दोहरी-नीतियों और चरित्र से आतंक का खात्मा असंभव!
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दोहरी-नीतियों और चरित्र से आतंक का खात्मा असंभव!

पवन चौरसिया

यूरोप एक बार फिर आतंकी हमले से दहल उठा है. ब्रिटेन के मैनचेस्टर में एक कॉन्सर्ट के दौरान हुए आत्मघाती धमाके ने पूरी दुनिया को झकझोर कर रख दिया है. इस लेख के लिखे जाने तक लगभग 22 लोगों की मृत्यु और करीब 60 लोगों के घायल हो जाने की खबर है जिनमें अधिकांश युवा और बच्चे शामिल हैं. सुरक्षा एजेंसियों ने इसके पीछे इस्लामिक स्टेट के आतंकियों की साज़िश होने से इनकार नहीं किया है. ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थेरेसा मे, भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत दुनिया भर के नेताओं ने इसकी कड़ी निंदा की है. ज्ञात हो कि इस प्रकार की घटना यूरोप में और ब्रिटेन में कोई नई नहीं है. यूरोप में समय-समय पर आतंकी हमले होते रहे हैं और फ्रांस और ब्रिटेन इसके ‘सॉफ्ट टारगेट’ माने जा रहे हैं. ऐसे हमलों के बाद कई प्रकार के प्रश्न उठ रहे हैं जैसे कि आखिर इसके पीछे कौन से संगठन ज़िम्मेदार हैं? क्या आतंकवाद से लड़ने में दुनिया असफल है? क्या ये महज़ एक ‘सुरक्षा-सम्बन्धी’ समस्या है या इसका कोई ‘वैचारिक-ढांचा’ भी है जो इसको हर बार एक नए रूप में जन्म दे देता है?

जिस आतंकवाद को आज यूरोप और अमेरिका विश्व-शांति और सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मान रहा है, भारत उसके दंश लगभग चार दशक से झेल रहा है. अस्सी के दशक में जहां खालिस्तानी आतंकवाद ने पंजाब का चैन और सुकून छीना वहीं नब्बे के दशक से अभी तक कश्मीर में आतंकवाद ने कई लोगों की जानें ले लीं और सैकड़ों लोगों को घायल कर दिया है. इस बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि आतंकवाद कभी भी शुन्यता में पैदा नहीं होता और न ही यह पूरी तरह से ‘नॉन-स्टेट’ यानि के ‘गैर-राज्य’ होता है. बिना किसी राज्य के समर्थन और प्रायोजन के इसका फलना-फूलना असंभव है, और भारत में आतंकवादी घटनाओं के पीछे भी पाकिस्तानी राज्य और उसकी खुफिया एजेंसी आईएसआई का समर्थन एक जग-ज़ाहिर तथ्य है. 

अब तो यही आरोप भारत के अलावा पाकिस्तान के अन्य पड़ोसी जैसे कि ईरान, अफ़ग़ानिस्तान और बांग्लादेश भी लगा रहे हैं. परन्तु फिर भी पाकिस्तान के खिलाफ आज तक कभी भी कोई ठोस कार्यवाही नहीं हुई है. इसका कारण है विश्व-शक्तियों का आतंकवाद के प्रति दोहरी-नीति और चरित्र रखना और अपने आर्थिक और राजनैतिक स्वार्थ के खातिर दुनिया के अन्य देशों को खतरे में डालना . 

प्रधानमंत्री मोदी ने संयुक्त-राष्ट्र में 2014 में अपने पहले भाषण में विश्व-समुदाय से यह अपील की थी कि यदि विश्व-समूह सच में आतंक के विरुद्ध लड़ाई के लिए प्रतिबद्ध है तो उनको ‘गुड-टेरर’ और ‘बैड-टेरर’ के बीच अंतर रखना बंद करना होगा और ‘टेरर’ को केवल टेरर के रूप में देखना होगा. यहां ‘गुड-टेरर’ से उनका तात्पर्य उस आतंकवाद और उन आतंकी गुटों से था जो पश्चिमी-देशों के लिए खतरा नहीं हैं और केवल भारत के खिलाफ हैं और ‘बैड-टेरर’ यानि वो गुट जिनका निशाना ये पश्चिमी देश हैं. 

आज भी देखा जाए तो वैश्विक स्तर पर ऐसी ही नीतियां चली आ रही हैं. एक तरफ जहां अल-कायदा और ISIS यानि इस्लामिक स्टेट के खिलाफ तो ‘आर-पार’ की जंग की बात की जा रही है, लोकिन वहीं लश्कर, हुजी, जैश-ए-मोहम्मद सरीखे पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकी गुटों के खिलाफ कभी भी एकजुटता नहीं बनाई जाती, बल्कि पाकिस्तान को ‘आतंक’ के खिलाफ युद्ध में एक ‘महत्वपूर्ण साथी’ मान कर अरबों डॉलर की सहायता प्रदान की जाती है. हालांकि इस राशि का प्रयोग कश्मीर में और भारत के अन्य राज्यों में आतंकी घटनाओं को अंजाम देने के लिए किया जाता रहा है. 

