रवाई पर विचार शुरू हो गया है.

अमेरिका की गिनती उन देशों में सबसे ऊपर होती है, जो लोकतंत्र का पाठ दुनिया को पढ़ाते हैं और इसी लोकतंत्र के नाम पर अमेरिका ने काफी कुछ किया है. इसे आप कुछ उदाहरणों से समझिए.

वर्ष 2005 में अमेरिका ने गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री और देश के मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वीजा (Visa) देने से मना कर दिया था. इसके पीछे अमेरिका ने वर्ष 1998 में लागू हुए उस कानून को वजह बताया था, जिसमें धार्मिक स्वतंत्रता के मूल्यों का उल्लंघन करने वालों को अमेरिका में प्रवेश की इजाजत नहीं थी. ये विडंबना ही है कि इस कानून के तहत किसी को वीजा (Visa) नहीं देने का ये इकलौता मामला था.

हालांकि बाद में ऐसा समय भी आया जब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2016 में अमेरिका की संसद को संबोधित किया. अमेरिका एक ऐसा देश है, जहां दूसरे देशों में लोकतंत्र की समीक्षा और उसे मजबूत करने के लिए कई संस्थाएं काम करती हैं. ये संस्थाएं लोकतंत्र के हितों की रक्षा के लिए कई देशों की आर्थिक रूप से मदद भी करती हैं.

अमेरिकी लोगों का लोकतंत्र में विश्वास नहीं?

लोकतंत्र पर अमेरिका की ये कोशिशें दिखावटी क्यों लगती है, इसे आप कुछ और आंकड़ों से समझिए. ग्लोबल एटिटूड सर्वे 2019 (Global Attitude Survey 2019) के मुताबिक, अमेरिका के 59 प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो वहां के लोकतंत्र से असंतुष्ट हैं. जबकि भारत में ये आंकड़ा सिर्फ 26 प्रतिशत है. अब आप खुद सोचिए कि किस देश का लोकतंत्र ज्यादा मजबूत है.

अमेरिका दावा करता है कि वो दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र है. लेकिन ये सच नहीं है. मध्य भारत में लगभग 2700 वर्ष पहले जनपद और महाजनपद की व्यवस्था थी और ये व्यवस्था लोकतंत्र पर आधारित थी. प्राचीन भारत में महाजनपद का उल्लेख शक्तिशाली राज्य के रूप में मिलता है, जहां लोगों को अपना नायक चुनने का अधिकार होता था. यानी भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र ही नहीं बल्कि सबसे पुराने लोकतंत्र की जड़ें भी भारत में ही मिलती हैं.

जीत और हार ये वो दो पहलू हैं, जो लोकतंत्र के उद्देश्य को पूरा करते हैं और अमेरिका चाहे तो ये भारत से सीख सकता है. वर्ष 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार सिर्फ एक वोट से गिर गई थी. वर्ष 1996 में भी बहुमत साबित नहीं कर पाने पर उन्होंने 13 दिन बाद ही प्रधानमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था.

तब संसद में उन्होंने एक भाषण दिया था. अपने इस भाषण मे उन्होंने कहा था कि सरकारें आएंगी, जाएंगी, पार्टियां बनेंगी, बिगड़ेंगी, मगर ये देश रहना चाहिए. आज जब अमेरिका का लोकतंत्र राष्ट्रपति ट्रंप के हठ की वजह से संकट में है, तब आपको भारत के लोकतंत्र पर दिया गया ये शानदार भाषण जरूर आएगा.

भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है. हमारे देश में एक वोट से भी सरकार गिरी हैं और ऐसे नेता भी प्रधानमंत्री बने हैं, जिन्होंने चुनाव ही नहीं लड़ा था. वर्ष 1977 में इमरजेंसी (Emergency) हटने के बाद मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने थे.

उनके अलावा पीवी नरसिम्हा राव, इंद्र कुमार गुजराल, एचडी देवगौड़ा, वीपी सिंह और चंद्रशेखर भी अल्पमत में होने के बावजूद देश के प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे. एचडी देवगौड़ा के पास तो सिर्फ 46 सीटें थीं, लेकिन इसके बावजूद वर्ष 1996 में उन्होंने सरकार का गठन किया.

