अमेरिका-चीन के बीच बढ़ा तनाव, जानें दुनिया की अर्थव्यवस्था पर क्या होगा असर
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अमेरिका-चीन के बीच बढ़ा तनाव, जानें दुनिया की अर्थव्यवस्था पर क्या होगा असर

जैसे-जैसे अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव प्रचार की सरगर्मी बढ़ रही है, हर तरफ सिर्फ चीन को लेकर बिगड़ रहे हालातों की चर्चा है. सबसे ज्यादा बात आर्थिक मोर्चे पर बनी स्थिति की हो रही है.

फाइल फोटो

बीजिंग: अमेरिका (America) और चीन (China) दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश हैं. दोनो किसी और देश की तुलना में अपनी सेना पर ज्यादा खर्च करते हैं. हाईटेक चिप बनाने से लेकर महासागरों पर नियंत्रण की रेस में दोनों के बीच गला काट प्रतिस्पर्धा है. अमेरिका-चीन के बीच बने वर्तमान हालात का असर अब पूरी दुनिया पर पड़ सकता है. हालिया कूटनीतिक टकराव के बीच सोमवार को दक्षिण-पश्चिमी चीन के चेंगदू स्थित अमेरिकी दूतावास को बंद कर दिया गया, वहीं पिछले हफ्ते अमेरिका ने अपने ह्यूस्टन स्थित चीनी काउंसलेट को बंद करने का आदेश दिया था.

  1. वैश्विक अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ने की आशंका
  2. ट्रेड वार के बाद, डिप्लोमेसी के मोर्चे पर तनाव
  3. अमेरिका-चीन तनाव से दुनिया की सुरक्षा पर खतरा !

जैसे-जैसे अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव प्रचार की सरगर्मी बढ़ रही है, हर तरफ सिर्फ चीन को लेकर बिगड़ रहे हालातों की चर्चा है. सबसे ज्यादा बात आर्थिक मोर्चे पर बनी स्थिति की हो रही है.

तनाव का असर कहां-कहां पड़ेगा?
दोनों देश टैरिफ वॉर के चलते अपना काफी नुकसान कर चुके हैं. टैरिफ वॉर की शुरुआत 2018 में बीजिंग के तकनीकी महत्वाकांक्षा और ट्रेड सरप्लस के दौरान हुई. तभी से लेकर अब तक कोई स्थाई समाधान नहीं निकल पाया है. वहीं टैरिफ वॉर की आशंकाओं से पहले ही सुस्त वैश्विक अर्थव्यवस्था पर कोरोना महामारी ने भी जबर्दस्त दबाव डाला है. 

अमेरिका, चीन का सबसे बड़ा एक्सपोर्ट मार्केट है. राष्ट्रपति ट्रंप के चीनी उत्पाद पर लगने वाले टैरिफ बढ़ाने के बाद भी ये स्थिति नहीं बदली. वहीं चीन अमेरिका के लिए तीसरे नंबर का मार्केट एक्सपोर्टर है. यानी अमेरिका और चीन एक दूसरे के लिए सबसे बड़े बाजार हैं जिनसे दोनों देशों के निवेशकों के हित जुड़े हैं. अमेरिकी कंपनी जनरल मोटर्स से लेकर बर्गर किंग का चीन से आर्थिक नाता है तो अमेरिका में कृषि, और अन्य उत्पादन करने वाली कंपनियों के प्रोडक्ट्स की चीन में भारी मांग है. लेकिन टैरिफ वॉर के चलते पिछले साल इन कंपनियों के बिजनेस में 11.4 प्रतिशत की कमी आई. अमेरिका-चीन बिजनेस काउंसिल के मुताबिक दोनों देशों के बीच जारी तनाव के चलते रोजगार के क्षेत्र में भी असर पड़ा है. जानकारों के मुताबिक 2017 से भी खराब स्थितियां बन रहीं हैं.

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लोवा और अन्य अमेरिकी कृषि उत्पादों के लिए चीन एक बड़ा एक्सपोर्ट मार्केट है, और इस पर उस वक्त असर पड़ा जब बीजिंग ने सोयाबीन का आयात बंद करके पोर्क समेत अन्य अमेरिकी उत्पादों पर टैरिफ बढ़ा दिया.

टैरिफ वॉर के पहले चरण में सोयाबीन का निर्यात ब्राजील और अर्जेंटीना में हुआ, हालांकि चीन ने अमेरिका से सस्ते दाम वाली बीन्स खरीदना शुरू कर दिया, जिसके बाद जनवरी में आर्थिक मोर्चे पर सीजफायर हुआ. 