विश्व-समुदाय को यह समझना पड़ेगा कि यह एक विचारधारा की लड़ाई भी है, जहां एक तरफ शांति और मानवता की विचारधारा है, वहीं दूसरी तरफ नफ़रत, कट्टरता और धर्म के ग़लत अनुवाद की. जो देश ऐसी विचारधाराओं के समर्थक और प्रायोजक हैं सबसे पहले उन्हें चिन्हित कर के अलग-थलग करने की आवश्यकता है और पाकिस्तान इस प्रकार की विचारधारा का केंद्र है. अपने आप को धर्मनिरपेक्ष भारत से अलग दिखाने के लिए उसने इस्लाम की गलत व्याख्या की और कट्टरता को बढ़ावा दिया. 

ऐतिहासिक रूप से उसकी इस कट्टरता को वैधता भी अमेरिका ने ही दी जब अफ़ग़ानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ ‘जिहाद’ के लिए मुजाहिदीन तैयार करने के लिए पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई ने अमेरिका से कई करोड़ डॉलर लिए. उन मुजाहिदीनों का बाद में कश्मीर में अराजकता फ़ैलाने के लिए भी प्रयोग किया गया. वैश्विक स्तर पर भारत जब भी इस मुद्दे को उठाता था तो इसे कश्मीर समस्या से जोड़ कर ढकने का प्रयास किया जाता रहा.

लेकिन अमेरिका में हुए 9/11 के हमले ने पूरी तस्वीर बदल दी. पेंटागन और ट्विन टावर पर विमान को भिड़ाने से हुई मौतों के कारण अचनाक से दुनिया को यह अहसास हो गया कि इस्लामिक आतंकवाद एक सच्चाई है जिससे मुंह मोड़ना अब संभव नहीं है. और फिर अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान और ओसामा के अल-कायदा के खिलाफ 2001 में ‘वॉर ऑन टेरर’ तो शुरू कर दी गई, लेकिन इसमें केवल उन्ही गुटों को निशान बनाया गया जो पश्चिमी देशों के लिए खतरा हैं. 2011 में पाकिस्तान के एबोटाबाद में जब ओसामा बिन लादेन को पकड़ा गया और मार गिराया गया तब यह लगा कि शायद अब विश्व इस सच्चाई से जागेगा कि पाकिस्तान वैश्विक-आतंकवाद का केंद्र है, परन्तु ऐसा नहीं हुआ. 

और तो और कुछ समय पहले संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में जिस तरह से चीन ने मुंबई हमले के मास्टरमाइंड जकीउर रहमान लखवी को वैश्विक आतंकी घोषित करने के भारत के प्रयासों को झटका दिया है उससे यह बात साफ़ हो जाती है कि आतंक के खिलाफ लड़ाई में अभी भी भू-राजनीति हावी है. ऐसी उम्मीद जगी थी कि तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की आतंक से निपटने की नीतियों के मुखर विरोधी रहे राष्ट्रपति पद के रिपब्लिक प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रम्प पद पे आसीन होने पर कुछ नया करेंगे, लेकिन उन्होंने जुमलेबाजी के अलावा अभी तक कुछ भी विशेष नहीं किया है. बल्कि हथियारों के व्यापार-संधि के लिए उस सऊदी अरब के समर्थन में खड़े हो गए हैं जिसे वो राष्ट्रपति बनने से पहले आतंकवाद का केंद्र मानते थे और जिसकी अतिवादी वहाबी विचारधारा के वो आलोचक थे. 

हालांकि भारत अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर आतंकवाद के प्रति 'जीरो टॉलरेंस' की नीति का लगातार समर्थन करता रहा है और इस संदर्भ में भारत ने 1996 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में "अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद पर एक व्यापक अभिसमय" (सीसीआईटी) को स्वीकार किए जाने का भी प्रस्ताव रखा था जिसको आज तक स्वीकार नहीं किया गया है. प्रश्न यह है कि आखिर कब तक पश्चिमी देश ‘राजनीतिक-यथार्थता’ के चक्कर में पाकिस्तान जैसे देशों को हिंसा और आतंक फ़ैलाने की खुली-छूट देते रहेंगे? जबतक सभी देश संकीर्णता को त्याग कर आतंकवाद के खिलाफ एक आम सहमति नहीं बनाते और आतंक के प्रायोजक देशों के ऊपर दंड नहीं दिया जाता तबतक मैनचेस्टर, मुंबई और 9/11 जैसे हमले होते रहेंगे. आतंकवाद को किसी भी धर्म से जोड़ना ठीक नहीं है, लेकिन उसको राष्ट्र-विशेष से जोड़ना बिलकुल भी ग़लत नहीं है क्योंकि ऐसे देशों के ख़िलाफ़ पर्याप्त साक्ष्य मौजूद हैं.

(लेखक, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में एम.फिल. के रिसर्च स्कॉलर हैं.)

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