अमेरिका में भले ही आज लोकतंत्र की स्थिति अच्छी नहीं है, लेकिन लोकतंत्र के नाम पर अमेरिका दुनिया के 121 देशों को मदद करने का दिखावा करता है. उसने इन देशों की अलग-अलग संस्थाओं, राजनीतिक दलों और नेताओं को फंडिंग भी की है. लेकिन आज अमेरिका में ही लोकतंत्र गंभीर स्थिति में है. अमेरिका में भड़की हिंसा के मायने भी आज आपको समझना चाहिए. इससे अमेरिका की लोकतंत्र के चैंपियन वाली छवि को बहुत नुकसान पहुंचा है.

तेल और गैस का उत्पादन करने वाले ज्यादातर देश मिडल ईस्ट (Middle East) में हैं और इन देशों पर अमेरिका हमेशा लोकतंत्र के नाम पर दबाव बनाता है. अमेरिका ने इन देशों पर कई बार हमले भी किए ताकि लोकतंत्र की स्थापना के नाम पर उसे इन देशों से सस्ता तेल मिलने लगे. लेकिन अब अमेरिका में हिंसा के बाद उसकी इस रणनीति पर भी चर्चा हो रही है.

पिछले 20 साल में अमेरिका ने लोकतंत्र बहाली के नाम पर 7 देशों में हमला किया या सैन्य कार्रवाई की है. हम आपको ताइवान (Taiwan) पर अमेरिका के डबल स्टैंडर्ड के बारे में भी बताना चाहते हैं. ताइवान (Taiwan) का असली नाम रिपब्लिक ऑफ चाइना (Republic of China) है. वर्ष 1945 से 1979 तक अमेरिका इसी ताइवान (Taiwan) को असली चीन मानता था.

लेकिन 1979 में एक गुप्त समझौते के तहत अमेरिका ने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (People's Republic of China) को असली चीन मान लिया और ये ताइवान (Taiwan) के साथ अमेरिका का सबसे बड़ा धोखा था.

अगर बात सिर्फ अमेरिका की करें तो अमेरिका का समाज आज बंटा हुआ है. आज अमेरिका में पांच लाख से ज्यादा लोग बेघर हैं. लगभग एक करोड़ 25 लाख लोग बेरोजगार हैं और रंगभेद का मुद्दा भी अमेरिका के लिए चुनौती बना हुआ है. इन स्थितियों का आंकलन करें तो भारत का लोकतंत्र अमेरिका से ज्यादा मजबूत नजर आता है.

यहां एक बात और ध्यान देने वाली है कि भारत में अमेरिका की हिंसा को गलत ठहराने वाले लोग अपने देश में विपक्ष के ईवीएम हैकिंग (EVM Hacking) के दावों को सही बताते हैं. लेकिन ट्रंप के इलेक्शन फ्रॉड (Election Fraud) दावे को गलत कहते हैं.

ये लोग मानते हैं कि डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) अमेरिकी संस्थाओं पर हमला करते हैं, लेकिन जब विपक्षी चुनाव आयोग, सीबीआई (CBI) और ईडी (ED) जैसी संस्थाओं पर हमला करता है, तो उसे सही कहते हैं. भारत में नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में हुई हिंसा को सही ठहराते हैं लेकिन ट्रंप समर्थकों की हिंसा को लोकतंत्र पर हमला बताते हैं. शाहीन बाग और दिल्ली की सीमाओं पर होने वाले प्रदर्शनों को सही मानते हैं, लेकिन ट्रंप समर्थकों का कैपिटल हिल पर चढ़ जाना गलत बताते हैं.

अमेरिका को दुनिया के लोकतंत्र वाली क्लास का मॉनिटर भी कहा जाता है. लेकिन आज ये मॉनिटर एक जिद की वजह से सबसे बड़े संकट में है. अमेरिका में अप्रत्याशित अराजकता का माहौल बना हुआ है और इस विषय पर पूरी दुनिया में बहस छिड़ी है. अमेरिका में सत्ता के हस्तांतरण की राजनीतिक संस्कृति हिंसक हो चुकी है और जब किसी देश में ऐसे विषयों पर हिंसा होती है, आग लगाई जाती है, पत्थर फेकें जाते, तब उस देश में लोकतांत्रिक मूल्य शून्य हो जाते हैं और अमेरिका में ऐसा ही हुआ है.

आप इसे Too Much Democracy का परिणाम भी कह सकते हैं, जिसमें कुछ लोग लोकतंत्र में हिंसा को भी जायज ठहराने लगे हैं और इसे असहमति और क्रोध जाहिर करने का तरीका मानते हैं.

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