लेकिन अगर दोनों ने अपने व्यापारिक मतभेद नहीं सुलझाए तो सिर्फ इनके निर्यातकों को ही नहीं बल्कि अन्य एशियाई देशों की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा. क्योंकि एशिया के अधिकांश देशों में व्यापार के लिए कच्चा माल चीन से आता है. अमेरिका और चीन के टेलिकॉम, कंप्यूटर, मेडिकल और अन्य तकनीकि कंपनियों के निर्माता और उनके बाजारों के हित एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं. एप्पल, डेल, हैवलेट-पैकर्ड और अन्य कंपनियां चीनी फैक्ट्रियों में होने वाली गतिविधियों पर निर्भर हैं. इसमें स्मार्टफोन, कंप्यूटर और अन्य इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद तो लगभग पूरी तरह चीन पर निर्भर हैं. फैक्ट्रियों में चिप और अन्य उपकरणों की आपूर्ति अमेरिका, जापान, ताइवान और यूरोप से होती है.

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कम से कम इलेक्ट्रानिक बाजार पर सबसे बड़ा असर उस वक्त पड़ा, जब ट्रंप प्रशासन ने तकनीकि क्षेत्र की दिग्गज कंपनी ह्ययुवेई के बिजनेस मॉडल पर सवाल उठाते हुए प्रतिबंधों की शुरुआत की इसके बाद बने हालातों में सिलिकॉन वैली की कंपनियों समेत बाकी औद्धोगिक घरानों को अरबों डालर का घाटा सहन करना पड़ा. 

वहीं चीन एप्पल और अन्य अमेरिकी टेक ब्रैंड के लिए अहम बाजार है, जिसने हाल के कुछ सालों में अमेरिकी तकनीकि कंपनियों को कड़ी टक्कर दी है. ख़ासकर स्मार्टफोन, मेडिकल उपकरणों और अन्य उत्पाद बनाने में वो अमेरिका से कहीं आगे निकल गया.

चीन में बनने वाले दुनिया के सबसे महंगे उत्पादों के लिए अमेरिका सबसे मुफीद बाजार है, लेकिन अब बीजिंग अब अपने निवेशकों से दूसरे बाजार देखने को कह रहा है, जहां वो अपना सामान बिना घाटे के बेच सके. लेकिन बहुत से लोगों का मानना है कि एशियाई देश और यूरोपीय बाजार भी महंगे उत्पादों की बिक्री के लिए अमेरिका का विकल्प नहीं बन सकते.

जब से अमेरिकाा ने प्रशांत क्षेत्र में अपना सैन्य दखल बढ़ाया है, तभी से चीन यहां अपने हितों की सुरक्षा के नाम पर एयरक्राफ्ट कैरियर और मिसाइलों के जखीरे को जमा कर चुका है ताकि, किसी तरह इस क्षेत्र में उसकी बादशाहत बरकरार रह सके. वहीं दक्षिणी चीन सागर में तनाव लगातार बढ़ रहा है, ये वो समुद्री रूट है जिस पर बहुत बड़ा व्यापार केंद्र होने के साथ इसकी संपदा पर अपना हक जमाने के लिए अंतरराष्ट्रीय अदालत तक का फैसला मानने को तैयार नहीं है. वो इस इलाके से कई छोटे देशों का हक छीन लेना चाहता है.

2018 में एक चीनी डेस्ट्रॉयर अमेरिकी युद्धपोत (USS Decatur) के बेहद करीब आ गया था. तब दोनों देशों की नौसेना ने इसे दक्षिण-चीन सागर क्षेत्र में एक असुरक्षित और गैर जिम्मेदाराना हरकत करार दी थी. इसी तरह एक चीनी लड़ाकू विमान की 2001 में साउथ-चीन सागर के ऊपर अमेरिकी निगरानी विमान से टक्कर हुई थी, वहीं उसी दौरान एक अमेरिकी विमान को चीनी आइसलैंड पर आपात लैंडिंग की थी. 

दोनों देशों के बीच तनाव की एक बड़ी वजह ताइवान भी है, चीन इसे अपना क्षेत्र मानता है और जरूरत पड़ने पर इसे बल प्रयोग करके अपने नियंत्रण में लेने की बात करता है. लेकिन अमेरिका, ताइवान की ढ़ाल बनकर खड़ा है और उसे हर तरह का सैन्य सहयोग मुहैया कराता आया है. ट्रंप प्रशासन के दौरान अमेरिका ताइवान में और ज्यादा सक्रिय हुआ है. ताइवान के विदेश मंत्री ने पिछले हफ्ते कहा था कि चीनी विमान लगातार उसकी संप्रुभता का उल्लंघन कर रहे हैं. वहीं वॉशिंगटन लंबे समय से दक्षिण चीन सागर में से चीन के दावे को खारिज करता आया है.

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